दरक
जीना चाहती हूं,मां
बस मैं!
सिर्फ़ मैं बनकर।
उदक्त हथेलियों से
प्रकृति के कोर को
छूना चाहती हूं,मां
बस मैं,
सिर्फ़ मैं बनकर।
सुबह की प्यालियों में
एक नये उजाले की
परख समझकर
खुल कर के दौड़ना
चाहती हूं,मां
बस मैं!
सिर्फ़ मैं बनकर!
समस्त जीवों को
देखना सुनना चाहती हूं,मां
बस मैं!
सिर्फ़ मैं बनकर!
– राहुलदेव गौतम