उस ओर

उस ओर

सहसा ही मैं उस ओर चल पडी
जिस ओर सब थे,
और न जाने कब,
न जाने कैसे,
खुद को ही खो दिया,
और खोती भी क्यों ना ?
सभी ने ये दिखाया
हरेक शख्स ने ये दर्शाया
मुझे अहसास कराया
जैसे मैं अलग हूँ , उनसें
मुझे बनना होगा उनके जैसा
दिखना होगा उनके जैसा,
और मैं ?

उस ओर

खोती रही,
रोती रही,
जागती रही कभी
कभी सोती रही
फिर एक सवेरा हुआ
बिल्कुल आम
हमेशा की तरह,

मगर आज मैं
   ” मैं थी”
पा लिया था खुद को
आज मैंने !
न जाने कितने वक्त बाद,
दिल से मुस्कुराया था
     “मैंने”
आज हंसाया उन्हें था,
     “मैंने”
खुद को आज
पाया था मैंने !
जादू यही था, 
इस जादू के पीछे
ठाना मैंने कुछ था,
सीखा जो कुछ मैंने था,
वो सलीका था
कुछ बारीक सा तरीका था,

जादू  बस यही था,
पास ही मेरे वो झरोखा था,
देखती तो जिसे रोज थी
पर खोल न पाती थी
इस बार जो हिम्मत की
तो हवाएँ चली !
तेज ,खूब तेज
झरोखा आज वो खुला
और
मुद्दतों बाद
खुद को पा ही लिया
आज मैंने !
आज मैंने !   
           

-शुभी

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