कृष्ण और कंश
सृजन और विध्वंश
एक ही सिक्के के दो रूप हैं
विनाश के परिपाटी पे ही
सृजन लेता मूर्त स्वरुप है
हमारे विचार भी कृष्ण और कंश के समान हैं
चलता अंतर्मन में निरंतर युद्ध
मरता कंश और बचता कृष्ण विशुद्ध
पर सार एक है
बीज के मौत पर अंकुर आता है
पर कहाँ बीज अपने मौत का मातम मनाता है
ठीक वैसे ही कृष्ण आते हैं
हमारे मानस पटल पर विश्वास बीज बो जाते है
होने दो इस विश्वास बीज को अंकुरित
विनाश के क्रंदन में छिपा है विकास का सृजन गीत……….