एक विलक्षण चित्रकार/बच्चों की कहानियां

एक विलक्षण चित्रकार

मैं एक हाथ में लाठी लिये जमीन को
टटोलता और दूसरे हाथ को फेंसिंग दीवार पर सरकाता जा रहा था। मुझे फेंसिंग
दीवार का अंत ही नजर नहीं आ रहा था। शायद इस ओर फाटक था ही नहीं, क्योंकि
मैं जानता हूँ कि फाटक के आते ही कोई खतरनाक कुत्ता भोंकने लगेगा या फिर
कोई चौकीदार गाली देता हुआ दौड़ पड़ेगा। मकान शायद किसी पैसेवाले का था तभी
तो इतनी लम्बी फेंसिंग वॉल ने मकान को घेर रखा था।

पर चीन की दीवार का भी कहीं अंत होता
है। मेरा हाथ जैसे ही लोहे के फाटक पर पड़ा तो कोई दहाड़ा, ‘कौन है?’ मैं
ठिठक गया। भारी जूते चलते हुए फाटक के करीब आये और कुछ दूरी पर थम गये। फिर
मुझे आदेष हुआ, ‘आगे जावो।’ मैं यूँ ही कुछ देर फाटक पर बनी लोहे की
नक्काषी पर हाथ फेरता खड़ा रहा। आवाज फिर थर्रायी, ‘सुना नहीं। बहरा है
क्या? भाग यहाँ से।’

मैं हटने ही वाला था कि मुझे सुनायी पड़ा, ‘कौन है?’ इस  समय आवाज किसी महिला की थी।

‘कोई भिखारी है,’ चौकीदार ने उत्तर दिया था।

‘उसे रोको। इतने दिनों बाद कोई तो इस
घर पर आया है। उसे खाली हाथ मत जाने दो। यह लो। ये पैसे उसे दे देना।’ कुछ
रुक वह फिर बोल पड़ी, ‘तुम उसे रोको। पैसे मैं खुद जाकर दे देती हूँ।’

मुझे उस महिला के पैरों की आवाज पास
आती सुनाई पड़ी। पर वह शायद कुछ दूरी पर आकर ठिठक गई और मुझे देखकर बोली,
‘आप तो विनोद हैं। है ना। मुझे देखोे और पहचानो।  बतावो मैं कौन हूँ?’

मैं अचंभित हो उठा। आवाज चाहे कितनी भी
बदल जावे और समय के गर्त में छिप जावे पर वह स्मृतियों की दीवारों से
प्रतिध्वनित होकर जब प्रगट होती है तो उससे वही स्वर लहरियाँ उत्पन्न होती
हैं जो वर्षों पूर्व आपको गुदगुदाती रही थी। मैं पहचान गया और बोल उठा, ‘हो
ना हो, तुम विभा हो। तुम्हारी आवाज मुझे बता रही है।’

‘पर तुमने अपनी यह कैसी हालत बना रखी है विनोद?’ आवो, अंदर चले आवो,’ वह कुछ और पास आकर बोली।

मुझे फाटक का कुंदा टटोलते देख वह
बोली, ‘अरे! यह क्या! तुम्हें दिखाई नहीं देता।’ यह कह वह आगे बढ़ी और मेरा
हाथ पकड़कर मुझे अंदर ले आयी।

मैं अपनी लाठी लिये कुछ कदम आगे रख ही पाया था कि चौकीदार चिल्लाया, ‘साँप’।

विभा ने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और धीमे से बोली, ‘लाठी पीछे कर लो। आगे साँप है।’

मुझे साँप की एक फुफकार सुनाई दी। ‘लो, वह चला गया। इस बगिचे में वह यूँ ही घूमता रहता है,’ विभा ने कहा और हम आगे बढ़े।

कुछ कदम चलने पर मेरा हाथ सीढ़ी की
रेलिंग पर पड़ा। मैं रुक गया। रेलिंग पर ब्रेल लिपि में छः लिखा था। विभा ने
मुझे बताया कि इसका मतलब है कि आगे छः पायदान हैं। मैं जब आखरी पायदान पर
पहुँचा तो पाया कि वहाँ रेलिंग पर ब्रेल लिपि में लिखा था कि बाँयी ओर दस
डिग्री पर बारह कदम आगे दरवाजा था। मैं उसे दरवाजे की तरफ खुद-ब-खुद चल
पड़ा। दरवाजे की बाँयी तरफ की दीवार पर नक्षा-सा बना था, जो ब्रेल लिपि में
बता रहा था कि अंदर कमरे में कहाँ, कितनी दूरी पर सोफा, टेबल आदि रखे थे।
मैंने कौतुहलवष विभा से पूछ ही लिया, ‘क्या तुम्हें मालूम था कि जब कभी मैं
यहाँ आऊँगा तो मैं अपनी द्दष्टि खो चुका होऊँगा या फिर तुम्हें किसी और
अंघे के यहाँ आने का इंतजार था?’

इस प्रष्न से विभा के चेहरे पर क्या
रेखायें उभरी, मैं देख न सका था, पर उसने उत्तर सहज भाव में ही दिया था,
‘यह तुम सोचो और समझो।’ मैं चुपचाप कमरे में दाखिल हो अंदाज लगाकर सोफे पर
बैठ गया। मेरे पीछे विभा ने कमरे के अंदर आते ही प्रष्न किया, ‘अच्छा, पहले
ये बतावो कि क्या लोगे — गरम या ठंडा?’

‘मैं एक भिखारी हूँ। एक भिखारी केे पास
यह अधिकार ही नहीं होता कि वह अपनी पसंद को जाहिर कर भीख माँगे। मेरे
ख्याल  से तुम भी यह अच्छी तरह जानती हो’ मैंने कहा।

मैंने महसूस किया कि विभा कमरे से जा
चुकी थी और मैं अकेला कमरे में बैठा शून्य में देख रहा था। सोफे के बाँये
हत्थे पर हाथ अचानक कुछ पढ़ने लगा। ब्रेल लिपि मुझे बताने की कोषिष कर रही
थी कि कमरे में कौन-सी चीज कहाँ रखी थी। मेरी बाँयीं तरफ एक और सोफा था।
उसके बाँयी तरफ समकोण पर दो सीटवाला सोफा था। सामने शो-केस था। मेरी दाँयी
ओर दो फीट की दूरी पर एक तखत बिछा था। उस तखत की दाँयी तरफ एक मेज व कुर्सी
थी। मेज पर टेलीफोन था। मैं उठकर मेज के पास गया। टेलीफोन के पास ब्रेल
लिपि में कुछ नाम व टेलीफोन नंबर लिखे थे।

भूपेंद्र कुमार दवे

यह सब देख मैं बेचैन हो उठा। तुरंत
लौटकर वापस सोफे में आ बैठा। मैं विभा के बारे में जानने उत्सुक हो उठा।
क्या वह भी मेरी तरह अंधी थी? और अगर अंधी थी तो अभी तक उसने मुझे यह बताया
क्यों नहीं। पर वह तो मुझे दूर से पहचान गई थी। कहीं उसने भी मुझे मेरी
आवाज से पहचान लिया था? पर फाटक के पास खड़े रहकर मैंने तो कुछ भी नहीं कहा
था। तो क्या छटी इंद्रिय का उसने प्रयोग किया था? मुझे याद आया कि कहीं पढ़ा
था कि औरतों में छटी इंद्रिय तेज होती है। विभा मेरे साथ कालेज में पढ़ती
थी। हमारा परिचय अपनत्व में बदल चुका था। हम एक दूसरे को अच्छी तरह पहचान
गये थे। पर मुझे ऐसा कभी भी अहसास नहीं हुआ था कि विभा अपनी छटी इंद्रिय का
इस्तमाल करने में माहिर थी। वह अपने भविष्य के बारे में न तो सोचती थी और न
ही वर्तमान से हटकर चलती थी और शायद इसकारण ही वह मेरे साये के इर्द-गिर्द
मौज-मस्ती की तलाष में चहकती दिखती रही थी।

‘क्या सोचने लगे?’ विभा ने वापस आकर
तखत पर बैठते ही मुझसे प्रष्न किया और फिर मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये
बगैर बोल पड़ी, ‘अच्छा, यह बतावो कि परीक्षा के रिजल्ट के तुरंत बाद अचानक
कहाँ  गुम हो गये थे। मुझे बिना बताये तुम्हारा यूँ चला जाना मुझे कितना
आहत कर जावेगा, इसकी तुमने कुछ भी परवाह नहीं की। कम से कम इतना तो कह गये
होते कि मैं तुम्हारे लिये कोई मायने ही नहीं रखती थी। क्या मैं इस छोटे
अहसान के लायक भी नहीं थी? और अगर यह सही था तब भी क्या मुझे यह अधिकार
नहीं था कि मुझे प्यार के खोखलेपन का आभास तुरंत हो जावे। तुम्हारा एक शब्द
काफी होता और मैं इतने लम्बे अरसे तक अपने आप में यूँ कुढ़ती न रहती।
मनुष्य को इतनी स्वतंत्रता नहीं है कि वह दूसरों की जिन्दगी से खिलवाड़ करे
और उफ् तक न करे।’ इतना कह वह फफक-फफक कर रो पड़ी और मैं एक गुनहगार की तरह
यह सोचने मजबूर हो उठा कि मेरे अंघेपन के पीछे शायद इसी तड़पती आत्मा की हाय
थी।

मैं कुछ कहने की कोषिष भी न कर सका।
ऐसे समय शब्द भी अंघे हो जाते हैं और अपने आप को व्यक्त करने होंटों तक
पहुँचने की राह पाने के लिये भटक जाते हैं।

पर विभा को अपने प्रष्न का उत्तर चाहिये था। ‘कुछ तो कहो,’ वह जिद्द पर थी।

‘विभा, मैं क्या कहूँ? तुम्हें यकीन
नहीं होगा। जिस समय मैं रिजल्ट देख रहा था तब भाग्य को मेरा प्रथम स्थान
पाना अच्छा नहीं लगा। मैं अपनी सफलता के लिये भगवान का स्मरण भी न कर पाया
था कि मुझे मेरे पिता के स्वर्गवास की खबर मिली। मुझे तुरंत गाँव जाना पड़ा।
और फिर एक गरीब परिवार की मजबूरी ने मुझे अपनी गिरफ्त में लेकर तुरंत
वैज्ञानिक का पद ज्वाइन करने निर्देषित किया। इस खुषी के क्षण भी भाग्य खीज
उठा। माँ गुजर गई और मैं माँ को बता भी न सका  कि मुझे नौकरी मिल गई थी।
मैं तब भाग्य से लड़ता भी तो कैसे? वह फुफकारता नहीं था, वह तो सिर्फ डसना
जानता था। मैं जिस रिसर्च में लगा था वह अचानक सफलता के चिन्ह लेकर प्रगट
हुई। मेरे साथी की खुषी देखने लायक थी जब वह अपनी टेस्ट-ट्यूब लेकर मेरी
तरफ आया था। उसे बताना था कि रासायनिक क्रिया सफल हो गई थी। वह टेस्ट-ट्यूब
मेरे सामने लाया। पर मैं कुछ देख पाता उसके पहले उसमें एक विस्फोट हुआ।
मेरा वह साथी मुझे अस्पताल ले गया। पर आँखें रोषनी खो चुकीं थी। मुझे
मुआवजा भी मिला। कागजों पर मेरे हस्ताक्षर भी लिये गये। पर कोई धोखा दे
गया। मेरा वह साथी या और कोई — मैं कुछ न समझ सका। बस दया की भीख माँगना
ही शेष रह गया था। एक भिखारी यही तो करता है ना !’

‘उफ्, चाय ठंडी हो गई,’ विभा ने मेरे
व्याकुल मन को व्यवस्थित करने की द्दष्टि से बात बदले के कोषिष की। परन्तु
मैं अतीत की घटनाओं की स्मृति के तेज धार में बहता ही रहा और कहता चला,
‘चाय कमरे के तापमान पर आकर और ठंडी नहीं होती। मेरा सब कुछ मिट चुका था और
इसलिये भाग्य भी मेरा और नाष करने की क्षमता खो चुका था। मैं भी नहीं
चाहता था कि मैं कुछ हासिल करूँ और भाग्य फिर से मुझे डसने फन फैलाये।
मैंने तुम्हारी याद की कीमती अषर्फियाँ  का भी उपयोग करना ठीक नहीं समझा।
और फिर एक अंधा तुम्हारे किस काम का था? मुझे नकारने में तुम्हें पीड़ा
होती। तुम शब्दों का चक्रव्यूह रचती और हर शब्द की चुभन मुझे लहुलुहान
करती। मेरे अंधेपन की यह दुर्गति मुझे न जीने देती और न ही मरने देती। आज
मुझे संतोष है कि मैं सिर्फ अंधा हूँ, जिसका दर्द सिर्फ मुझे होता है और
किसी को नहीं।’

मेरे चुप होते ही विभा ने एक गहरी साँस
ली और बोली, ‘षायद तुम ठीक कहते हो कि अंधों को किसी से प्यार नहीं
मिलता।’ पर इस वाक्य में सर्पिणी की सी फुँफकार छिपी थी। और फिर एक आहत
शेरनी की तरह वह धीमे आवाज में गुर्रायी, ‘मुझे नहीं मालूम था कि आँखों की
रोषनी बुझ जाने से सोच भी अंधी हो जाती है। मुझे यह भी नहीं मालूम था कि
दिये के बुझ जाने से ईष्वर की मूर्ति भी अपना अस्तित्व खो देती है। अभी तक
मैं तो यह सोचती थी कि सूर्य के अस्त होने से आकाष खाली नहीं होता, बल्कि
असंख्य तारों से भर जाता है और इन तारों का साथ देने चाँदनी भी उत्सुक हो
आकाष में फैल जाती है।’ फिर स्वयं केे वेग को थामते हुई बोली,‘ चलो, अब कोई
इतर बात करें।’

‘अरे, मैं अपनी ही बात करता रहा। भूल
गया कि इस बीच तुमने भी जिन्दगी के बीस बरस गुजारे हैं। उसके बारे में क्या
मुझे कुछ नहीं बताओगी?’

‘मुझे बताने को बचा ही क्या है?’ उसने
कहा, ‘सब कुछ तो तुम स्वयं ही देख रहे हो। अरे हाँ, मैंने तो उनसे आपको
मिलवाया ही नहीं। उठो, मेरे साथ आवो। इस समय वे अपने स्टूडियों में व्यस्त
होंगे।’

मैं यंत्रवत् उठा और विभा मेरे हाथ
थामे जिस कक्ष में मुझे ले गई वहाँ पेन्ट की गंध मुझे बता रही थी कि कक्ष
में किसी चित्रकारी कर रहा था।

‘देखिये, कौन आया है?’ विभा ने कहा।

‘कौन?’ एक छोटा-सा प्रष्न कक्ष में गूँज उठा।

‘विनोद। याद आया। इसका ही जिक्र मैं किया करती थी,’ विभा ने कहा।

‘ओ, विनोद। वाह भाई, तुमसे मिलकर बड़ी खुषी हुई। आवो देखो, मैंने क्या बनाया है?’ चित्रकार ने मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा।

‘आवो विनोद, मैं बताती हूँ कि ये क्या
पेंटिंग बना रहे हैं?’ विभा मेरा हाथ पकड़कर बाँयी ओर ले गई। वहाँ  एक तख्ती
पर ब्रेल लिपि की तरह उकेरी तस्वीर थी।

‘मैं उनके निर्देष से यह बनाकर उन्हें देती हूँ  पेंटिंग करने’ विभा ने कहा।

‘इसका मतलब ….’ मुझे बीच में ही
रोककर विभा बोली, ‘हाँ, वे भी नेत्रहीन हैं। सूर्यास्त के बाद चाँदनी में
विचरण करते एक विलक्षण चित्रकार।

यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी
द्वारा लिखी गयी है. आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं .
आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है . ‘
बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ‘ ,’बूंद- बूंद  आँसू‘ आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है .

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