काव्य हेतु काव्यशास्त्र

काव्य हेतु Kavya Hetu

काव्य हेतु काव्यशास्त्र काव्य हेतु पर विचार Kavya Hetu  काव्य हेतु काव्य हेतु kavya hetu – इस संसार में कोई भी कार्य बिना कारण के संभव नहीं .कारण ही कार्य का जनक है .मानव के विविध क्रिया व्यापार कारण या हेतु से ही सम्बंधित है .जहाँ तक काव्य हेतु का प्रश्न है ,उसका भी सीधा साधा अर्थ ऐसे साधनों एवं तत्वों से हैं ,जिनके कारण काव्य सृजन संभव होता है .कवि भी समाज का व्यक्ति होता है .वह व्यक्ति पहले है ,कवि बाद में .उसके जीवन के मधुर एवं तिक्त अनुभव जो उसके प्राप्त किया है ,वह उसके काव्य में ढल जाते हैं .इस प्रकार
काव्य हेतु

काव्य रचना का कारण ही साहित्य में काव्य हेतु कहलाता है .इसी कारण काव्य हेतु को काव्य का प्रेरक तत्व भी कहा जाता है .प्रेरक तत्व वे शक्तियाँ हैं ,जो कवि को काव्य का सृजन करने के लिए प्रेरित करती रहती हैं .

काव्य हेतु के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत – 

संस्कृत के काव्यशास्त्रियों ने अपने अपने ढंग से काव्य हेतुओं का वर्णन किया है .इस दृष्टि निम्नलिखित विद्वानों का मत उल्लेखनीय है –
आचार्य दंडी –
नैसर्गिकी च प्रतिभा, श्रुतं च बहु निर्मलम् ।
अमन्दश्चा~भियोगो~स्या: कारणं काव्यसंपद: ।।

इस प्रकार जन्मजात प्रतिभा ,लोक्षश्त्र ज्ञान तथा अमंद अभियोग अनवरत अभ्यास ही काव्य हेतु है .
आचार्य मम्मट –
शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् |
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे || 
शक्ति ,लोक ,काव्यशास्त्र आदि के अन्वेषण से प्राप्त निपुणता तथा कव्य्मार्मग्यों से प्राप्त शिक्षा के माध्यम से किया जाने वाला अभ्यास  – इन तीनों के सम्नावित रूप को काव्य शाश्त्र कहते हैं .
आचार्य श्रीपति –
गुरुदेशादध्येतुं शास्त्रं जड़धिमोडप्यलम् |
काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावत: ||
प्लेटो – 
काव्य हेतु अंत प्रेरणा है ,इसके बिना केवल ब्रह्य अभ्यास के द्वारा जो कवि बनने का पर्यंत करता है ,उसका कोई महत्व नहीं .
अरस्तु –
काव्य एक कला है ,उसका एक निश्चित रितिविधान है ,जिसके सम्यक पालन करने से निपुणता प्राप्त की जा सकती है .अभ्यास से कवि – कर्म में सफलता संभव है .
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है की इन विभिन्न विधाओं ने किसी न किसी रूप में प्रतिभा ,व्युपत्ति और अभ्यास को काव्य हेतु माना है .किसी न किसी विद्वान ने समाधी को भी काव्य हेतु माना है .इस प्रकार काव्य हेतुओं का विवेचन निम्न है –

१. प्रतिभा –

काव्य सृजन में सबसे प्रमुख प्रतिभा को विद्वानों ने माना है .वास्तव में प्रतिभा ही वह तत्व है ,जो की एक कवि व साधारण व्यक्ति के मध्य अन्तर प्रस्तुत कर देती है .भट्टतौत ने कहा है – प्रज्ञा नव – नवोंमेशाश प्रतिभा मता. यानि परिभा उस प्रज्ञा का नाम है ,जो नित नूतन रासनुकुल विचार उत्पन्न करती है .कवि की यह प्रतिभा अपने आप में एक अद्भुत शक्ति होती है ,जिसे पाकर कवि काव्य सृजन करता है .आचार्य कुंतक ने कहा है कि कवि शक्ति ही प्रतिभा है .यह प्रतिभा जन्मजात होती है .उनके अनुसार पूर्वजन्म तथा इस जन्म के संस्कारों से परिप्पक्व प्रौढ़ता को प्राप्त एक अद्वितीय दिव्य शक्ति ही प्रतिभा कहलाती है .प्रतिभा एक अनिवार्य काव्य हेतु है ,लेकिन कभी कभी प्रतिभा के न होने पर पर भी शाश्त्रज्ञान और प्रयत्न द्वारा उपसिता सरस्वती किसी न किसी व्यक्ति पर अनुकम्पा कर देती है .

२.व्युपत्ति – 

व्युपत्ति का शाब्दिक अर्थ है – प्रगाढ़ पांडित्य .आचार्य भामह के अनुसार -छंद ,व्याकरण ,कला ,लोकस्थिति तथा पदार्थों के ज्ञान से प्राप्त युक्तायुक्त विवेक का नाम ही व्युपत्ति है .कोई भी कवि केवल प्रतिभा के बल कर काव्य सृजन नहीं कर सकता है ,बल्कि इसके लिए उसे श्रुति ,स्मृति ,पुराण,लोक व्यवहार आदि का ज्ञान होना भी आवश्यक है .राजशेखर ने व्युपत्ति को बहुज्ञता शब्द माना है.बहुज्ञता के कारण ही कवि वर्ग के विचार प्रमाणिक बन पाते हैं तभी वह उचित अनुचित का विवेक रख पाता है .राजशेखर ने प्रतिभा और व्युपत्ति दोनों को आवश्यक माना है क्योंकि काव्य प्रतिभा तो जन्मजात होती है ,किन्तु उसका समुचित विकास व्युपत्ति से ही संभव है .

३. अभ्यास – 

काव्य सृजन के हेतुओं में अभ्यास का स्थान भी अन्यों से कम नहीं है .प्रतिभा एवं व्यतुप्पति से संपन्न कवि अभ्यास के द्वारा ही उच्चकोटि का काव्य रचना कर सकता है .
‘अभ्यासेन हि कर्मसु कौशलम् भवति |’
अभ्यास काव्य का प्रमुख हेतु नहीं तो आवश्यक हेतु अवश्य है .अभ्यास का आशय बार – बार प्रयोग अथवा निरन्तर प्रयत्न करते रहने से ही है .अभ्यास के द्वारा जड़ बुद्धि भी सुजान हो जाता है .इस तरह काव्य सृजन में कुशलता प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन अभ्यास है .अभ्यास के द्वारा ही तुलसीदास ,सूरदास ,प्रसाद ,पन्त ,निराला आदि कवियों ने अच्छे अच्छे ग्रंथों का प्रणयन किया है .
करत – करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान | 
रस आवत जात तें सिल पर परत निसान |

४. समाधि – 

मन की एकाग्रता को समाधि कहते हैं .राजशेखर ने समाधि को पृथक काव्य हेतु स्वीकार किया है .उन्होंने काव्य हेतुओं में समाधी को सबसे उत्तम माना है .वास्तव में जब चित्त की चंचलता समाप्त होती है ,वह पूर्णतया एकाग्र हो जाता है ,ऐसी स्थिति में ही कवि में अपने मंतव्य को व्यक्त कर पाता है ,अन्यथा नहीं .कवि कर्म के लिए समाधि उत्तम साधन है .समाधि के लिए भी अभ्यास की आवश्यकता है .अतः समाधि को अलग से काव्य हेतु नहीं माना जा सकता है .यह मात्र आंतरिक अभ्यास है .
उपयुक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि वास्तव में मुख्य रूप से काव्य हेतुओं की संख्या तीन है – प्रतिभा ,व्युपत्ति और अभ्यास .कुछ विध्य्नों ने शक्ति और समाधि को काव्य हेतुओं के रूप में स्वीकार किया है ,किन्तु शक्ति प्रतिभा का पर्याय माना जा सकता और समाधि अभ्यास का .शक्ति प्रतिभा में ही निहित है और समाधि अभ्यास में .इन तीनों काव्य हेतुओं में भी किसी विद्वान ने एक को महत्व प्रदान किया ,तो किसी ने दो को तथा किसी ने तीनों को महत्वपूर्ण माना है .वास्तव में इन तीनों का सम्नावित महत्व है ,तीनों परस्पर पूरक हैं ,अपने आप में कोई पूर्ण नहीं .एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है .किसी एक के बल पर कवि काव्य सृजन नहीं कर सकता है .इस प्रकार काव्य सृजन के लिए तीनों का महत्व है . 

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