दर्द
कभी उनके लिए कुछ न हो सके
हम रोते रहे हर पल
वो अपना लम्हा भी न भीगा सके
कितना आसान हो गया उनके लिए
थाम कर किसी का हाथ साथ चलना
हमे ही न जाने कैसी थी उल्फत उनसे
चाहा जब से उन्हें ………
किसी ओर को न चाह सके
कितनीआसान हो गई जिंदगी उनकी
एक साथ छोड़कर हमारा
ये कैसा दर्द था उनके बिछड़ने का
जो बरसो बाद भी हम सो न सके
कभी यादो ने तो कभी आहटो ने जगा दिया
कभी उनकी बेरुखी तो कभी मोह्बत ने रुला दिया
सोचते है अब अलविदा कह दे
जैसे रखते है वो फासले दरमियां
अब रिवाज ये उल्फत का हम भी निभा दे
हम शायद न मुस्कुरा सके उनके बिन
हो सके तोड़ कर हर रिश्ता हमसे
वो खिलखिला दे…………………..
समझ ही न सके दरमियां
जो ठहरा है वो एक धुन्ध है
या कि दिल को किसी भरम ने घेरा है
अक्सर घेर लेते है दिल के सवाल ही
पूछते है कोई अपना था या मुसाफिर था
अपना था तो छोड़ क्यों गया
औऱ मुसाफिरो की याद कैसी
क्या दे जवाब दिल के इन सवालों का
शायद आदत हो गई जिंदगी को उनकी
बेरुखी की……………………………..
मोह्बत भी कहा किसी की रास आती है
मिलता है शुकन इस दर्द में भी
अच्छी लगती है वो याद जो अक्सर रुलाती है