इतिहास और आलोचना नामवर सिंह

इतिहास और आलोचना : नामवर सिंह 

इतिहास और आलोचना नामवर सिंह हम इस बात से बहुत अच्छी तरह वाक़िफ हैं कि प्रत्येक आलोचक पहले एक सुधि और सजग ‘पाठक’ होता है.उसके बाद आलोचक.आलोचक सही मायनों में विशद अंतर-आनुशासनिक ज्ञान से परिपूर्ण उस व्यक्ति को कहा जा सकता है जो समाज के निर्माण और उसके उत्थान में अपने ‘कहन’ और ‘लेखन’ से एक सकारात्मक भूमिका अदा करता है अर्थात एक आलोचक अपने ‘कहन’, ‘विवेक’ और ‘लेखन’ के माध्यम से कुछ ऐसी नई स्थापनाओं को जन्म देता है जो बहुत दूरगामी होती हैं—दीदावर चाहिए.
हिन्दी आलोचकों के प्रति बहुत-से लोग अभी भी एक अजीब-सी धारणा से ग्रस्त हैं. वह यह मानकर चलते हैं कि आलोचक सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘पाठक’ और ‘समाज’ को किसी ‘रचना-विशेष’, ‘काल-विशेष’ तथा ‘लेखक-विशेष’ के गुण-दोष मात्र से ही अवगत कराता है इससे ज़्यादा कुछ नहीं. जबकि ऐसा नहीं है. ऐसी धारणा से ग्रस्त लोग यह भूल जाते हैं कि किसी ‘पुस्तक-विशेष’, ‘काल-विशेष’ और ‘रचना-विशेष’ की ‘समीक्षा’ तथा ‘आलोचना’ करने में ज़मीन-आसमान का फर्क़ होता है. बहरहाल.
इतिहास और आलोचना
इतिहास और आलोचना
हिन्दी साहित्यालोचकों की एक लंबी फ़ेहरिस्त में, मसलन—‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’, ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी’, ‘नन्ददुलारे वाजपेयी’, ‘बच्चन सिंह’, ‘डॉ. रामकुमार वर्मा’, ‘डॉ. रामविलास शर्मा’, ‘शिवदान सिंह चौहान’, ‘डॉ. नगेन्द्र’, ‘रामस्वरूप चतुर्वेदी’, ‘सुमन राजे’, ‘प्रो.मैनेजर पाण्डेय’, तथा ‘विश्वनाथ त्रिपाठी’ आदि के अतिरिक्त एक नाम—‘नामवर सिंह’ भी है. नामवर सिंह हिन्दी आलोचकों में एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने हिन्दी आलोचना में कुछ ऐसे ‘नए प्रतिमानों’ को स्थापित किया, बकौल रघुवीर सहाय जिन्हें—‘लोग भूल गए हैं’. सही मायनों में हिन्दी जगत में आलोचना के क्षेत्र में नामवर सिंह ‘वाद-विवाद-संवाद’ की संस्कृति और परंपरा का निर्वाह करने वाले आलोचक का नाम है.—‘शौके-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर’.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में  मई २००२ में दिए गए अपने एक व्याख्यान—‘हिन्दी आलोचना की परंपरा’  में (जो अब पुस्तकाकार रूप में शाया हो चुका है) नामवर सिंह तफ़सील से बताते हैं कि उनके लेखन का लगभग दो-तिहाई हिस्सा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन करते हुए पूरा हुआ और बाकी कई पुस्तकों के अलावा ‘इतिहास और आलोचना’ जैसी पुस्तक यहीं की उपज है.          
यहाँ पुस्तक-समीक्षा के अंतर्गत पहले-पहल फ़रवरी १९५६ में सत साहित्य प्रकाशन, लक्ष्मी कुंड बनारस से शाया हुई ‘इतिहास और आलोचना’ के प्रथम संस्करण को रखा गया है जो कि मूलत: नामवर जी के १६ आलोचनात्मक निबन्धों का समुच्चय है और जो विभिन्न समय में लिखे गए हैं. सभी निबन्धों के नाम यहाँ उद्धृत करना लाज़िमी लगता है जो कुछ यूं हैं— 
१.   ‘व्यापकता और गहराई’,
२.   ‘कलात्मक सौंदर्य का आधार’
३.   ‘सामाजिक संकट और साहित्य’
४.   ‘समाज और साहित्य के बीच की कड़ी लेखक का व्यक्तित्व’
५.   ‘अनुभूति और वास्तविकता
६.   ‘प्रगतिवादी वस्तु और प्रयोगवादी रूप’
७.    ‘भ्रम और वास्तविकता’
८.    ‘आधुनिक छंदों का विकास’
९.    ‘छंद के कुछ नये प्रयोग’
१०.‘नई कविता की भाषा’
११.‘नई कविता में लोकभाषा का प्रभाव’
१२.‘हिन्दी साहित्य के इतिहास में लोक साहित्य का स्थान’
१३.‘छायावादी कवियों की आलोचनात्मक उपलब्धि’
१४.‘पांचवे दशक की कविता’
१५.‘प्रसाद जी की भाषा शैली’
१६.‘कामायनी के प्रतीक’
कुछ समय बाद राजकमल प्रकाशन से शाया हुई नामवर सिंह की ‘इतिहास और आलोचना’ नामक इस पुस्तक में कुछ निबन्धों के शीर्षक बदल दिए गए हैं और कुछ नए शामिल कर दिए गए हैं. समीक्षित-पुस्तक के रूप में यहाँ उस संस्करण को नहीं लिया गया है. बहरहाल.
जैसा कि एक आलोचक के बारे में माना जाता है की वह साहित्य विशेष तथा साहित्यकार-विशेष को ‘इतिहास’, ‘संस्कृति’, ‘परंपरा’, ‘तर्क’, ‘बुद्धि’, ‘विचार’ और ‘विवेक’ के तराज़ू पर नाप-तौलकर, उसका सम्यक बौद्धिक-परीक्षण करके उसे अपने समय और देशकाल के परिप्रेक्ष्य में अपने तर समझने-समझाने और देखने का प्रयत्न करता है. नामवर सिंह इस बात के बिलकुल अनुकूल बैठते हैं. यदि कहा जाए कि ‘इतिहास और आलोचना’ में संग्रहित उपर्युक्त बेशतर आलोचनात्मक निबंध इस बात का जीता-जागता प्रमाण हैं तो कहना ग़लत न होगा.
नामवर सिंह
नामवर सिंह
चूंकि यहाँ सभी निबन्धों पर बात करना मुनासिब नहीं है इसीलिए अपनी पसंद के आधार पर मैंने दो निबन्धों—‘छायावादी कवियों की आलोचनात्मक उपलब्धि’ तथा ‘नई कविता की भाषा’ का चयन किया है जिनके द्वारा से यह जानने का प्रयास किया गया है कि नामवर सिंह अपने दौर और बीते हुए को कैसे देख-समझ रहे थे. बानगी के बतौर मुलाहिज़ा कीजिए—
पुस्तक में निहित एक महत्वपूर्ण निबन्ध—‘छायावादी कवियों की आलोचनात्मक उपलब्धि’ में नामवर सिंह तफ़सील से हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में छायावाद के तीन बड़े कवियों—‘जयशंकर प्रसाद’, ‘सुमित्रानंदन पंत’ और ‘सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’ के ऐतिहासिक महत्व और उनके मौलिक योगदान पर विचार-विमर्श करते हुए नज़र आते हैं. यह देखना बड़ा दिलचस्प है कि छायावदी दौर के एक अज़ीम आलोचक ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में जहाँ मध्यकाल के तीन बड़े कवियों—‘तुलसीदास’, ‘मलिक मुहम्मद जायसी’ और ‘सूरदास’ पर अपनी आरंभिक स्थापनाएं प्रस्तुत करते हैं वहीं दूसरी ओर तीन छायावादी कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’, ‘सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’ और जयशंकर प्रसाद ने क्रमश: छायावाद का घोषणा पत्र माने जाने वाली ‘पल्लव’ की ऐतिहासिक भूमिका, ‘पंत जी और पल्लव’, तथा ‘काव्य और कला’ का सर्जन किया. नामवर सिंह के मुताबिक़—‘भाषा-व्याकरण-संबंधी गुण-दोष वाले काव्य विवेचन, तारतमिक आलोचना, निर्णयात्मक रूचि, लेखकों और पुस्तकों का सतही परिचय आदि की पृष्ठभूमि पर आचार्य शुक्ल तथा छायावदी कवियों के आलोचनात्मक निबंध एक नए विचार-लोक का दर्शन कराते हैं. यहीं से हिन्दी समीक्षा संस्कृत तथा हिन्दी के रूढ़िवादी रूढ़ मानदंडों से ऊपर उठती है. समीक्षा के नए मान बनते हैं; ‘भावों की व्यवच्छेदात्मक व्याख्या’ की ओर ध्यान जाता है; सुसंस्कृत सौंदर्य-दृष्टि का आभास मिलता है; शिल्प-सौंदर्य की परख आरंभ होती है’.(पृष्ठ संख्या ११७)
इसके अतिरिक्त एक दूसरे निबंध ‘नई कविता की भाषा’ में नामवर सिंह अलग तेवर अख्तियार करते हुए अपने विचार व्यक्त करते हैं और लिखते हैं—‘नये-से नये तराने लाए जा रहे हैं. संस्कृत शब्दों को भारी-भरकम समझकर हल्के-फुल्के उर्दू के शब्दों के लिए जगह की जा रही है.’ नामवर सिंह आगे कहते हैं…‘घिसी-उपमाओं, प्रतीकों, विशेषणों आदि में नया चमत्कार भी चमकाया जा रहा है. यदि इतने से भी काम नहीं चला तो विराम संकेतों से, अंकों और सीधी-तिरछी लकीरों से, छोटे-बड़े टाइपों से, सीधे या उल्टे अक्षरों से, अधूरे वाक्यों से—सभी प्रकार के इतर साधनों से काम लिया जाता है.’(पृष्ठ संख्या ९०) इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद मानसिक पटल पर जो एक नाम पहले-पहल अंकित होता है वह है हिन्दी-उर्दू के दोआब—‘शमशेर बहादुर सिंह’. इस कथन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि नामवर सिंह अपने इस निबंध से लेकर जीवन के अंतिम समय तक शमशेर बहादुर सिंह के विषय में कुछ ख़ास राय नहीं रखते थे बावजूद इसके कि आगे चलकर उन्होंने शमशेर बहादुर सिंह पर दो लेख भी लिखे हैं—(१) ‘शमशेर की रचना-प्रक्रिया’ तथा (२) ‘शमशेर की शमशेरियत’ जो ‘कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता’ नामक पुस्तक में संकलित है. नामवर सिंह जिस भाषा को तिरछी, छोटी-बड़ी कहकर खारिज कर देते हैं, दरअसल वह भूल कर जाते हैं क्योंकि आगे चलकर शमशेर बहादुर सिंह इसी के लिए प्रसिद्ध हुए. वह हमेशा भाषा के पार जाना चाहते रहे—‘ओ माध्यम!/क्षमा करना/कि मैं तुम्हारे पार जाना चाहता रहा हूँ’. बहरहाल.
इतिहास और आलोचना चूँकि नामवर सिंह के आरंभिक दौर के लेखन की उपज है इसी कारण पाठक इस बात को भली-भाँती महसूस करता है कि इसमें वह ‘कसावट’ और ‘लयात्मकता’ नहीं है जो नामवर जी के बाद के लेखन में है. बावजूद इसके यह पुस्तक इतिहास तथा हिन्दी आलोचना के नज़रिए से एक पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक है. जिसका अपना एक अलग ही मिज़ाज, लहज़ा और ‘अंदाज़-ए-बयां’ है, जिसकी कई अनेक रंगते हैं. आरंभ के चार निबंध इस बात की ताकीद करते हैं, जो कि ताज़े विचारों का ताना-बाना है. इस किताब की खूबसूरती और खासियत यही है कि यह हमारे देखने-सोचने के नज़रिए में विस्तार करती है.
अपने समय की अपने ‘तर’ लिखी गई यह एक ऐसी पुस्तक है जो इतिहास के कई मोड़ से होकर आलोचना की दहलीज़ तक पहुँचती है अपने साथ ऐसा बहुत कुछ नया लेकर जो अब तक किन्हीं कारणों से नहीं कहा गया था.
‘बात निकली है तो फ़िर दूर तलक जाएगी’ आज़ादी के पहले दशक में लिखी गई नामवर सिंह की यह पुस्तक वर्तमान में ‘क़फील आज़र अमरोहवी’ की नज़्म की इस पहली पंक्ति की ताक़ीद करती है. 
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समीक्षित पुस्तक : इतिहास और आलोचना, नामवर सिंह, प्रकाशक रामदुलारे त्रिपाठी, सत साहित्य प्रकाशन, लक्ष्मी कुंड बनारस, प्रथम संस्करण फरवरी १९५६, पृष्ठ संख्या १६४, मूल्य चार रुपया   
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आमिर विद्यार्थी, शोधार्थी भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ११००६७ . विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख, समीक्षा और रिपोर्ट प्रकाशित.

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