तुम

तुम

सिर्फ ‘तुम’
हाँ
सिर्फ ‘तुम’ हीं तो हो
यहाँ
वहाँ
इसमें
उसमें
मुझमें
सबमें।
और आज से नहीं
जब ‘तुम’ मुझे-
इस कदर मिली हो,
बल्कि तब से
जब मैंने पहली बार
‘तुम्हारे’ पेट में
हाथ-पैर मारे थे।
मेरी आँखें खुली न होंगी
उस वक्त
पर
मैंने ‘तुम्हे’ देख लिया था।
जब ‘तुमने’ मेरी नाड़ी काटी
और मेरे ‘क्हाँक्हाँ’ पर
‘अल्लेलेले’ कहा था
मैंने सुने थे
वो तुम्हारे बोल।
सुकून अथाह थे
उन लम्हों में
जब ‘तुमने’ मुझे
माथे पर चूमा था
और स्तनों से लगा लिया था।  
‘तुम्हारे’ साथ की ये यात्रा
अभी खत्म नहीं
बल्कि शुरू हुई थी।
मेरी कलाई पर
जो ‘तुमने’ स्नेह बाँधा था
वो आज भी-
कहाँ खुला है
और न कभी खुलेगा  
वो प्रेम
जो मैंने ‘तुम्हारी’ आँखों में-
देखा था।
आज भी तो
वही देख रहा हूँ।
वही ममत्व
वही स्नेह
वही भाव-
अपनेपन वाला।
कभी ‘तुम’ नाड़ी काटने आयी
कभी दूध पिलाने
तो कभी राखी बाँधने।
और आज भी तो
‘तुम’ आयी हो
गुलाब लेकर।
मैं ‘तुम्हारी’ आँखों में
वही स्नेह
वही वाला प्रेम-
देख पा रहा हूँ।
‘तुम्हारा’ रूप बदला है
निगाहें बदली हैं
प्रेम नहीं।  
न जाने कितने रूपों में
‘तुम’ मुझे बनाती रही हो।
मुझे हीं नहीं
सबको बनाती रही हो
और बनाती रहोगी।
सब में ‘तुम’ हो
और ‘तुम’ में सब हैं
हाँ
‘तुम’ से सब हैं।
    -भावुक
2-
दानें
चुग रही थी वह
दानें
बड़े धैर्य
बड़ी मेहनत से
अपने अंडे-बच्चों के लिए,
कोंपलें फूट रही थी
उन दानों से
झाँक रहा था
उनका आज
और कल,
एक-एक दानें के साथ
जमा कर रही थी वह
एक-एक साँस,
उड़ चली समेट
अपने दानें
अपनी मेहनत,
कई सपने
आँखों में लिए,
अंडों की याद
उसके परों की गति  
दुगुनी कर जातीं
और भी गहरा जाती लाली
उसके आँखों की,
अनुभव था
सब रस्ते मालूम थे उसे
पर मालूम न चल सका था
कि घात लगाए
ताक पर हैं उसके
कई पेशेवर बहेलिये,
जो ले लेना चाहते हैं
उसके दानें
उसकी मेहनत
उसका सर्वस्व,
चौंक पड़ी
पहुँचते ही करीब
देख जाने-पहचाने चेहरों को,
चाह कर भी बच न पायी
फाँस ली गयी
चारों तरफ से   
जादुई जाल में,
दानें माँगे गए
‘ना’ कहने पर
धर दी गयी धारदार चाक़ू
उसकी गर्दन पर,
पर एक भी दाना
निकल न सका उसकी गाल से
छीना-छोरी में
निकल गयी नन्ही-सी जान
उसके नन्हे-से शरीर से,
बिखर गए उसके पर
उसके सपने
उसके हौसले,
इंतजार में है उसके आज भी
वो बरगद का मस्तमौला पेड़
और
उसके घोंसले का तिनका-तिनका,
उसके अंडे
अब उड़ने लगे हैं
नए सपनों-उमंगों के
आकाश में
उसकी ही तरह
जैसे कभी उड़ी थी वह,
ये भी जाने लगे हैं
दानें चुगने,
ये नादान हैं
अनजान हैं
दुनियादारी से
जैसे वह थी,
इन्हे भय नहीं है किसी का   
पर मुझे भय लगता है
पीढ़ियों की पीढियाँ
निपटती जा रही हैं,
और कोई चढ़ता जा रहा है
सीढीयाँ-दर-सीढीयाँ
दानों की ढेरों की ढेर
की चोटी की चोटी पर,
सहम जाता हूँ
सोच इसके मुकाम को।
                                                   
            -भूपेन्द्र ”भावुक”
3-
 वो सिसकियाँ
उस अजीब से
सन्नाटे को चीरती
वो सिसकियाँ
झंकृत कर रही थीं
हृदय के  तार
कंपा देती थीं
रह-रह के
चीथड़े  बिखरे  पड़े थे
जहाँ-तहाँ
मांस के लोथड़ों में
तब्दील थे शरीर के अंग
पहचान मुश्किल थी
स्त्री-पुरुष की
धुएं का अंधकार
सिमट रहा था
धीरे-धीरे
शवों के ढेर के बीच
एक  पैर और एक हाथ
गायब एक शव से लगा
एक  नन्हा   
जिसके चेहरे का अंधकार
अभी  तक कमा न था
झंकृत कर रही थीं
हृदय के  तार
उसकी वो सिसकियाँ।
                                 -भूपेन्द्र”भावुक”
4-
मेरी एक छोटी कविता “आज़ादी”(????) को समर्पित….
        “अनन्त  गन्तव्य”
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आँचल की छाँह में
वह नन्हा
जीवन के अनमोल लम्हों को
जी रहा था।
जीवन की जटिलता
और उसकी थाह से दूर
वह नन्हा
आँचल के भीतर से
माँ के धुंधले चेहरे को
तिरछी नजरों से
तक रहा था।
ईंटें-बालू ढोने वाले हाथ
नन्हे का सिर सहलाते
किसी गुलाब से कम न थे।
बदन के पसीने की
सोंधी खुशबू
उस नन्हे को
सुस्ता रही थी।
वह रह-रह कर
दूध पीना छोड़
झपकी ले लेता।
उसे नींद आते ही
धीरे से
माँ उसे सुला देती है
साड़ी के बने
अस्थायी घरौंदे में।
नन्हे को पल भर निहार
वह चल पड़ती है।
एक-एक करके
ईंटें रखी जाती हैं
उसके सिर पर
और फिर वह
निकल पड़ती है
अनंत गन्तव्य को।  
     ©भावुक 
नाम- भूपेन्द्र ”भावुक”
एम.ए.(हिंदी)
हिन्दू महाविद्यालय
(दिल्ली विश्वविद्यालय )  
सम्पर्क-9718038983

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