डेमोक्रेसिया / असग़र वजाहत

असग़र वजाहत
‘डेमोक्रेसिया’
को प्रतिष्ठित कथाकार असग़र वजाहत की विशिष्ट कहानियों का संग्रह कहा गया
है। इस संकलन की रचनाएँ विशिष्ट ज़रूर हैं; पर उन्हें कहानियाँ मानने में
आपत्ति हो सकती है। निःसंदेह, असग़र वजाहत ख्याति-लब्ध कहानीकार हैं। उनके
बहुचर्चित कहानी-संग्रह सर्वविदित हैं। यथा – ‘अँधेरे से (पंकज विष्ट के
साथ / 1976), ‘दिल्ली पहुँचना है’, ‘स्विमिंग पूल’, ‘सब कहाँ कुछ’, ‘मैं
हिन्दू हूँ’, ‘मुश्किल काम’ (लघुकथाओं का संग्रह)। असग़र वजाहत ने बताया है
कि उनकी पहली कहानी ‘वह बिक गई’ 1964 के आसपास छपी थी। निःसंदेह, असग़र साहब
का कहानी-साहित्य स्तरीय है; वह गंभीर विमर्श की अपेक्षा रखता है।
‘डेमोक्रेसिया’
की भूमिका में असग़र वजाहत साहब ने एक रोचक बात दर्ज़ की है – ‘‘ बहुत साल
पहले भैरव प्रसाद गुप्त ने मुझसे कहा था कि मेरी कहानियों की सबसे बड़ी कमी
यह है कि वे रोचक होती हैं।’’ इस कमेंट पर असग़र साहब की टिप्पणी भी
द्रष्टव्य है। उनके मत से,‘‘मेरे ख़्याल से तो हर अभिव्यक्ति को रोचक होना
चाहिए। … मैं कोई उबाऊ कृति चाहे वह महान कृति क्यों न हो, नहीं पढ़ सकता
तो दूसरा मेरी उबाऊ रचना क्यों पढेगा।’’ उनका यह कथन स्वीकार्य है कि
रोचकता स-उद्देश्य होनी चाहिए। उनके अनुसार रचना में मूल्यों, विचारों,
प्रतिक्रियाओं और अस्वीकृतियों का स्थान भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें दो मत
नहीं, जहाँ तक साहित्य और साहित्य-लेखन का संबंध है, असग़र साहब की दृष्टि
साफ़ है। उनके कथन तर्क-संगत हैं। सब-कुछ विवाद का विषय बनता भी नहीं।
असग़र
साहब का चिन्तन समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण और विषमता के विरुद्ध है।
उनके चिन्तन के निष्कर्ष से किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। उनका कथन
है,‘‘ समाज को अधिक मानवीय समाज बनाना ही कलाओं का काम रहा है।’’ रचना और
विचार-धारा के संबंध एवं अनुपात पर भी असग़र वजाहत साहब का निष्कर्ष अर्थवान
है। प्रस्तुत कृति की भूमिका में जो विशिष्ट तथ्य द्रष्टव्य हैं वे हैं –
(1) रचनाकार अद्भुत की तलाश करता है। (2) अमूर्तन के माध्यम से यथार्थ के
जितने स्तर बनते हैं; वह अन्यथा मुश्किल है। उपर्युक्त तथ्य ‘डेमोक्रेसिया’
की रचनाओं में मुखर हुए हैं। ‘अद्भुत की तलाश’ के फलस्वरूप ‘डेमोक्रेसिया’
की रचनाओं में कथा-तत्त्व का लोप हो गया है। रचनाओं की रोचकता भी प्रभावित
हुई है। वर्तमान सामाजिक जीवन की भयावहता से रचनाकार इतना अधिक आक्रान्त
है कि वह तथाकथित संगत बोल भी नहीं पाता। सटीक अभिव्यक्ति के लिए एबसर्डिटी
का सहारा लेता है। चमत्कारिक घटनाओं को जिस ढंग से पेश किया गया है; वह
लगता है, उससे बेहतर ढंग शायद और नहीं हो सकता। अद्भुत, चमत्कारपूर्ण,
जादुई, ऊल-जलूल, असंगत कथनों-कार्यों की शृंखला ‘डेमोक्रेसिया’ की प्रत्येक
रचना के केन्द्र में उपलब्ध है। इन अंशों को पढ़कर, प्रबुद्ध-बौद्धिक पाठक
ही नहीं; आम आदमी भी इनके मन्तव्यों को सहज ही आत्मसात करता चलता है। हर
अभिव्यक्ति का औचित्य; उसकी सार्थकता और गूढ़ अर्थगर्भिता ज़ाहिर होती चलती
है। क्रोध और भावावेश का अतिरेक इससे अधिक और प्रभावी ढंग से शायद आकार
नहीं ले सकता। भले ही, इससे रचनाओं का कहानीपन लुप्त हो गया हो। रचनाकार का
उद्देश्य कोई रोचक कहानी कहना नहीं है; बल्कि अमूर्तन के माध्यम से अपने
समय की विसंगतियों, मूल्यहीनताओं और अप-संस्कृति को निरावरण करना है।
‘डेमोक्रेसिया’
की सात रचनाओं का शिल्प लघु-विस्तारी खंडों / अनुच्छेदों-द्वारा निर्मित
है। ये खंड पाँच से दस तक हैं। इन खंडों में कोई संगति नहीं है। तारतम्य है
तो मात्र इस दृष्टि से कि इनकी अन्तर्वस्तु वण्र्य-विषय से सम्बद्ध है।
रचना के शीर्षक से ही सरोकार रखती है। वस्तुतः ऐसा लगता है, मानो लेखक कोई
स्वप्न देख रहा है और उसका वर्णन कर रहा है। क्रमशः स्वप्न जैसे अटपटे व
अद्भुत दृश्य उभरते हैं। इससे कथन न तो सार्थक बन पाते हैं; न सशक्त। इस
भंगिमा के उपयोग की आवश्यकता लेखक ने क्यों महसूस की; इसका समाधान तो असग़र
साहब ही कर सकते हैं।
महेंद्र भटनागर (समीक्षक)
‘खेल
का बूढ़ा मैदान गुस्से में हैं’ में  नौ खंड हैं। इसका संबंध स्टेडियम,
क्रिकेट मैच, एम्पायर आदि से है। पता चलता है .-  ‘‘मैदान तो पत्थर का हो
गया है। विकेट लगाना सम्भव न हो सका। … संसार में पहली बार बिना विकेट
लगाए क्रिकेट खेला जा रहा है। … बूढ़ा खेल का मैदान पिच पर आकर खड़ा हो
जाता है। .. दो लाख देने पर भी नहीं हटता।’’ क्रिकेट मैचों में जो धाँधलीे
चलती है; पैसे का जो लेन-देन होता है (फ़िक्सिंग) – सम्भवतः लेखक का इशारा
उस तरफ़ हो।
‘दो
पहियों वाले रिक्शे’ दस खंडों में है। सड़कों पर तीन पहियों वाले रिक्शे
चलते हैं। ‘मैं दिन-भर रिक्शे पर चढ़ा इधर-उधर आता-जाता रहता हूँ, लेकिन रात
में रिक्शेवाला मेरे ऊपर चढ़ जाता है और उसे उठाए-उठाए मैं संसद, सर्वोच्च
न्यायालय, प्रधानमंत्री सचिवालय के चक्कर लगाता हूँ।’ रात में ही क्यों? और
‘ रिक्शा एक तरल पदार्थ की तरह पूरे कमरे में फैल गया।’ सर्वत्र सांसद,
विधायक, लोकतंत्र, सरकार, सत्ता, विपक्ष, आन्दोलन, आरक्षण, राजनीतिक दल,
दलित, आत्मदाह, मीडिया। ‘आज प्रधानमंत्री शौचालय में बीस सेकंड अधिक बैठे।’
और यहाँ भी ‘पिच’ और ‘बचे हुए ओवर’ – आदि शब्दावली से इस रचना ने आकार
लिया है।
‘आत्मघाती
कहानियाँ’ जहाँ ‘हर आदमी के हाथ में एक-एक चाकू है जो एक-दूसरे के पेट में
घोंप रहे हैं।’ बम, विस्फोटकों की आवाज़ें, ख़ून की नदियाँ, लाशें,
हाहाकार, आतंक, आत्मघाती आतंकवादी आदि से निर्मित है ‘आत्मघाती कहानियाँ’
रचना।
‘गुमनाम
आदमी की कहानियाँ’ में गुमनाम आदमी गोलगप्पे खाता पकड़ा गया तो वह मर गया,
बच्चों ने गुमनाम आदमी की हत्या कर दी, नेता ने कुर्ते की जेब से रिवाल्वर
निकाला और गुमनाम आदमी के सीने में छः गोलियाँ दाग दीं।’ शांति की चाह;
किन्तु शांति ‘मानव-बम’ बनकर फटती है और ‘गुमनाम आदमी के चीथड़े उड़ गए। इन
घटनाओं और सूचनाओं पर यह रचना आधारित है। ‘सदन में चोर’ (नौ खंड) में चोर
नज़र नहीं आया। सदन, कैंटीन का पर्याय है। वहाँ चर्चे हैं – घूस, टेप,
खर्राटे, सदस्यों का अपने चुनाव-क्षेत्र से लगाव आदि के। ‘शून्यकाल में
केवल शून्य  पर ही चर्चा हो सकती है।’ ‘मुख्यमंत्री और डेमोक्रेसिया’ और
‘सूफ़ी का जूता’ दस-दस खंडों में समाहित हैं। अक़्सर राजनीतिक नेता और
मंत्री अपना मसखरापन ज़हिर करते हुए इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते हैं
– डेमोक्रेसिया, ब्रेकफस्टवा, डिनरवा, हेलीकाॅप्टरवा। डेमोक्रेसिया है;
अतः नेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों को ‘डिरने’ की ज़रूरत नहीं।
बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का दौरा करते हुए, मुख्यमंत्री अचानक हेलीकाॅप्टरवा का
दरवाज़ा खोल नीचे कूद पड़ते हैं – कोसी की मुख्यधारा में गिरे और नीचे चले
गए। मीडिया ने रहस्योद्घाटन किया – ‘हमने सुना है, आप केवल अपने वोटरों की
लाशें निकालकर लाए हैं। विरोधी दल वाले भी कोसी की गोद से अपने वोटरों की
लाशें पहचान-पहचान कर ला सकते हैं; क्योंकि देश में डेमोक्रेसिया है। आपदा
प्रबन्धन की ज़िम्मेदारी सरकार नहीं निभाती। मुख्यमंत्री महीने में एक
उद्घाटन नहीं करते तो तबीयत ख़राब होने लगती है। डेमोक्रेसिया का सही अर्थ
तो राजनीतिज्ञ ही समझते हैं। ‘सूफ़ी का जूता’ में फ़ैशन की दुनिया का
(ड्रेस-डिज़ाइनर) मज़ाक है। इसी प्रकार संकलन की अन्य रचनाएँ भी अनोखापन लिए
हुए हैं। जहाँ तक इन रचनाओं (जिन्हें कहानी तो कहा ही नहीं जा सकता) की
अर्थ-संगति का प्रश्न है; आलोचक बहुत-कुछ वह भी खोज ला सकते हैं; जो स्वयं
लेखक ने सोचा तक न हो। इन जटिल रचनाओं का खींचतान करके भाष्य प्रस्तुत
करना; दूर की कौड़ी लाना है। व्यंजना-प्रधान रचनाएँ भी प्रांजल होती हैं। इन
रचनाओं का उलटबासियों जैसा रूप  है। लेखक अपने समय की अप-राजनीतिक
संस्कृति से क्षुब्ध है। डेमोक्रेसी तंत्र के अन्तर्गत चुने गए सांसदों,
मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों, राजनीतिज्ञों के क्षुद्र आचरण
का वह मज़ाक बनाता है। उसका इतना उद्देश्य तो समझ में आता है। किन्तु जिस
ढंग से जो कहा गया है; वह अपना कोई प्रभाव अंकित नहीं कर पाता।
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समीक्षक: महेंद्रभटनागर, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर – 474 002 (म.प्र.)

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