जेठ की धूप नहीं क्रान्ति हैं ये

जेठ की धूप नहीं क्रान्ति हैं ये


जेठ की धूप नहीं, ये हैं आग संवाहिनियाँ
पृथ्वी बन गई आग का गोला आज
मच्छर को भी अवसर मिल गया आज

क्रान्ति

चुपके से रक्त चूस ये फिर छूप जाते हैं
पा इस चोट को फिर चुपके से रो लेता हूँ
ऊँचे हैं घर जिनके वे सुत हैं पड़े
जलयंत्रो की भर्राट से कैसा देखों शोर हैं मचा
कैसे सुनाई दे ?                                               
आग के गोले में खड़े गरीब की आवाज़ आज उन्हें

सब और आग हैं बरस रही ,सब इससें झूलस रहे
पर समझ न आया ऊचे भवन कैसे बचे रहे
देखा जब,झाँका भीतर ,पाया सच,समझा अब
भीतर आग नहीं ,भीतर हैं बर्फ का गोला
हँसी छूट पड़ी अब अपनी इस नादानी पर
किया नहीं जब स्पर्श आग का इन नाजुक हाथों ने
तब कैसे जाने जलने का दुख ये सब

अंगना के अंगों से लिपट सपने ये बुनते रहे
आँखों पर अगुंलियाँ धर आज ये सब भुल  रहे
अनुभव नहीं जब जलने का तो                           
कैसे अनुभव हो क्रांति का  ?

नहीं उठतीं क्रांति कभी वहाँ, जहाँ सपने पूरे होते हो
नहीं उठते नेत्र कभी वहाँ, जहाँ सम्मान उन्हें मिलता हो
नहीं रोता मनु कभी वहाँ, जहाँ प्रेम उसे मिलता हो
नहीं होती पीड़ा कभी वहाँ, जहाँ द्वेष ना हो
नहीं आते दिनकर नीराला के गीत वो आज याद

तुम चले गये धरोहर सब इनकों छोडके
पर देखों आज भी मैं गा रहा                                 
उन गीतों को एक आस में

आस हैं ये पीड़ा कभी तो दूर होगी
आस हैं ये मनुष्य कभी तो सुखी होगा
आस हैं नेत्रों को कभी तो सम्मान मिलेगा
आस हैं ये मेरा भारत कभी तो छलनी न होगा
आस हैं ये मनुष्य कभी तो सभ्यता सिखेगा
आस हैं ये क्रांति कभी तो रूकेंगी

         


-अनिता चौधरी
शाहपुरा(जयपुर) राजस्थान

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