अंतिम यात्रा

अंतिम यात्रा 

                                
तुलसीदास ने तो कहा ही है कि :

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार। 
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥
             
हमारे सामने संत दधीच  की कथा है कि जब सुर असुरो से परास्त होने लगे तो इन्द्र वज्र बनाने को उनकी हड्ढिया माग ले गये । इस स्वार्थी संसार मे मरना कौन चाहता है ? पर स्वर्ग सब जाना चाहते है।दधीचि के पुत्र पिप्पलाद की कथा आती है पिपलादि को जब पता लगा कि उनके पिता दधीच  की  हड्डियां इंद्र ले गए , तब उन्होंने अत्यंत क्रोध पूर्वक बदला लेने की ठानी और इसके लिए तप  किया ।अंत में शिव जी ने समझाकर  कहा दधीचि ने जो किया वह लोकहित में किया और आप इस  बीच  क्रोध करके अपयश के भागी न बनो  मैं फिर आऊंगा और वरदान दूंगा ।शिव जी ने भी उन्हें शांति का पाठ समझाया ।
जब  परिवार या  समाज  के लोग परस्पर  एक दूसरे से जलन करै ,आपस मे नुकसान करै  और अविश्वास करै तो  उनका  अंत  / पतन  सन्निकट  होता है ।यही बात वर्तमान समाज को दृष्टिगत रखकर बाबा तुलसीदास व भारतेन्दु हरिश्चंद  ने कही थी । यही विजय तैदुलकर के नाटक ” गिद्ध  “और  धूमिल की कविता   ” गिद्ध  ” मे है।
दूसरी कहानी भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा में है चित्रलेखा  स्वयं राजा के दरबार में कहती है कि जीवन का अर्थ  आनंदित रहना  है ,  यह सत्य है लेकिन कुमार गिरी योग बल से चित्रलेखा को गिरा देता है  कुमार गिरी एक प्रकाश प्रकट करता है  जो  वहा चारों तरफ घूम रहा है , कहता है कि वही सत्य है। अंत में स्थिति यह आती है कि स्वयं कुमार गिरी  जो शुरू मे चित्रलेखा के प्रति विकर्ष  था , उसी की  आसक्ति में  फंस जाता है ।और  चित्रलेखा  उसे  , उसकी  ही कुटिया  मे  चाहते हुए  , न चाहने का  नाटक कर रही होती है ।

अंतिम यात्रा

दिनकर ने भी कुरुक्षेत्र में  जीवन की कठिनाइयों को न्याय पूर्वक सुलझाना सुलझाना  ही जीवन का ध्येय  कहा है .एक अन्य कहानी उस सन्यासी की है जो  तप से ग्रस्त हुआ और फिर  पत्नी द्वारा छोड़े जाने पर विरक्ति के भाव से संत  रामकृष्ण परमहंस  से  उसका उपाय पूछता है । परा  और अपरा , ही  माया और योग माया का अंतर है। जहा मार्ग से  छोडा  उसी पाइन्ट से आगे बढो।राजा  शिव  प्रसाद  सितारेहिंद   का   निबंध   “   राजा   भोज   का  सपना   भी   इस   विषयक  पठनीय   है ।मोक्ष  अपना दुख दूर करने वाले और साथ ही दूसरौ का भी , को  मिल जाता है  । जैसा धुन्धकारी के साथ हुआ ।जैसे गान्धी जी  , जैसे अंबेडकर ।।

   
श्री गिरिराज किशोर  ने  ठीक कहा  था  कि – “पीडा का निराकरण तभी हो सकता है जब  उस पीडा का साक्षात्कार मनुष्य अपने अंदर स्वयं करे।मानव तभी मानव बनता है जब करुणा का भाव उसे पखारता  है ।।” और  इसी क्रम में मुरारी बापू जी की राज कौशिक की प्रस्तुति    “स्वीकार कर लै सभी सत्य “, दैनिक जागरण 12 फरवरी 2020 का वह लेख जो सत्य के विषयक है  में  कहा गया है कि संशय व्यक्तियों के बीच परस्पर  कमजोरी लाता है ,जबकि विश्वास उनको मजबूत बनाता है।अवगुण तो पतन के कारक है ही  , लेकिन अगर  गुणवान व्यक्ति अगर गुण का बखान या अहंकार करे तो वह भी शुभ नही है ।
पगडी रस्म
पगडी रस्म 

ध्रुव स्वामिनी की नायिका के ये वचन  कि  क्या राज पुरोहित  ने जो स्वस्ति वचन  दिलाए वे क्या मेरे दुर्भाग्य के सूचक थे ।नपुसक और डरपोक पति।यह स्त्री प्रधान नाटक है।वह  गैर -जिम्मेदार  पियक्कड पति और धूर्त मंत्री  से अपने को घिरा पाती है ,  इसलिए  चंद्रगुप्त का वरण करती है ।

परशुराम   ने  स्त्री  जागरण  के   लिए   अपने  समय   में  विशेष  प्रयत्न  किए  थे ।जय शंकर प्रसाद  की कालजयी कृति  कामायनी  के   मनु  की यात्रा का वृतान्त  , ध्वंस    के  साक्षी  है , जहा  रक्षक  कहो  या भक्षक  सब  अपने अपने स्वार्थ मे लीन  है । फिर  प्राचीन  गौरव  और  आधुनिक  गिरावट  पर अफसोस जाहिर किया है । जैसे  कि ,  श्री  मैथिली शरण  गुप्त    ने  भारत भारती  मे हम कौन थे क्या हो गये अब और क्या …. ।इसमे  एसी स्थितियो  का  भी  वर्णन है  कि  जिन  के कंधो पर  रक्षा   का  भार  है  , वह भक्षक बन गये  है। अर्थात  बडी  मछली  छोटी  को  खा  रही  है , जंगल  न्याय ।।

जीवन का आधार ईश्वर है और शरीर नश्वर है आत्मा के रूप में जितने भी अनुमान लगाए जाएं वह सब अपर्याप्त होते हैं ।  जीवन का मूल  मंत्र भी शांति है हमारे वेदों में बताया ही गया है और शांति मंत्र इस बात का दस्तावेज है ।समाज के विभिन्न समुदाय भेदभाव से रह नहीं सकते चाहिए कृत्रिम है बीता हुआ कल इस बात का प्रमाण है कि संत ज्ञानेश्वर आदि कभी भी क्षणिक आवेश में नहीं आए उनके गुरुओं ने भी कभी भी गलत निर्णय किसी भी और प्रेरणा अथवा कष्ट से नहीं लिया ।

मै स्वयं  इस आयु मे  दो  अलग विचार वाली जनरेसनो से जूझ रहा हू।मेरी मा  जिनका अभी एक पक्ष पूर्व निधन हो गया ,लेकिन उन के वे विचार नही माने जो  ठीक नही थे ,और दूसरे  ,  मेरे  बेटे , जो बहू  के  दबाव के आगे मेरी  बात  नही  माने । इन  स्थितियो से  क्लेश  पैदा न होने  दै।मन  की बडी विचित्र गति है  क्रोध मोह मद  लोभ ईर्ष्या व अहंकार  मे  लोग संलिप्त रहते है .क्रोध जब बढता है तो वह व्यक्ति का विनाशक है।
दया तप त्याग  दान  संतोष व ईश्वर नाम  जीवन  के कल्याण के अमोघ अस्त्र है ।

पगडी रस्म 

शरीर नश्वर है , लेकिन अंतिम यात्रा पर  पौराणिक और वैज्ञानिक मत, अंतिम यात्रा व पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति अलग -अलग है। कुछ लोग नेत्र दान अंग दान मेडिकल कालेजो व दधीच अंगदान समिति को कर देते है । एक दान यह भी है ।कुछ अब अंत्येष्टि  के  लिये  पवित्रतम नदियो को दूषित होते नही देखना चाहते ।अनुभव से लोग बताते हैं के शरीर तो नश्वर है वह पांच तत्वों में ही विलीन हो जाता है , पृथ्वी   108   तत्वों    से  बनी   है  , लेकिन आत्मा किस प्रकार की अंतिम  यात्रा करती है,  उसके विषय में लोगों के मत भिन्न-भिन्न ,  निम्न वत है :
  • मन का मोह=  जैसे हिरण में मोह प्राप्त हुआ,  अंत मता सो गता ( वह राजा   ….)
  • गीता में जैसे कहा गया है कि सर्व धर्म परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
  • धारणा   सूर्य के ऊपर निर्भर है ,  उत्तरायण अथवा दक्षिणायन  ( भीष्म पितामह ) , शुभ विचार  और  अशुभ विचार  ,  गरुण  पुराण   में इस   विषयक   विस्तार  से  दिया   है     और    परशुराम   का   यह   कथन   कि   या   तो   राजा  जनक  जैसा   हो  ,  निराकार    उपासक   या   दशरथ   जैसा  ,  साकार   उपासक   ,   बाकी   तो   उन्होंने    इन  से  इअतर   का  संहार   कर   ही   दिया  ।
  • शरीर  पर  मन  की चंचलता   प्रवृत्ति व  आत्मा के आधार पर सतोगुण प्रत्यय के आधार पर    सतोगुण रजोगुण अथवा तामसी वृत्ति  सर्वाधिक प्रभाव डालती है , वह  अवस्था धारण करती है । अंतिम समय तक क्रोध मोह लोभ मद मोह आदमी आसक्त रहते हैं इतने आ सकते रहते के अपने अंतिम समय पर भी पार्टी के व्यक्ति का मुक्तक नहीं देखना चाह रहा था इसके लोगों से कह दिया था कि दूसरे पक्ष के लोग मुझसे मिलने नहीं आवे ।दूसरा उदाहरण एक पुत्र के दो बेटे थे लेकिन अंतिम समय पर वह एक पुत्र का तो मुंह देखना चाह रहा था , लेकिन दूसरे पुत्र के प्रति अत्यंत घृणा का भाव था ।
  • इसमें योनियों के आधार पर आत्मा अथवा दुर्गति को प्राप्त होती है जैसे ज्ञानेंद्रियों के मार्ग से निकलती है तो वह सद्गति प्राप्त है और कर्म इंद्रियों के आधार पर दुर्गति प्राप्त होती है
  • बताते हैं कि शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष के आधार पर भी आत्मा के जाने की गति का मार्ग      बैकुंठ    या   अन्य  कीट  पतंग   की  योनि  का    कारक    ,  प्रशस्त होता है
  • सतत अभ्यास ब्रह्मा का सतत अभ्यास करता हुआ जिसको प्राण श्वास नली से निकले वह सदैव गति में जाएगा . इस मार्ग से निकले हुए आत्मा के मार्ग को श्रेष्ठ इसलिए बताया है कि मृत्यु अचानक कोमा में चला जाता है तो सारे ज्ञान लुप्त हो जाते हैं उसकी जुबा क्षतिग्रस्त हो गई ऐसी स्थिति में नाम न सोचा था निर्विकार है अथवा वर्ष में कुछ भी नहीं दैव गति निर्भर रहता है
  • जीवन में ब्रह्म ओम का नाम लगातार तिरोहित कर लिया जाए।मृत्यु तभी होती है जब सांस निकल जाए संस्कार सतत अभ्यास है तो,  वही समय पर काम देगा।
यह लेख  श्री ब्रह्मानंद जी शर्मा  से हुई वार्ता पर आधारित  ,  लेकिन   सार –  संक्षेप 



संपर्क  – क्षेत्रपाल शर्मा
म.सं 19/17  शांतिपुरम, सासनी गेट ,आगरा रोड अलीगढ 202001
मो  9411858774    ( kpsharma05@gmail.com )

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