तुम्हारे आंसुओं के गवाहों नें मुझे निःशब्द किया था

मृगतृष्णा

हाँ-जहाॅं लिखा था
तुमनें मुझे
प्रेम,समपर्ण,और हक
काश! वहाँ-वहाॅं
सिर्फ,
तुम!लिख देते! 
आईनों के दीदार में
जब-जब 
देखा था तुमनें मुझे, 
काश उस पर कभी
सिर्फ,
तुम!लिख देते! 
तुम्हारे आंसुओं के गवाहों नें मुझे निःशब्द किया था

तुम्हारे जवाबों का मुझे

कोई मुकम्मल नही था
बस अपने हाथों के कालम में
सिर्फ,
तुम!लिख देते! 
तुम्हारे आंसुओं के गवाहों नें
मुझे निःशब्द किया था
काश इनके बहनें कारण भी
सिर्फ,
तुम!लिख देते! 
जो सच था
तुम्हारे-मेरे बीच
काश उसका झूठ भी
सिर्फ, 
तुम!लिख देते! 
ऐसा भी क्या था 
तुम्हारे हालात में
मेरे गिरेबाँ को न समझ सके
फिर भी इतनी
तकलीफ न होती
काश इसका वजह भी, 
सिर्फ, 
तुम!लिख देते! 
मेरे नाम के आगे
लिखकर अपना नाम
उसे लोगों से छिपाने की जरूरत
क्या थी, 
काश मेरे नाम के बदले
सिर्फ, 
तुम!लिख देते! 
जो कुछ कहा था
तुमनें,
रूबरू होकर
काश उन शब्दों का
एक-एक मतलब भी
सिर्फ, 
तुम!लिख देते! 
सिर्फ, 
तुम!लिख देते! 
सिर्फ तुम!…………… 
2. मेरा मौंन और मौत
दोनों मेरे उपस्थिति का
सहज बयान है! 
एक में वो हैं
जिसमें मैं, 
पल-पल जी रहा हूँ! 
दूसरे में,मैं हूँ, 
जिसमें मैं, 
क्षण-क्षण मर रहा हूँ! 
3.सत्य को सत्य रहने दो
असत्य को असत्य! 
हम दोनों का
सत्य भी सत्य है
और इसे सत्य न मानकर
हम अपने-अपने 
असत्य को लेकर
सत्य के खिलाफ
कोई विद्रोह न करें, 
शायद यही हमारी
नैतिक अभिव्यंजना है! 
4. विस्मृत तुम्हारे
कानों की बाली को
हिलते-डूलते जब भी, 
स्मृत करता हूँ, 
तबीयत में एक सिहरन
दौड़ जाती है, 
मैंने जब-जब उसे उतारा
अपने हाथों के प्यालों में! 
मुझे क्षमा करना, 
यदि तुम्हें कुछ और लगे? 
5. तुम्हारा मौन 
मेरी नि:शब्दता
हमारे प्रेम की
अनंत समाधि थी! 
पर समय की गति ने
तुम्हें मुखर बनाया दिया
जबकि मुखर
ध्यान नही
कोलाहल करता है! 
6. अपरिचित तो हम दोनों थे, 
हमें पहचाना था, 
हमारे हृदय के स्पंदनों ने! 
वो क्या था? 
मेरे नेत्रों में तुमने
स्वयं के अस्तित्व की छाया को
सच के दृष्टिकोण में देखा था
हम कैसे कहे कि तुम्हारी पहचान की
वो संम्पूर्णता नही थी! 
7. तुम्हारे सिक्त
नेत्रों की, 
प्रेमपूर्ण सुधा में
तुम्हारा निश्छल
अभिधा
जिसे मैंने,
स्वयं के अस्तित्व को अर्थ देकर
तुम्हें लक्ष्य रखा!! 
और उसे
अपेक्षाओं के व्यंजना में
उसे परिपूर्ण किया, 
क्या मैंने गुनाह किया? 
8.अब मुझे एहसास है
कि तुम आये थे
मेरे संकीर्ण
संवेदनाओं के कानन में, 
कुछ छण के लिए
जिसे मैंने सच का
विस्तार समझा.. 
मगर नही, 
शायद! 
तुम्हारे प्रति
वो मेरी अन्यतम, 
मृगतृष्णा थी!!!! 

::::राहुलदेव गौतम 

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