कोरा कागज़

  कोरा कागज़ (कहानी)

पति के काम पर जाने और बेटी के स्कूल जाने के बाद सुबह की भागदौड़ से विराम मिलने पर गीत ने रेडियो एफ एम पर गाने सुनते हुए थोड़ा आराम करने का विचार किया । कुछ दिनों से उसे टीवी से ज्यादा रेडियो पसंद आ रहा था । उसे पुराने गाने अच्छे लगते थे जो रेडियो पर ज्यादा सुनने को मिलते । उसने ड्राइंग रूम में रखे  रेडियो पर एक गानों का प्रोग्राम लगाया और वहीं रखे दीवान पर लेट गयी ।
आर जे ने किन्हीं की फरमाइश पर गाना चला दिया -“कई बार यूं ही देखा है , ये जो मन की सीमा रेखा है ; मन तोड़ने लगता है ।  
अनजानी चाह के पीछे ………मन दौड़ने लगता है “
ये गाना सुनकर अनायास उसे अपनी पिछली ज़िदगी का एक नाज़ुक दौर और वह याद आ गया जिससे वो पहली और आखरी बार अपनी सहेली रिचा के साथ झाँसी के अंतराज्यीय बस अड्डे पर थोड़ी देर के लिये मिली थी । उसका नाम सिद्धार्थ था । वह रिचा का चचेरा भाई था । सुंदर ,सांवला लंबा हमउम्र लड़का । उसकी गहरी काली आँखों में एक अनोखी कशिश थी ।
वे लोग ललितपुर से झाँसी में रानी लक्ष्मी बाई का किला घूमने गये थे । रिचा, उसके मम्मी पापा और गीत ,यानि वह । वे लोग बस की प्रतीक्षा में खड़े थे तभी सिद्धार्थ वहाँ आ निकला । उसने रिचा के मम्मी पापा के पैर छुए और रिचा के सर पर मुस्कराते हुए हल्की सी प्यारभरी चपत लगाई और गीत की ओर देखा ।
रुचि ने परिचय कराया , “भैया ये मेरी पक्की सहेली गीत है ।”
 “गीत, ये मेरे भाई हैं सिद्धार्थ।”
गीत ने मुग्ध भाव से सिद्धार्थ को देखते हुए दोनों हाथ नमस्ते की मुद्रा में जोड़ दिये । सिद्धार्थ ने नमस्ते किया और हँसते हुए कहा , “मेरी पगली बहन की इतनी अच्छी सहेली ।”
शायद उसने रुचि को खिजाने के लिए वो बात कही थी ।
“क्या भईया आप भी !” रुचि ने सिद्धार्थ के हाथ पर धीरे से मारा और सब लोग हंसने लगे ।
गीत शर्मा गयी और चुप रही ।
रुचि ने कहा , “वैसे आप ने सही कहा भईया । मेरी सहेली वास्तव में बहुत अच्छी है ।”
सिद्धार्थ ने गीत से उसके घर और पढ़ाई के बारे में पूछा जिसका गीत ने नपेतुले शब्दों में उत्तर दिया । फिर सिद्धार्थ रुचि के माता पिता से बात करने लगा ।
थोड़ी देर में उनकी बस आ गयी । सिद्धार्थ ने बस पर उनका सामान चढ़ाने में मदद की और बस के चलने तक वहाँ खड़ा रहा । बस चलने पर हाथ हिला कर उसने विदाई दी । रुचि और गीत ने भी हाथ हिलाया । थोड़ी देर में बस आगे बढ़ गयी और सिद्धार्थ बहुत पीछे छूट गया ।
   वह चंद मिनटों की मुलाक़ात और सिद्धार्थ के कुछ शब्द उसके दिलोदिमाग में घर कर गये । कई महीनों तक सोते जागते सिद्धार्थ उसके अस्तित्व का हिस्सा बना रहा । लेकिन अपने हृदय की अवस्था उसने किसी पर जाहिर नहीं की । जब कभी वो रुचि से किसी बहाने से सिद्धार्थ का हाल पूंछ लेती थी ।
   रुचि को उसकी भावनाओं का कुछ अहसास हो गया था। एक दिन उसने पूंछा भी लेकिन वो बात को टाल गयी ।
   गीत के परिवार में पाँच सदस्य थे । माता ,पिता एक छोटी बहन और एक भाई । पिता शेरसिंह ठेकेदारी करते थे और माँ घर सम्हालती थीं। छोटी बहन लवली दसवीं और छोटा भाई श्याम आठवीं में पढ़ रहे थे । गीत सबसे बढ़ी थी और उस साल उसने बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करके महिला डिग्री कालेज में बी ए में दाखिला लिया था । शेरसिंह को लड़के लड़कियों का एक साथ पढ़ना पसंद नहीं था अतः उन्होंने ही गीत को महिला कालेज में भर्ती कराया था ।
   गीत को समझ नहीं आता था कि पापा बचपन में उसे बहुत दुलार करते थे फिर जैसे जैसे वो बड़ी होती गयी उनका रवैय्या उसके प्रति सख्त होता गया । बात बात पर डांटने लगे । पड़ोस के लड़के लड़कियों के साथ वह बचपन में खूब खेलती थी । अब पापा को कतई पसंद नहीं कि वह किसी लड़के से बात करे । कभी यूं ही किसी लड़के ने उससे बात की और उसने जवाब दिया और पापा ने देख लिया तो वह गुस्से से लाल पीले हो जाते और गीत को बहुत डांटते । गीत को कुछ कहने का मौका भी नहीं देते थे । गीत चुपचाप कहीं छुपकर रो लेती ।
माँ उसे समझातीं , “पापा की बात का बुरा मत माना कर,जमाना बहुत खराब है, उन्हें तुम्हारी फिक्र रहती है।” ये बात और थी माँ भी बात बेबात अपने पति से डांट खातीं रहतीं ।
गीत को आर्ट का शौक था । खाली समय में वो कभी कभी पेंटिंग या रेखाचित्र बनाती थी । वह इस कार्य में दक्ष थी । उसने अपने मन में बसी सिद्धार्थ की छबि हूबहू पेंसिल से कागज पर उतार दी । ऐसा करके उसे आंतरिक खुशी मिली । उसने वह तस्वीर अपने बक्से में छुपा कर रख दी ।
अब वो रोज रात को सोने के पहले सिद्धार्थ के रेखा चित्र को देखा करती । कभी वह उसके सपने में आता और वो उससे बहुत सारी बातें करती ।
पापा की सख्ती या अनुशासन समय के साथ बढ़ता ही जा रहा था ।
एक दिन वो घर के दरवाजे पर खड़ी थी तभी पड़ोस का एक नवयुवक राकेश वहाँ से गुजरा । वो परिचित था सो गीत को देख कर मुस्कराया । गीत के चेहरे पर भी एक स्वाभाविक मुस्कान आ गयी जो किसी जाने पहचाने व्यक्ति को देख कर आ जाती है । संयोग वश गीत के पापा उसी समय वहाँ आ निकले । उन्होने ये देख लिया और उनकी त्योरियाँ चढ़ गयीं ।
गीत भाग कर अंदर कमरे में चली गयी । पापा का सामना करने की उसमें हिम्मत नहीं थी । काफी देर तक पापा के आँगन में चिल्लाने की आवाज़ आती रही वो माँ पर बरसते रहे कि वो बच्चों पर ध्यान नहीं देतीं कि कौन क्या कर रहा है ।
 पापा ने उसे एक शर्त पर मोबाइल फोन दिलाया था कि उसका उपयोग वह कहीं जाने पर घरवालों के संपर्क में रहने के लिए करेगी । बाद में ये कहकर बापस ले लिया कि उसे कालेज के अलावा कहीं जाने की आवश्यकता नहीं और कहीं जाये भी तो छोटे भाई को साथ ले जाये । कम्प्यूटर और इंटरनेट के लिये बच्चे कभी आग्रह करते तो उन्हें डांट के चुप करा दिया जाता । शेरसिंह के हिसाब से ये सारी चीज़ें अनावश्यक और बच्चों को बिगाड़ने वाली थीं ।
एक दिन डरते डरते गीत की माँ ने अपने पति से कहा , “आप बच्चों पे कुछ ज्यादा सख्ती कर रहे हैं । “
“अरे रोज तुम देखती नहीं टीवी के हर न्यूज़ चेनल पर कितनी वारदातें और बुरी बुरी खबरें दिखाते हैं । “शेरसिंह ने कहा ।
“पर बच्चों को कैद में तो नहीं रख सकते ।”
“तुम क्या चाहती हो ?”
“बच्चों को थोड़ी छूट देनी चाहिये ।”
“किस बात की छूट , बिगड़ने की छूट ?फिर उनकी सुरक्षा की जिम्मेवारी भी तो मेरी है ।”
“कहीं तुम अपनी बहन का बदला मेरे बच्चों से तो नहीं ले रहे ?” गीत की माँ ने अपने पति की दुखती रग पर हाथ रख दिया ।
“चुप रहो । वो मेरे भी बच्चे हैं ।” शेरसिंह लगभग चिल्ला कर बोले ।
   फिर वो उठकर बाहर सड़क पर निकल गये। वो अपने क्रोध को काबू में रखना चाहते थे ।
   उस दिन रात को अपने कमरे के एकांत में गीत ने बक्से में से सिद्धार्थ की तस्वीर निकाली और देखने लगी।
रवि रंजन गोस्वामी
उस दिन वो कुछ ज्यादा ही उदास, व्यथित और एकाकी अनुभव कर रही थी । उसने बिना सोचे समझे ही एक नोट बुक से एक कोरा कागज़ फाड़ा, कलम उठाई और सिद्धार्थ को संबोधित कर एक पत्र लिखा । इस पत्र में उसने अपनी घुटन और मन की पीड़ा उड़ेल दी । पत्र लिख कर उसे थोड़ी देर बहुत अच्छा महसूस हुआ किन्तु फिर ये चिंता सताने लगी कि कोई उस पत्र को देख न ले। डर के मारे उसने पत्र का एक एक अक्षर पेन से इस तरह काटा कि कतई पढ़ा न जा सके और फाड़ कर खिड़की से बाहर फेंक दिया ।  
 इसके बाद जब भी वो किसी वजह से उदास या परेशान होती थी सिद्धार्थ को पत्र लिखती । अब वो ये पत्र पेंसिल से लिखती ,खुद ही कई बार पढ़ती और रबर से मिटा डालती ।
सिद्धार्थ उसके लिये चाँद के समान था जो उसे शीतलता प्रदान करता था हालाकि वो उससे दूर था और उसे पाना उसके लिए असंभव जैसा था ।
लेकिन फिर भी उसने सिद्धार्थ को अपने मन में बसा लिया था और उसके खयाल से उसे ढांढस और शक्ति मिलती थी ।
एक दिन जब वो रुचि के घर मिलने गयी तो बातों के बीच में रुचि ने कहा , “गीत सिद्धार्थ भैया इलाहाबाद पढ़ने जा रहे हैं उन्हें वहाँ एम ए में एडमिशन मिल गया । “
“ये तो बहुत अच्छी खबर है,”गीत ने प्रसन्नता पूर्वक कहा।
रुचि के कोई सगा भाई नहीं था वो सिद्धार्थ को सगे भाई से बढ़ कर मानती थी । उसकी बातचीत में कहीं न कहीं किसी बहाने सिद्धार्थ का जिक्र आ ही जाता । फिर गीत तो सिद्धार्थ से मिल भी चुकी थी । अतः उसे सिद्धार्थ की खबर देना तो स्वाभाविक था ।
  दिन, महीने साल गुजरते गये और गीत अपने सपनों के राजकुमार को पत्र लिख लिख कर मिटाती रही । इसके आगे और कोई कल्पना करने से भी वह डरती थी । उसकी परवरिश कुछ ऐसे माहौल में हुई थी कि तमाम तरह के डर उसके मन में गहराई से पैठ गये थे । उसे दबे ढके रूप में लाली बुआ का किस्सा मालूम था । लाली बुआ का पड़ोस के किसी नवयुवक से प्रेम हो गया था । वे दोनों विवाह करना चाहते थे । दादाजी और पापा ने मिलकर बुआ को छः महीने करीब एक कमरे में बंद रखा था । एक दिन उसी कमरे में उनकी लाश सीलिंग फैन से लटकी मिली थी ।
इस पृष्टभूमि के कारण गीत ने इस तरह के किसी प्रकरण से हमेशा स्वयं को दूर रखने की कोशिश की लेकिन यौवन के आवेगों और भावनाओं को बांधना इतना आसान नहीं । वे अभिव्यक्ति का कोई न कोई माध्यम खोज ही लेते हैं । गीत की चिट्ठियाँ ऐसी ही अभिव्यक्ति का जरिया थीं । ये छिट्ठियाँ जो कभी पोस्ट नहीं की जानी थी रोज कोरे कागज पर लिखीं और मिटाई जातीं रहीं ।
अब उसका बी ए का आखरी साल था और परीक्षाएँ नजदीक थीं । परीक्षा की तैयारी हेतु परीक्षा के कुछ दिनों पहले से परीक्षा शुरू होने तक कालेज की छुट्टी कर दी गयी थी ।
वह पढ़ाई लिखाई में व्यस्त थी तभी एक दिन माँ ने उससे कहा , “गीत शाम को तैयार हो जाना । कुछ महमान आने वाले हैं ।”
गीत ने कहा , “माँ आप लोग ही सम्हाल लेना न ,मेरी परीक्षाएँ हैं ,बहुत पढ़ना है ।”
तभी पापा की ड्राइंग रूम से आवाज आयी , “अरे उसे बताओ महमान उसीसे मिलने आ रहे हैं और वो आज साड़ी पहने ।”
गीत को झटका सा लगा, “माँ क्या मुझे देखने कोई लड़के वाले आ रहे हैं?”
“हाँ ,अचानक से रिश्ता आया ,अच्छे लोग हैं । लड़का भी बहुत अच्छा है। ” माँ ने कहा ।
“अचानक, मुझे बताया भी नहीं ?” गीत रूआँसे स्वर में बोली । कहना तो वह यह भी चाह रही थी कि उससे पूंछा भी नहीं कि वह शादी के लिये तैयार है लेकिन ऐसा तो सोच भी नहीं सकती थी कि उससे पूंछा जाता ।
“अभी थोड़े ही न शादी हो रही है सिर्फ मिलने आ रहे हैं और तुम भी लड़का देख लेना ।” माँ ने सांत्वना दी ।
   शाम को लड़का,उसके के माता पिता और एक बहन आये। वे लोग आगरा से आये थे ।  सब लोग एक साथ बैठे । परिचय हुआ । जलपान के साथ बातचीत शुरू हुई। उन्होंने गीत से उसकी पढ़ाई लिखाई एवं हॉबी के बारे में पूंछा । लड़का एक रेस्तरां चलाता था  । सबलोग ठीक ही थे किन्तु गीत उस लड़के में सिद्धार्थ को तलाशने की कोशिश करती रही जो उसे नज़र नहीं आया ।
उन्होंने वहीं गीत को पसंद कर लिया और शेरसिंह ने बात पक्की कर दी । आनन फानन में छोटे बेटे को भेज कर पड़ोस में रहने वाले शर्मा पंडितजी को बुलाकर शादी की तारीख भी निकलवा ली । शादी तीन सप्ताह बाद 15 जून की तय हुई । गीत की परीक्षाएँ दो हफ्ते में समाप्त हो जानी थीं ।
घर में खुशी का माहौल था । पापा बहुत खुश थे । छोटे भाई बहन बहुत खुश थे । माँ भी खुश थीं लेकिन थोड़ा चिंतित थीं क्योंकि गीत थोड़ी उदास दिखी । उन्हें लगा शादी पक्की करने से पहले गीत से पूंछ लेना चाहिए था । लेकिन वो शेरसिंह के स्वभाव को अच्छी तरह जानती थीं। फिर लड़का और उसका परिवार उन्हें भी ठीक लगे थे अतः उन्होने इस बारे में अधिक विचार नहीं किया । उन्होंने खुद को समझा लिया घर छोडने का खयाल शायद गीत की उदासी का कारण होगा ।
  उस रात गीत ने सिद्धार्थ को एक नये कोरे कागज़ पर पेन से एक पत्र लिखा और उसे एक लिफाफे में बंद कर बक्से में रख लिया ।
   सुबह चाय नाश्ते के बाद वह माँ से बोली, “मैं थोड़ा रुचि के घर जाके आती हूँ कुछ काम है ।”
“ठीक है, जल्दी आ जाना ।”
“ठीक है माँ ।” कह कर वो बाहर निकल गयी ।
रुचि सुबह सुबह गीत को देख कर चौंक गयी । उसका बॉडी गार्ड छोटा भाई भी उसके साथ नहीं था ।
“अरे वाह ,आज सुबह अचानक , चल कमरे में बैठते हैं ।”
रुचि उसे अंदर ले गयी । उसने महसूस किया गीत कुछ परेशान है ।
“क्या बात है,गीत ?”
“रुचि, मेरी शादी तय हो गयी है ।”
“अचानक और इतनी जल्दी, कब और किससे?” रुचि ने आश्चर्य से पूंछा ।
“आगरा के लोग हैं, लड़का एक रेस्तरां चलाता है।”
“बधाई हो, एक्जाम देगी या अब जरूरत नहीं?” रुचि ने ठिठोली करते हुए कहा ।
“शादी एक्जाम के बाद है ।”गीत ने मुसकराकर कहा ।
गीत ने विषय बदला ।
“रुचि तेरे सिद्धार्थ भईया का एड्रेस चाहिये ।”
“क्यों ? शादी के कार्ड बंटना शुरू हो गये क्या ?”
“कार्ड अभी छपे नहीं लेकिन बुलाना तो है न ।”
रुचि ने कागज़ पर सिद्धार्थ का पता लिख कर दे दिया ।
सिद्धार्थ का पता लेकर गीत ने रुचि से विदा ली ।
   वहाँ से वो सीधा पोस्ट ऑफिस गयी । सिद्धार्थ की चिट्ठी वाला लिफाफा वो साथ में लायी थी । उसने उसपर सिद्धार्थ का पता लिखा और स्पीड पोस्ट कर दिया और घर वापस आ गयी ।
अब वो रोज डाक का इंतज़ार करती । कभी कल्पना करती सिद्धार्थ आकर पापा को मना लेगा और उसका हाथ अपने हाथ में देने को राजी कर लेगा । कभी सिद्धार्थ के साथ भाग जाने की कल्पना भी करती फिर उसे खारिज कर देती । वो ऐसा नहीं कर सकती थी । ऐसा करना उसके विचार से ठीक नहीं था ।
घर के लोग शादी की तैयारियां करते रहे । उसके एक्जाम समाप्त हो गये । घर में नाते रिश्तेदार एकत्रित होना शुरू हो गये । विवाह का दिन भी आ गया । फेरों के समय भी उसकी निगाहें सिद्धार्थ को खोजती रहीं लेकिन वो नहीं आया और वो विदा होकर अपनी ससुराल चली गयी । उसने नियति को स्वीकार कर लिया थाI
उधर इलाहाबाद के एक छात्रावास में सिद्धार्थ एक पत्र हाथ में लिए किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा था । पहले तो उसे ये समझने में समय लगा कि पत्र किसका है और आशय क्या है । फिर  उसे ये समझ नहीं आया कि गीत ने वो पत्र उसे क्यों लिखा ? वह एक बार के बाद फिर कभी उससे मिला नहीं ।पत्र भी अधूरा सा ।
लिखा था
सिद्धार्थ जी ,
मेरे पापा ने मेरी शादी तय कर दी है । 15 जून को है । मुझे समझ नहीं आ रहा मैं क्या करूँ ?
आपकी
गीत
सिद्धार्थ को समझ नहीं आया वह क्या करे । फिर भी उसने रुचि को फोन किया और बातों बातों में पूछा , “तुम्हारी सहेली गीत कैसी है ?”
“ठीक है, उसकी 15 तारीख को शादी है ।”
“और कोई खास बात?”
“नहीं, आप कैसे हैं?”
“मैं ठीक हूँ । अंकल आंटी को प्रणाम बोल देना । अच्छा अभी फोन रखता हूँ । उसने फोन रख दिया ।
उसने फिर उस पत्र के बारे में और विश्लेषण नहीं किया ।
   गीत की शादी को पंद्रह साल गुजर गये । वो एक 13 साल की बेटी गीतिका की माँ है । उसे अपनी जिंदगी से कोई खास शिकायत नहीं । पति भी उदार हृदय हैं ।
वह कभी कभी सोचती है कि उसके मम्मी पापा शायद गलत नहीं थे।  उनकी सोच और व्यवहार उस समय उनके पारिवारिक और सामाजिक परिवेश की उपज थे । वो अपनी बेटी की भावनाओं को समझने का हर दम प्रयास करेगी और उसकी सहेली बन कर रहेगी । उसे अपनी तरह घुटने नहीं देगी ।
ख़यालों में खोये कितना समय गुजर गया पता नहीं चला । दरवाजे की घंटी बजी तो तंद्रा टूटी । दरवाजा खोला तो गीतिका मुस्कराते हुये खड़ी थी। “आज जल्दी छुट्टी हो गयी मम्मी ।” 
गीत ने लाड़ से उसके सर पर हाथ फेरते हुए हँस कर कहा , “तेरी तो मौज है ।”
उसे उस पल गीतिका में गीत नज़र आयी जो अब खुश थी ।

यह रचना रवि रंजन गोस्वामी जी द्वारा लिखी गयी है . आप भारतीय राजस्व सेवा में कार्यरत हैं . आपकी संवाद (कविता संग्रह ), मेरी पाँच कहानियां , द गोल्ड सिंडीकेट एवं लुटेरों का टीला चंबल (दोनों लघु उपन्यास ) आदि रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं . 

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