इतना ही

        “इतना ही”

मैं इतना ही तो चाहता हूँ,

कि यह चाहने वाला ही ना हो।
जस का तस रख दूँ खुदको,
बो दूँ तुममें खुदको,
निर्भार हो जाऊँ।
मैं निर्भार होकर ही,
अहोभाव से भर सकता हूँ।
मैं सब खो कर ही,
सब पा सकता हूँ।
मैं नाम नहीं, पहचान नहीं,
महज़ जीवन चाहता हूँ।
बिलकुल! सहज, स्वभाविक,
समर्पित चाहता हूँ।
मुझे प्रेम में,
परम हो जाना है।
तुममें, रम जाना है।
बस तुम मुझसे गुज़र जाओ
संगीत बनकर,
मुझे बाँसुरी बन रह जाना है!!

यह रचना संजय झा जी द्वारा लिखी गयी है . आप आजीविका वृद्धि एवं महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से प्रोजेक्ट एग्जीक्यूटिव के पद पर गैर सरकारी संस्था सृजन के साथ आदिवासी परिवारों के मध्य छत्तीसगढ़, कोरिया में कार्यरत हैं . संपर्क सूत्र – केल्हारी, कोरिया, छत्तीसगढ़। M-9098205926 Email-Sanjaykshyapjha@gmail.com. 

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