एक आज्ञाकारी पुत्र

एक आज्ञाकारी पुत्र


मेरे पिताजी वन विभाग में अफसर थे। 36 साल की नौकरी इस विभाग में करने के कारण, वन्य पशुओं से लगाव या फिर जंगलों में प्रकृति की मनमौजी अठखेलियों के आकर्षण के कारण उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय उद्यान के निकटतम शहर में ही रहना पसंद किया। इस वजह से वे हर सुबह ट्रेन से आते पर्यटकों की भीड़ में खो जाने का मजा लेते रहते थे। वहाँ उन्हें कोई उल्लास भरा, मुस्कराता परिवार दिखता तो वे उनके वनविहार की टीम से जुड़ जाते। बाद में उनके साथ हुए अनुभवों को पिताजी लिपिबद्ध करते और कभी कभी हमें उन किस्सों को सुनाया करते थे।

यह लिखने का शौक सेवानिवृत्ति के पहले ही उनमें पनप चुका था। उस समय वे पशु-पक्षियों के रहन-सहन, व्यवहार आदि की बातें बड़े गौर से अध्ययन करते हुए लिखते थे। वे कहते थे कि विपत्तियों से सामना करना और बीती बातों को विस्मृत कर स्वच्छंदता से वन-विहार करते उछलते-कूदते जीना इन्हीं से सीखा जा सकता है। उनका कहना था कि मनुष्य बहुत जल्दी उदास हो जाता है, निरूत्साहित हो जाता है और खुशी के मौकों में भी अपनी जिन्दगी को सताये जाता है। फलतः उसे अपनी जिन्दगी में खुशी के मौके तलाशने पड़ते हैं। इस द्दष्टि से राष्ट्रीय उद्यान सबसे उत्तम स्थल साबित होते हैं।

एक आज्ञाकारी पुत्र

वर्षों पहले का वाक्या है, एक ब्रिटिश पर्यटक इसी विषय पर अनुसंधान करने भारत आये थे। ‘वन्य उद्यानों में प्रकृति से सबसे करीबी संपर्क संभव हो सकता है,’ पिताजी ने उनसे कहा था। ब्रिटिश पर्यटक का नाम डॉ. डेविड़ जान्सन था और वे काफी लम्बे समय तक भारत रुके थे और पिताजी की मदद से रिसर्च करते रहे।

डॉ. जान्सन वन विहार प्रायः पिताजी के साथ ही किया करते थे और उन्हें लेने हमारे घर आया करते थे। एक दिन अपने सहपाठी अतुल के साथ मुझे देखकर उन्होंने पिताजी से कुछ खुसर-फुसर बात की, जिसे बाल्यावस्था में समझना नामुमकिन था। कालान्तर बस इतना आभास हुआ कि उनकी कोई संतान नहीं थी और इसलिये वे अतुल को अपने साथ विदेश ले जाना चाहते थे। अतुल के माता-पिता को समझाने के लिये उन्हें मेरे पिताजी की मदद चाहिये थी।

अतुल हमारे शहर से जुड़े कस्बे में रहता था। गरीब परिवार का था, फिर भी पढ़ने-लिखने में अव्वल था। तब वह मुझसे चार साल छोटा रहा होगा। हम दोनों साथ-साथ स्कूल आया-जाया करते थे और इसी से हम घनिष्ट मित्र हो गये थे। अतुल हँसमुख, शांत और व्यवहारकुशल होने के साथ गरीब था और इसलिये दया का पात्र भी था।

अतुल का यूँ विदेश चला जाना मुझे रुला गया। पिताजी ने मुझे बहुत समझाया पर मेरी बालबुद्धि कुछ न समझ पायी। वह बहुत दूर चला गया था और अब कभी उससे मिलने की उम्मीद कम थी।

खैर, पिताजी ने डॉ जान्सन से उनका विदेश का पता ले रखा था और मुझे उस पते पर चिठ्ठी लिखकर भेजने की सलाह दी। पिताजी ने इस तरह मेरी उदासी का निराकरण कर दिया। अतुल ने मेरी हर चिठ्ठी का जवाब दिया और यह पत्राचार कई वर्षों तक चलता रहा। मैं उसके हर पत्र को नस्तिबद्ध करता रहा। होते होते समय ने हम दोनों को उस उम्र में ढकेल दिया जहाँ बालपन की स्मृतियाँ धूमिल होने लगती हैं और हमारा युवामन वर्तमान के जश्न मनाने की चाहत की चुंगल में फँस जाता है।

पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी की तलाश और उसके पहले फॉकामस्ती के दिन सूखे पत्तों की तरह चरमराते नष्ट होते रहे। बचपन की यादों को रोंदता युवा मन भी बेमतलब क्रियाशीलता से ऊबकर रेंगने लगा था। 

अचानक वर्षों बाद मुझे विदेश से पत्र मिला। किसका था, कुछ देर मैं समझ ही न पाया था और काफी देर स्मृतियों की कंदराओं में खोज करता अतुल तक पहुँच पाया। पहले कुछ धुँधली -सी याद उभरकर आयी। परन्तु उसके बाद की घटित जीवनगाथा का खुलासा करते अतुल ने अपने पत्र में लिखा था, ‘यहाँ आकर मैं एक धनी परिवार से जुड़ गया जिसकी कल्पना मैंने कभी नहीं की थी। एक अद्भुत विदेशी सभ्यता का परिचय मिला। उच्च शिक्षा पाने का माहौल भी मिल गया जिसके साथ अपने पैर पर खड़ा होने के लिये अपने ही पापा की बड़ी कंपनी मिल गई।’

एक साँस में इतना पढ़ मैं रुक गया। रुकना इसलिये पड़ा कि ईर्ष्या की आँधी मुझे अपनी गिरफ्त में लाने उतावली हो चुकी थी। मन सोचने लगा कि यही वजह रही होगी जिससे अतुल इतने वर्षों तक अपने बचपन के मित्र को याद करना अपनी तौहीनी समझ पत्र व्यवहार बंद करने मजबूर हुआ होगा। अनायास इतनी शोहरत व दौलत मिलना मानव स्वभाव पर प्रहार करता है। उसकी सोच संस्कार व सभ्यता तक को पिछड़ेपन की श्रेणी में रखने लगती है और मनुष्य अहंकार का पुलिंदा बन इतराना सीख लेता है। 

उपरोक्त विचारों से जाहिर था कि मैं ईर्ष्या की गिरफ्त में जा चुका था। पिताश्री की दी गई संस्कारों की पवित्रता के ज्ञान से विलग होता मैं, अंतः से कँप उठा था। मैं पत्र को कुड़मुड़ाकर खिड़की के बाहर फैकने का मन बना चुका था। तभी उस खिड़की की चौखट पर एक गुरैया आ बैठी। वह प्यार भरी द्दष्टि से मुझे ताकने लगी। वह एक क्षण मेरे अंतः को सुकून देनेवाला बन गया और पत्र को आगे पढ़ने उत्सुक हो उठा। लेकिन अब उस पत्र का हरेक शब्द धुँधला होने लगा था। मेरी साँस फूलने लगी। विचित्र कँप-कँपी रेंगती मेरी सोच को कुंद करने लगी। उसने लिखा था कि उसके पालक माता-पिता एक दुर्घटना में चल बसे थे। अब वह एकदम अकेला, अशांत, निर्जीव-सा महसूस करने लगा था।

इसके साथ एक और झकझोर देनेवाली बात उसने लिखी थी, ‘पिताजी की वसीयत के अनुसार उनकी कंपनी का मालिकाना हक मुझे मिल गया था। पर इसके साथ वे मुझे अपने उन माता-पिता के सुपुर्द कर गये थे जिन्होने मुझे जन्म दिया था, इसलिये वे चाहते कि भारत आकर तुमसे मिलूँ।’ डॉ जान्सन ने अपनी वसीयत में उसके माता-पिता व मेरे पिताजी का पता दिया था।

‘अच्छा, तो इसलिये अतुल मुझसे मिलना चाहता था।’ मैं खीज उठा।

 मैं पत्र को टेबल पर रख फिर सोचने लगा, ‘काश! भाग्य मुझे चुनता, विदेश में भेज मुझे उच्च शिक्षा दिलाता और मुझे बनी-बनायी कंपनी का मालिकाना हक प्रदान कर देता। आज मैं भी अपने घर लौट रहा होता तो मेरे पिताजी कितने खुश होते।’

ऐसे विचारों के आते ही ईर्ष्या ने पुनः अपने पैर मेरे मन-मस्तिक में पसारना चालू कर दिया। मैं झुँझला उठा। आत्मा मुझे झकझोरने लगी और मैं स्वतः अपने विचारों से ग्लानि महसूस करने लगा। सच, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, जलन इत्यादि सभी दुर्गुण सोच को कुंद और कर्म को कलुषित करने में माहिर होते हैं। इनकी गिरफ्त में आत्मा चीख पड़ती है। जिन्दगी भयावह हो उठती है।

परन्तु जिन्दगी में कभी भी चेतना पूर्णरूपेण सुप्त नहीं होती। सोच ने करवट ली और कहने लगी, ‘मैं क्यूँ बेमतलब अपने मन में स्वार्थपूर्ण विचारों को पनपने दे रहा हूँ?’ पर फूटी किस्मत कब शांत रहती है? वह कुड़मुड़ाने लगी, ‘इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद मात्र एक छोटी-सी दुकान में मैकेनिक बनना क्या शोभा देता है? क्या महत्वाकांक्षा आहत होकर तिलमिलाती नहीं?’ 

मन ऐसे कई प्रहार करनेवाले प्रश्नों से आहत होता रहा और मैं पीड़ा के पौध में उलझा काँटों की चुभन को कोसता पड़ा रहा। कब शाम हो गई, पता न चला। पिताजी आ चुके थे। मैंने पत्र दिखाया तो वे कहने लगे, ‘यह तो डॉ.जान्सन के बेटे का पत्र है। कितने दिनों बाद हमें याद किया है उसने।’ 

पत्र पढ़ते समय उनके चेहरे पर विस्मित कर देने भाव उभरते देख मैं कँप उठा। डॉ जान्सन की मृत्यु की खबर से उनकी आँखें नम हो उठी थी। वे कहने लगे, ‘डॉक्टर सच में एक नेक इंसान साबित हुआ। उन्होंने अतुल को गोद लेकर उसे जीने योग्य बना दिया और आज उसे अपने माता-पिता को सुपुर्द कर तो उन्होंने सच में, एक अनोखी मिसाल पैदा की है।’

‘काश! भाग्य मुझे चुनता!’ ये वो शब्द थे जो आह बनकर मेरे चारों ओर घूम रहे थे।

उधर पिताजी आँखें मूँदें अपने को संयमित कर रहे थे। फिर यकायक बोले, ‘बेटा, वे अतुल की जगह तुझे गोद लेना चाहते थे। पर मैं तुमसे दूर नहीं होना चाहता था। अच्छा हुआ वरना आज तुझे अपने पालक पिता के गुजर जाने का दुख सहना पड़ता। उन्होंने मेरी ही सलाह पर अतुल को गोद लिया। तुम्हें नहीं मालूम कि अतुल के गरीब माता-पिता के लिये डॉक्टर नियमित रूप से पैसे मेरे पास भेजा करते थे और उनकी देखभाल करने का सौभाग्य इस नेक डॉक्टर की वजह से मुझे मिला। बेटा, तुम सिर्फ अतुल को जानते थे, उसके माता-पिता को नहीं। उस समय तुम्हारी उम्र ही क्या थी! आज तुम्हें मैं बता रहा हूँ कि मैंने क्यूँ अतुल को डॉक्टर साहब के लिये चुना — क्योंकि अतुल के माता-पिता दोनों नेत्रहीन हैं।’

यह सुन मैं पिताजी की तरफ देखता रह गया — उनके चेहरे की ओज से मेरी आत्मा भी गौरवान्वित हो उठी।

और — सच में दूसरे दिन अतुल एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह अपने माता-पिता के पास आ गया।

       

यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैंआपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँबूंद- बूंद आँसू आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैसंपर्क सूत्र  भूपेन्द्र कुमार दवे,  43, सहकार नगररामपुर,जबलपुरम.प्र। मोबाइल न.  09893060419.        

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