क़सम है आपके हर रोज़ – जोश मलीहाबादी

क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने की
के अब हवस है अजल को गले लगाने की

वहाँ से है मेरी हिम्मत की इब्तिदा अल्लाह
जो इंतिहा है तेरे सब्र आज़माने की

फुँका हुआ है मेरे आशियाँ का हर तिनका
फ़लक को ख़ू है तो है बिजलियाँ गिराने की

हज़ार बार हुई गो मआलेगुल से दोचार
कली से ख़ू न गई फिर भी मुस्कुराने की

मेरे ग़ुरूर के माथे पे आ चली है शिकन
बदल रही है तो बदले हवा ज़माने की

चिराग़-ए-दैर-ओ-हरम कब के बुझ गए ऐ ‘जोश’
हनोज़ शम्मा है रोशन शराबख़ाने की

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