स्वामी विवेकानन्द के विचार

स्वामी विवेकानन्द के विचार


स्वामी विवेकानंद ने सारी जिंदगी सभी रंगत के फंडामेंटलिज्म, अंधविश्वास,राष्ट्रवाद और पोंगापंथ का विरोध किया। भारत में इनदिनों विवेकानंद का सबसे ज्यादा दुरूपयोग हिन्दुत्ववादी संघ परिवार कर रहा है । उसके आचार-व्यवहार के साथ विवेकानंद के नजरिए का कोई मेल नहीं बैठता।विवेकानंद ने हिन्दुओं में प्रचलित कूपमंडूकता की जितनी तीखी आलोचना की है वैसी अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। उनके नजरिए से हमें बहुत कुछ नया सीखने को मिल सकता है। उन्होंने लिखा है –
“मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन, जापान में आना चाहिए। जापानी

स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद

लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो? … जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवास करने वालो, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो। सठियाई बुद्धिवालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी! अपनी खोपडी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृद्धिगत कूडा – कर्कट भरे बैठे, सैकडों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करने वाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? …किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशी-गीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी – जान से तडप रहे हो — यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्त्वाकांक्षा है। जिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्ड बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तडपते हुए उन्हें घेरकर ‘ रोटी दो, रोटी दो ‘ चिल्लाते रहते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो ? आओ, मनुष्य बनो! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड – मूल से निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोडो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ रहे हैं। क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? यदि ‘हाँ’ तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखो; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ। भारतमाता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है — मस्तिष्क – वाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोडने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है।”

फेसबुक यूजरों के लिए स्वामी विवेकानंद का एक ही संदेश है, साहसी बनो,सामान्यजन के दुखों के प्रति संवेदनशील बनो। लिखा है -” ‘साहसी’ शब्द और उससे अधिक ‘साहसी’ कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो?”
स्वामी विवेकानंद का मानना है, ” हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है – उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते हैं। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे।”
आरएसएस का लक्ष्य है अपने साम्प्रदायिक हितों की रक्षा करना,जबकि विवेकानन्द का लक्ष्य था लोक हितों की रक्षा करना।
स्वामी विवेकानंद का मानना है, ‘बसन्त की तरह लोगों का हित करते जाना ‘ -यही मेरा धर्म है। “मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः – यही मेरा धर्म है।”
स्वामी विवेकाननंद भारत के विश्वविख्यात संयासी थे। उन्होंने संयासी की बड़ी सुंदर और अभिनव परिभाषा दी है। 
लिखा है- “संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर ले। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे – धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।”
सामान्यतौर पर इनदिनों संपदा जोड़ने के लिए लोग संयासी होते हैं।विवेकानंद संपदा त्यागकर संयासी बने थे। उनके जीवन का आदर्श था “पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो।”
स्वामी विवेकानंद का मानना था हमारी जाति का रोग ईर्ष्या ही है।
– जगदीश्वर चतुर्वेदी

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