तेरे लिए ही करती मैं श्रृंगार हूँ
तेरे लिए करती मैं श्रृंगार हूँ,
तुझे अपनी ओर रिझाने के लिए
लगाती नहीं कोई क्रीम हूँ।
तू मेरी प्राकृतिक सुन्दरता पर लुटाता प्यार है,
मेरी छोटी सी मुस्कराहट तेरी ही कारण है।
जाया करती बाहर जब भी,
इंतज़ार करती तुम्हारा हूँ।
दिख जाओ कही,
इसलिए पूरी श्रृंगार के साथ निकलती बाहर हूँ।
किसी पार्टी में मिल जाओ,
देख शर्मा कर नजरे झुका मैं जाती हूँ।
तेरे लिए ही तो इतनी सजावट किए,
खूबसूरती को और बिखेरती हूँ।
तू जब भी मेरी गलियों से जाता है,
मैं तेरे लिए बरामदे में बैठ कर इन्तेज़ार करती हूँ।
तु जरूर एक दफा मुझे देखेगा,
इस आशा में करती मैं श्रृंगार हूँ।
बिंदिया लगा कर,
हाथो में चूड़ी पहन कर,
पाओ में पायल की झनकार लेकर,
तेरे आने का इन्तेज़ार करती हूँ ।
तेरे लिए हो श्रृंगार करती हूँ ।
इस खूबसूरती को निखार कर,
उसमे चार-चांद लगाया है।
काजल लगे आँखों को और खूबसूरत
बनाया है।
कानो में झूल रही झूमके,
तेरे पसंद का ही पहनती हूँ ।
तेरे लिए ही तो श्रृंगार करती हूँ ।
सलवार पहनती हुँ दुपट्टा एक तरफ ही लेती हूँ,
एक हाथो पर घड़ी और माथे में बिंदी लगाती हूँ ।
यह देख मुझसे कहता है,
तू बड़ी सुंदर दिखती है।
तेरी इसी तारीफ को सुनें के लिए,
रोज नई-नई कपड़े और तरह-तरह का श्रृंगार करती हूँ।
आज तेरे लिए ही तो मैं श्रृंगार करती हूँ ।
– मनीषा सिंह चौहान
दुर्गापुर पश्चिम बंगाल