ईश्वर भाव के भूखे हैं, प्रभाव के नहीं

ईश्वर भाव के भूखे हैं, प्रभाव के नहीं

“जात पात पूछे नहिं कोई, हरि सो भजे सो हरि का होई ।”
कबीर दास की इन पंक्तियों के माध्यम से ईश्वर कभी जात पात का भेदभाव नहीं देखता, ऊंच -नीच का भेदभाव नहीं देखता, धर्म का भेदभाव नहीं देखता ।वह तो देखता है कि भक्त के हृदय में कितना प्रेम है? उसकी भावना कैसी है? तुलसीदास जी ने कहा है -“जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी” अर्थात जिसकी जैसी भावना होती है वह वैसा ही ईश्वर को प्राप्त कर पाता है। ईश्वर सदैव चैतन्य है ,इस सृष्टि में समाया हुआ है, प्रत्येक प्राणी के अंदर है, हर स्थान पर उपस्थित है । ईश्वर एक है पर ईश्वर के अनेक रूपों को हम जानते हैं। ईश्वर की सत्ता सर्वशक्तिमान है ।
हम ईश्वर को जब भी स्मरण करते हैं;अपने हृदय से पुकारते हैं, ईश्वर हमारी अवश्य सहायता करता है। हमें
ईश्वर
ईश्वर

किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ,अपने मतलब के लिए ईश्वर को कभी याद नहीं करना चाहिए । कबीरदास जी कहते हैं – “दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।” अर्थात ईश्वर को हम सदैव दुख में याद करते हैं सुख में कभी नहीं ।यदि सुख और दुख दोनों में याद करेंगे तो ही अच्छा रहेगा ।भगवान कभी नहीं देखते कि भक्तों के पास क्या है,कैसा प्रभाव है बल्कि भक्तों के भाव देखते हैं । रामायण में चर्चा आती है कि नाव चलाने वाला केवट, निषाद राज, सुग्रीव आदि को किस प्रकार से प्रभु से भावात्मक प्रेम था। शबरी जो एक भील जाति की स्त्री थी , उसके जूठे बेर प्रभु राम ने कितने भाव से खाए और सबरी को बैकुंठ धाम दिया,अहिल्या का उद्धार किया और जटायु को बैकुंठ प्रदान किया । प्रभु राम ने किस प्रकार से सभी के साथ प्रेम से सुंदर व्यवहार किया।

जो भक्त प्रभु को प्रेम से याद करते हैं ,ईश्वर सदैव उनका साथ देता है। जब द्रोपदी ने भगवान कृष्ण को याद किया तब उन्होंने एक भक्त के भाव का ध्यान रखा और द्रौपदी की सहायता की।दुःशासन थक गया परंतु वह अपने कार्य में सफल नहीं हो सका ।कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर का प्रेम सच्चे हृदय से होना चाहिए, भाव से होना चाहिए। ईश्वर सदैव सभी की सहायता करते हैं ।
– जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’


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