आधुनिक भारत में हिंदी भाषा का महत्व

बूढ़ी माँ को भी है आकांक्षा आधुनिकता की 

आधुनिक भारत में हिंदी भाषा का महत्व

हिन्दी भारत की राजभाषा है एवं हिन्दी भारत की मूल भाषा है, परंतु फिर भी हिन्दी अब तक भारत की गौण भाषा ही है। संवैधानिक रूप से हम हिन्दी को भले ही भारत की प्रथम भाषा का दर्जा देते हैं, परंतु यथार्थ धरातल पर हिन्दी का दर्जा अब भी द्वितीय है।  यह मनुष्य की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है कि वे कभी परंपरा एवं विरासत में मिली वस्तुओं को अहमियत नहीं देता है और न ही उसका महत्व समझता है। यही स्थिति हिन्दी के संदर्भ में भी है, चूंकि हिन्दी भाषा हम भारतीयों को विरासत में मिली है, हम इसके महत्व को नजरंदाज़ कर देते हैं। हिन्दी की गरिमा के संवैधानिक महत्व के नाते हम भारतीय छठे-चौमासे कभी आजादी के जश्न पर तो कभी हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी के प्रति अपने कर्तव्यों का पुनरावलोकन जरूर कर लेते हैं, साथ ही भारत के नागरिक होने के नाते अपनी प्रतिबद्धता दर्ज कराने हेतु हिन्दी के विकास के लिए प्रतिज्ञा लेना भी नहीं भूलते हैं। पर इन प्रतिज्ञाओं और कर्तव्यों की पुनरावृत्ति से कहीं अधिक यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि हमारा उद्देश्य केवल इतना कहना नहीं है कि हिन्दी हमारी भाषा है अपितु उद्देश्य की पूर्ति तभी होगी जब हम हिन्दी भाषा के होंगे। हिन्दी केवल एक भाषा नहीं है, अपितु यह भारत का इतिहास है, संस्कृति है, संस्कार है, सम्मान है। हिन्दी नहीं होती तो भारत की गौरव-गाथा भी नहीं होती, भारत सांस्कृतिक रूप से समृद्ध नहीं होता, संस्कारों से हमारा परिचय नहीं होता। क्योंकि हिन्दी नहीं होती तो संपर्क नहीं होता, जुड़ाव नहीं होता, साहित्य नहीं होता, समाज नहीं होता और समाज के बिना राष्ट्र की अवधारणा अधूरी है। हिन्दी ही तो है जो भारत को विविधता में एकता के रूप में परिभाषित करती है। 

अन्नू मिश्रा
अन्नू मिश्रा

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो हमारी मानसिकता कुछ ऐसी है कि हिन्दी भाषा का प्रयोग करना पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाने लगा है। हिन्दी का ज्ञान होते हुए भी लोग इस सामाजिक या आधुनिक आक्षेप से बचने के लिए हिन्दी का प्रयोग करने से कटते हैं कि कहीं वे अनाधुनिक न सिद्ध हो जाएं। पर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि यह आधुनिकता, यह विकासशील समाज भी अचानक से प्रकट नहीं हुआ है, इस विकास प्रक्रिया में भी हिन्दी का ही योगदान है। जब हम अपने समाज, अपने विचार, अपने व्यवहार में आधुनिकता चाहते हैं तो क्या यह संभव नहीं कि हम हिन्दी भाषा के विकास के लिए कोई आधुनिक दृष्टिकोण अपनाएं। 


भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान होना बौद्धिक विकास में तीव्रता लाता है, इस आधार पर हम भारतीय तो कम से कम तीन भाषाओं अर्थात मातृभाषा, लोकभाषा एवं राजभाषा के ज्ञाता हैं। इतना ही नहीं हम वह भी भाषा जानते हैं जिसे तथाकथित पश्चिमी भाषा कहा जाता है। इतनी भाषाओं को जानने के बाद भी हम हिन्दी के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाते हैं, तो यह निश्चित ही अज्ञानता ही है। भाषा को विकसित या पिछड़े होने का प्रतीक मानना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। हम विकसित अपने विचार और विवेक से होते हैं न कि भाषा से। भाषा तो इन विचारों एवं विवेक को समृद्ध करने, अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है। यह तो हम भारतीयों का सौभाग्य है कि बहुभाषिकता भी हमें विरासत में मिली है। बहुभाषाओं का ज्ञाता तो इतना समर्थ होता है कि अपनी भाषिक विशेषताओं से वह भाषा के क्षेत्र में न जाने कितने नव-परिवर्तन कर सकता है, उसे आधुनिक रूप दे सकता है, भाषा के नए आयाम और अनुप्रयोग विकसित कर सकता है। 

यदि हम हिन्दी को केवल कर्तव्य मात्र मानेंगे तो यह उस बूढ़ी माँ की तरह लग सकती है जिसे अज्ञानतावश उसकी ही संतान बोझ मानती है और त्याग देती है लेकिन वो बूढ़ी माँ अंतिम श्वास तक केवल ममता और प्रेम ही देती है। किन्तु यदि हम इस माँ को अपने साथ ढालते चलते हैं, हर मोड़ पर इसके रूप-रंग को संवारते चलते हैं, इसकी साज-सज्जा को बनाए रखते हैं, तब माँ का प्रेम तो मिलता ही है साथ ही यह माँ बोझ भी नहीं लगती है, यह माँ सम्मान पर भारी भी नहीं पड़ती है, यह माँ अज्ञानता का सूचक भी नहीं बनती है और यह माँ हर पैमाने पर गौरवमयी वर्चस्व बनती है। अब इस प्रश्न का उत्तर आप पर है कि आपको माँ को बूढ़ा मान कर छोड़ना है या माँ को आधुनिक बना कर सदैव साथ रखना है। 
           



                                                                                                
– अन्नू मिश्रा

हिन्दी अधिकारी 

इंडियन ऑयल कार्पोरेशन लिमिटेड 
योग्यता: हिन्दी अँग्रेजी अनुवाद में स्नाकोत्तर डिप्लोमा
हिन्दी में स्नातकोत्तर, दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
जनसंचार में स्नातकोत्तर, गुरु जाम्भेश्वर विश्वविद्यालय
हिन्दी में स्नातक, लक्ष्मीबाई कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
 

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