सरकार चाहती हैं सस्ते मजदूर और संपन्न कॉर्पोरेट

सरकार चाहती हैं सस्ते मजदूर और संपन्न कॉर्पोरेट

केंद्र सरकार में सरकारी नौकरियों के सवा आठ लाख से अधिक पोस्ट खाली हैं. मगर सरकार उन्हें भरने नहीं चाहती, क्योंकि उन्हें सातवें वेतन आयोग के हिसाब से सैलरी देनी पड़ेगी. उनकी नौकरी पक्की और सम्मानजनक होगी. रिटायरमेंट की उम्र तय रहेगी. लगभग ऐसी ही स्थिति राज्यों में भी है. बिहार सरकार ने 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद आकलन करवाया था तो पता चला कि यहां सरकारी नौकरियों के साढ़े चार लाख पद खाली हैं. दूसरे राज्यों में भी कमोबेस ऐसी ही स्थिति है, कुल मिलाकर पूरे देश में चालीस से पचास लाख के करीब सरकारी नौकरियों के पद जरूर खाली होंगे. दिलचस्प है कि ये पद काफी पहले से निर्धारित हैं, जब देश की आबादी सवा सौ करोड़ नहीं थी. अब आज की आबादी के हिसाब से देखें तो इन नौकरियों के पद एक करोड़ के पास पहुंच जायेंगे. अगर इन तमाम पदों पर वेकेंसी निकल जाये, तो देश की बेरोजगारी की समस्या का तात्कालिक समाधान तो जरूर हो सकता है.
सरकार चाहती हैं सस्ते मजदूर और संपन्न कॉर्पोरेट

मगर किसी सरकार को इन खाली पदों को भरने की इच्छा नहीं है. बहाना वही है सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ेगा. मगर हकीकत यह नहीं है. ऐसा नहीं है कि सरकार के पास इन लोगों को वेतन देने के पैसे नहीं है. हकीकत यह है कि सरकारों की प्राथमिकताएं बदल गयी हैं. वे खरीद वाली योजनाओं, कंस्ट्रक्शन वाली योजनाओं और ऐसी दूसरी योजनाओं में सरकारी फंड को अधिक से अधिक खर्च करना चाहते हैं. क्योंकि वहां दो फायदे होते हैं, पहला उन पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाया जा सकता है जो राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देते हैं, दूसरा इन योजनाओं में मोटा कमीशन बनता है, जो मंत्रियों-अफसरों की जेब भी भरता है और पार्टी फंड में भी जाता है. इसलिए वह खाली पड़े पदों को भरने के बदले पुल-सड़क और ओवरब्रिज बनवाने में अधिक दिलचस्पी लेती है.

अग्निवीर वाली योजना का भी मूल भाव यही है कि अब सेना में भी सरकार ठेका सैनिकों को रखने की तैयारी कर रही है. ऐसे सैनिक जिन्हें कम वेतन देना पड़े, पेंशन का चक्कर नहीं हो, सेवा शर्त ऐसी हो कि समय से छुट्टी कर दी जाये. यह सेना में अब जाकर हो रहा है, मगर केंद्र और राज्यों की सरकारें दूसरी कई सरकारी नौकरियों में लंबे समय से ऐसा कर रही है. स्कूलों में शिक्षा मित्र या पंचायत शिक्षक जैसी व्यवस्था के बारे में हम सब जानते हैं. 
सेना को लेकर बनी इस नयी योजना के बारे में कहा जा रहा है कि इस योजना की वजह से जो पैसे बचेंगे उससे सेना के लिए आधुनिक हथियार खरीदे जायेंगे. सेना की खरीद में कमीशनखोरी का जो खेल होता है, वह जगजाहिर है. मगर इन सबसे अंततः देश का घाटा होता है. अगर कोई सरकार अपने नौजवानों को रोजगार देती है, तो इससे सिर्फ वही सुखी नहीं होता, अर्थव्यवस्था भी मजबूत होती है. क्योंकि सम्मानजनक नौकरी से जो वेतन उसे मिलता है वह उसे जगह-जगह खर्च करता है. छोटे-बड़े दुकानदारों से लेकर कंपनियों तक को लाभ होता है. जबकि सरकारी खरीद और कंस्ट्रक्शन के काम-काज से कुछ बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों भर को ही लाभ होता है.
सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार जिस पैसे के खर्च की प्रायोरिटी तय कर रही है, वह हमारा पैसा है. जनता का पैसा है. जनता से पूछा जाये तो वह सौ में नब्बे बार यही कहेगी कि इस पैसे को बेरोजगारी दूर करने में खर्च करें, किसी कारोबारी को लाभ पहुंचाने में नहीं. मगर सरकारें आजकल मनमौजी हो गयी हैं. उसे जनता के विचारों की कोई कद्र नहीं. उसे सस्ते नौकर चाहिए और उसका फोकस मोटा चंदा देने वाले कारपोरेट को लाभ पहुंचाना है.
– पुष्यमित्र
वरिष्ठ पत्रकार ,पटना 

You May Also Like