चल खुसरो घर आपने

चल खुसरो घर आपने…….।

वेणी में गुंथी हुई मोगरे की माला जैसे खुलकर बिखर गई ……… उसके होठों पर ओस भीगी मुस्कुराहट होती थी लिपिस्टिक नहीं, मगर आज उसके होठो पर एवरग्रीन मुस्कान नहीं थी लिपिस्टिक थी जिसने नर्म और नाजुक होठों को प्लास्टिक के फूलों की तरह बेजान और बनावटी बना दिया था, शोविन्डो में टंगे हुये शोपीस की तरह दिखावटी, चोटियों की शक्ल में कंधों पर झूलने वाली घनी काफी जुल्फें ऊंचे जूड़ो में कैद हो गई, उसके संुदर सलोने सपनों को अपने साथ लपटते हुये। गहरे आसमानी रंग की साड़ी को पहनने के साथ उसने आकाश जैसी गंभीरता को ओढ़ लिया था जो उसकी आंखों में बने रहने वाली आमंत्रण की चमक को निरंतर हाशिये पर डाल रही थी। जहां प्यार के गहरे रंग तैरते थे .वे आंखे आज स्थिर भावहीन थीं. जिंदगी को अर्थ देने वाले अधरों पर शब्द नहीं, कोरी नीरवता थी। सादगी को परिभाषित करने वाली शख्सियत स्वयं दिग्भ्रमित हो गई जो उसकी कल्पना से परे था ऐसा क्यों और कैसे हो गया उसकी समझ में नहीं आया. यद्यपि उसने अपनी तरफ से उसे समझने की लाख कोशिशें कीं।
राहुल ने अभी तक मौसम को बदलते देखा था आदमी को नहीं, मगर आज उसकी यह ख्वाहिश भी पूरी हो गई। पंकज उधास की गाई हुई गजल का एक शेर -किसने जाना है बदलते हुये मौसम का मिजाज, उसको चाहो तो समझ पाओगे फितरत उसकी ‘-आज साकार होकर नजरों के सामने खड़ा हो गया और उसे लगा कि वह खुद उससे नजरें मिलाने में हिचक रहा है। क्या वे ढेर सारे ख्वाब उसने इसी लड़की के साथ यही दिन देखने के लिये बुने थे?
जिंदगी में पहली बार उसे अहसास हुआ कि मर्यादा पुरूषोत्तम राम बने रहने की मजबूरी उसे तनाव और कुंठा के गहरे तालाब में डुबो सकती है। एक मिथ की तरह अपनी जिंदगी को जीना और हर बार उससे अपरिचितों की तरह मिलना उन बड़े-बड़े हादसों से कहीं ज्यादा कष्टदायक होगा जिनके दौर से वह अभी तक गुजरा है। आज महसूस हुआ कि उसके अपने चाहने वाले ने भी उसे सिक्के की तरह इस तरह उछाला है कि चित और पट का निर्णय करना मुश्किल हो गया है। समय शकुनि बन गया है जिसके हाथों में आकर पांसे पलटते जा रहे हैं। रद्दी कागजों को इकट्ठा कर उसका नाम लिखने और टुकड़े-टुकड़े कर देने की साधना उन चिंदियों के साथ रद्दी की टोकरी में गुम हो गई है। मन्नू भंडारी की कहानियों के तनावग्रस्त पात्र उसकी जिंदगी में घुल मिल गये हैं और वह लाख प्रयत्न करने पर भी उनसे बच नहीं पाता।
सागर की लहरों की तरह उसके भीतर कहीं न कहीं कुछ न कुछ उठता गिरता रहा। उन लहरों का प्रचंड वेग उसके अरमानों को तोड़ता बिखेरता रहा और वह उन धक्कों को भीतर ही भीतर झेलता हुआ बाहरी तौर पर सामान्य बना रहा .मगर शरीर के वे नाजुक हिस्से जो अनुभूतियों और संवेदनाओं के केद्र थे विचलित हो उठे। उसकी मनःस्थिति उस अबोध शिशु की तरह थी जिसकी नज़रों के सामने बड़ी मेहनत से बनाया गया रेत का घरौदा तोड़ दिया गया हो। आज अहसास हुआ कि समय के उतार-चढ़ाव में आदमी की जिंदगी में ऐसे भी दिन आते हैं जब उसे न सुबह नसीब होती है और न सांझ, होती है एक लम्बी दोपहर और उसके बाद गहराती बोझिल रात की कालिमा, असीमित अंधकार से आवृत सच जिसका ओर छोर नहीं होता.

डाॅ. महेन्द्र कुमार अग्रवाल

पांच साल पहले कालेज के जमाने में यौवन की दहलीज पर एक साथ कदम रखते हुये स्थापित संबंध जो उन दिनों फूलों की तरह महकते थे, एक पल में मुरझा गये। सामाजिक मर्यादाओं में बंधे हुये संवाद और संबंधों को स्वीकारने वाले संकेत कालचक्र की गति में लुप्त हो गये। उसके दिल की किताब के वे पन्ने जिस पर उसने अपने हाथांे से दोनों का नाम लिखा था फड़फड़ाते हुए फटने की हालत में पहुंच गये। उसे समर्पित आस्था के विधवा हो जाने का दुख भीतर ही भीतर कचोटने लगा। सोच त्रिशंकु बनकर कहीं लटक रहा और वह यह जानने में उलझा रहा  कि क्या वह वर्षो तक अपने पालतू टामी की तरह सिर्फ एक भ्रम को पाले रहा। मन के आंगन में उसके व्यक्तित्व को तुलसी के पौधे कीतरह रोपते हुये हर सांझ प्रणय दीप जलाने की तपस्या क्या निष्फल सिद्ध हुई? गुलाब तोड़ने की कोशिश में हाथ हलूलुहान हो सकते हैं यह अहसास था पर लहूलुहान होने के बाद गुलाब अचानक नजरों से ओझल हो जायेगा- इसकी तो कल्पना भी नहीं थी. मौसमी कोहरे ने कितना कुछ ढक दिया। आज जब उससे नजरें मिली तो ऋतुओं की तरह एक के बाद एक कई रंग उसके चेहरे से गुजरे,असाधारण आंखों में साधारण भाव जन्मे, खामोश उदासीन नजरों से उसने देखा और अपना ध्यान कहीं और कंेद्रित कर लिया.

उससे पहली मुलाकात कालेज में हुई थी जब वह दूसरी मंजिल से अपनी फीस जमा करा कर लौट रहा था सीढि़या उतरते-उतरते कदम कुछ रुक से गये. सामने से चार लड़कियों का समूह ठहाके लगाता चला जा रहा था . दायीं ओर से दूसरी लडत्रकी पर नजर कुछ ठहर सी गई। हल्का गेहुंआ रंग, काजल की पतली लकीर से सजाई हुई पलकों के बीच बड़ी-बड़ी आंखे, तराशे गये होंठ, आगे की ओर गुंथी हुई दो चोटियां, दुनिया भर की मासूमियत उसके चेहरे पर जमा होना उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। क्षण भर को नजरें मिलीं, वह प्रभावित हुये बिना न रहा, उसकी पोटेशियम साइनाड जैसी असरदार नजरों ने उसी समय जता दिया कि वह मरने के लिये हमेशा तैयार रहे शायद प्रथम वर्ष की छात्रा होगी उसने मन ही मन सोचा और सिर को हल्का सा झटका देकर सीढि़या उतरता चला गया.
कालेज में दूसरा दिन, भीड़ कल से कुछ ज्यादा, फिर वही चार सहेलियों का झुंड और उस झुंड़ में बादलों के बीच सूर्य की तरह चमकता हुआ उसका चेहरा। उसके बाद जब-जब भी राहुल ने उससे नजर मिलाई हर बार एक नई विशेषता उसे नजर आने लगी। वैसे वह लड़की उसके घर से थोड़ी ही दूर रहा करती थी। कुछ दिन पहले ही उसका परिवार ट्रांसफर होकर यहां आया था लेकिन उसने कभी ध्यान नहीं दिया बाद में मालूम हुआ उसका नाम कविता था। निराला की ‘जूही की कली’, अमृता प्रीतम के हसीन ख्वाब या दुष्यंतकुमार त्यागी की श्रेष्ठ हिंदी गजल ऋतुम्बरा से भी कहीं अधिक खूबसूरत थी। वह जब मुस्कुराती तो लगता कि पूनम का राकेश अपनी चांदनी से धरा के हर कण को भिगो देना चाहता है और सम्पूर्ण धरा उसकी छुआन मात्र से शीतल हो गई है। उसका बाढ़ आई नदी की तरह उफनता यौवन उसे आमंत्रित करता सा लगता। उसकी शायराना मुस्कुराहट देखकर उसके जिस्म में झनझनाहट सी होने लगती। बड़ी मुश्किल से वह अपने पर काबू पाता हमेशा उसे देखते रहने की इच्छा होती, उससे बातें करने, उसे सताने, तंग करने का मन होता. जी करता कि दौड़ता हुआ जाये और उसे बाहों में भर ले उसकी जुल्फों में उंगलियां डालकर सितारों के तारों की तरह खेले, नर्म गुलाबी अधरों पर अपने अधर रख दे. न जाने कितनी जवान ख्वाहिशें थी। जो उसे देखकर कमल सी खिल उठती वो उसकी निजी सम्पत्ति नहीं थी परंतु उसे न जाने क्यों ऐसा भ्रम हो गया था कि वह उसकी है, सिर्फ उसकी.
कालेज इलेक्शन में राहुल अपने चहेते अध्यक्ष पद प्रत्याशी का प्रचार कर रहा था. सीढि़यों पर खड़े हुये वहीं भेट हुई और पहली बार उसे संबोधित करते हुये उसने कुछ शब्द कहे, अपने उम्मीदवार के संबंध में, अपने दिल की बात को दबाते हुये, जवाब में उसने तिरछी निगाहों से दखा और होंठ दबाये हुये, धीमें से सिर हिलाकर आगे बढ़ गई, अल्प अंतराल के बाद जब राहुल की नजर उस तक पहुंची तो उसे अपनी ही ओर देखते पाया कुछ क्षणों तक दोनों एक दूसरे को निहारते रहे अचानक लड़कियों का एक रेला उसे अपने साथ बहाकर ले गया लेकिन जाते-जाते भी उसने एक बार और मुड़कर देख लिया था.
उसके बाद राहुल ने महसूस किया कि सुबह शाम घर की खिड़की से झांकती हुई उसकी उत्सुक निगाहें किसी का इंतजार किया करती हंै सड़क पर उड़ते हुए राहुल की नज़रें जब भी उससे मिलीं हमेशा अपनी ओर ही देखते पाया जब तक कि वह अपने घर में प्रवेश न कर ले. पता नहीं किस चाह के हाथों मजबूर होकर उसके कदम भी जीने की ओर मुड़ जाते. कल्पना लोक की दूसरी मंजिल पर उसने खिड़की से जब भी झांका उस मासूम चेहरे को अपने घर को निहारते देखा कुछ समय के बाद जब कभी वह खिड़की बंद करता तो वह चेहरा यकायक उदास हो उठता कभी-कभी वह खिड़की से हट जाती तो उसकी प्रतिक्रिया भी भिन्न नहीं होती थी.
पता नहीं चला कि कब परीक्षायें नजदीक आ गई, कालेज की गैलरियों में मूक मिलन के आयोजन अवरुद्ध हो गये. दस पंद्रह दिन बाद एक दिन राहुल ने उसे सामने से अपनी ही ओर बढ़ते पाया किंतु नजर मिलते ही वह पीछे लौटकर दूसरी गली में चली गई। इस छोटी सी घटना को वह भरसक प्रयत्नों के बावजूद भुला न सका उसकी बेरूखी ने उसके दिल और दिमाग में अजीब सी हलचल पैदा कर दी. अस्त-व्यस्त दिनचर्या में वह अपने आपको फिर कभी सामान्य महसूस न कर सका। किसी काम में मन न लगा। दो दिन बाद से पेपर शुरू होने थे। पर वह किताबों से उलझने को तैयार न था, वह किताब उठाकर पढ़ने की कोशिश करता तो खिड़की से झांकता हुआ चेहरा किताब के पृष्ठों पर उभर आता वह फिर उठकर चल देता मूड फ्रेश करने, घंटे आधा घंटे टहलता, लौटता, किताबें उठाता, उलटता, पुलटता लेकिन सब बेकार फिर वही पुनरावृत्ति वही क्रम ………….।
कालेज में किताबें सीने से लगाये कदम बढ़ाता शोख अंदाज, होठो पर उंगली रखे चिंतन की विशेष मुद्रा, सहेलियों के साथ हंसता, मुस्कुराहटें बिखेरता चेहरा, बार-बार पीछे मुड़कर देखने की अदा, उसकी न जाने कितनी तस्वीरें राहुल के मानस पटल पर अंकित थीं खासकर खिड़की से झांकता हुआ चेहरा जहां अहसास की विषम रेखायें स्पष्टतः दिखाई देती थी। लगभग तीन महीनों तक उससे जुड़े हुये विचारों की श्रृंखला उसके जेहन में अपना स्थान बनाये रही। इसी बीच एस. आई. की प्रतियोगी परीक्षाा का परिणाम घोषित हुआ किंतु सफलता हासित करने पर भी उसे विशेष खुशी न हुई। पोस्ट ग्रेजुएशन का अधूरा रहना और कालेज का छूटना रास नहीं आ रहा था। कविता के साथ नौकरी भी पहली आवश्कता थी बेरोजगारी के घुटन भरे माहौल की स्याह कोठरी में कहीं किसी झरोखे से प्रकाश की पहली किरण जो दैनिक जीवन के लिये आवश्यक ऊर्जा लेकर आई थी, पोस्ट ग्रेजुएशन तो वक्त काटने और मन बहलाने का जरिया था इसलिये सर्विस छोड़ने का कोई प्रश्न सामने न था, अनिर्णित या असमंजस की स्थिति न होते हुये भी कुछ ऐसा ही वातावरण बना।
तीसरे दिन काल लेटर भी आ गया सात दिन में ट्रेनिंग सेन्टर पर ज्वाइनिंग रिर्पोट देनी थी यद्यपि वह किसी दोराहे पर खड़ा नहीं था मगर फिर भी जाते समय ऐसा ही लगा कि यह राह चुनते हुये वह अंदर ही अंदर दरक गया है और वक्त के थपेड़ों ने उसकी प्रेम नौका को मझधार में लाकर पटक दिया है। वह एक वर्ष तक इंतजार करेगी इसी विश्वास ने ट्रेनिंग पीरियड में उसे सांत्वना दी। दिन भर की कमर तोड़ मेहनत के बाद हर रात या तो तारों के साथ कटी या सपनों के साथ .परंतु सोच के धरातल पर वह उससे अलग न हो सका। उन दिनों वह सोते हुये भी जागता था. पटरियों पर दौड़ती रेल की तरह अनगिनत विचार एक-एक कर उसके ज़ेहन से गुज़रते थे जागती आंखों से चेतावस्था में उसने अनेक स्वप्न देखे. उसके सानिध्य में खड़े होने का, हंसने, बतियाने का, शरारतें करने और उन्मुक्त ठहाके लगाने का. अचानक स्वप्न भंग होता और वह बीच उड़ान में से अपने परों को समेटता ट्रेनिंग सेंटर के फैले हुये ग्राउंड की सतह पर उतर आता। रात के स्याह अंधेरे में मनमोहिनी का चेहरा बिल्ली की आंख की तरह चमकने लगता. वह चेहरा जैसे उसकी आंखों में बस गया था और उसकी आंखे भी उसके अलावा किसी और को देखना नहीं चाहती थीं वह एक दौर था जब उस पर कविता की यादों के दौरे से पड़ते थे।
मन पंख लगाकर उड़ते हुये अपने शहर लौट आना चाहता था पर आ न सका। न छुट्टियों का प्रावधान था, न ट्रेनिंग सेंटर छोड़ने की अनुमति। भावावेश में हाथ आई नौकरी को छोड़ने की मूर्खता उसने नहीं की और आज जब पूरे एक साल बाद घर लौटने पर एक मेरिज पार्टी में उसे देखा तो मन मंदिर में अंकित छवि खंडित हो गई। रोजी-रोटी की जरूरत के दबाव में दिल में बना हुआ नासूर इस तरह फूटा कि सुनहरे भविष्य की देह समूची काली पड़ गई.
जेहन में सोच का स्वेटर लगातार बनता-उधड़ता रहा…………….आधुनिक युग में व्यक्ति के आचरण में होने वाले परिवर्तन मुहासों की तरह उठते गिरते रहते हैं, दिन बदलते हैं, महीने बदलते हैं, वर्ष बदलते हैं और उसी के साथ बदलती हैं- मानव मन की इच्छायें, विचारों में परिवर्तन तो मानव मन की सहज प्रक्रिया है जो सामय सापेक्ष होती है। तब उस अकेली के बदलने पर इतना क्षोभ, इतना रोष क्यों? आखिर क्यों?
जिससे प्यार करंे उसी से शादी कर लें यह भी कोई जिंदगी हुई? जिंदगी का मतलब है एक दर्द जो तमाम उम्र कसकता रहे, एक अदद शरीर का बोझ जिसके पोर-पोर से जख्म रिसते हों ,पीड़ा की अनुभूति जब तक न हो आदमी का सृजनात्मक होना संदिग्ध है.
लम्हा-लम्हा सोच का दायरा बढ़ता गया, हर क्षण को सदी की तरह सहा। हर सांस को टाट के टुकड़ों में झांकती तेज हवा की तरह झेला, ऊब और खिन्नता के ढेर सारे बादल उसके सिर पर मंडराने लगे जिनकी नमी से वातावरण भारी हो गया इससे पहले कि बूंदाबांदी शुरू होती वह उस मेरिज पार्टी से निकलकर बाहर सड़क पर आ गया…………..बोझिल कदमों से-सर्वस्व हारे हुये पांडवों की तरह, असहाय, बेबस.

यह रचना डाॅ. महेन्द्र कुमार अग्रवाल  जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी पेरोल पर कभी तो रिहा होगी आग (ग़ज़ल संग्रह),शोख मंज़र ले गया (ग़ज़ल संग्रह)(पुरस्कृत),ये तय नहीं था (ग़ज़ल संग्रह) (पुरस्कृत),बादलों को छूना है चांदनी से मिलना है ,कबीले की नई आवाज़ (उर्दू में),ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक ,ग़ज़ल और नई ग़ज़ल (आलोचना),नई ग़ज़ल-यात्रा और पड़ाव(आलोचना),ग़ज़ल का प्रारुप और नई ग़ज़ल(आलोचना),नई ग़ज़ल की प्रमुख प्रवृत्तियां(आलोचना),व्यंग्य का ककहरा (व्यंग्य संग्रह),स्वरों की समाजवादी संवेदनायें (व्यंग्य संग्रह),न काहू से दोस्ती न काहू से वैर (व्यंग्य संग्रह) प्रकाशित पुस्तकें हैं . आपको स्व. सत्यस्वरूप माथुर स्मृति काव्य सम्मान (2000),पन्नालाल श्रीवास्तव नूर सम्मान (2005),अम्बिकाप्रसाद दिव्य अलंकरण(2005) पं.युगल किशोर शुक्ल पत्रकारिता सम्मान(2012),श्रीमती गिनादेवी स्मृति साहित्य सम्मान (2013) आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका हैं .  संपर्क सूत्र – स्थायी पता बी.एम.के.मेडीकल स्टोर, सदर बाजार, शिवपुरी (म.प्र.) 473 551 . दूरभाष (07492) 232558, 405485 मोवा.- 9425766485,

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