निवारण

निवारण 

आज मैं सुबह से ही बड़ी बैचेन थी | पता नहीं क्यों ,लेकिन कुछ तो था | हाँ जरूर कुछ तो था जो मुझे बेचैन किये
जा रहा था | खैर रोज की भांति उठना हुआ और लगे रोजमर्रा के काम करने | काम निबटाते-निबटाते दोपहर के 2 बज गए | सुबह पांच बजे से जो काम करने लगे बस अभी थोडा आराम मिला | ये भी भला कितनी देर का रहेगा मुए तीन बजते-बजते तो बच्चे स्कूल से आ जाएंगे और फिर से चक्करघिन्नी की तरह पूरे घर में डोलना | यही तो मेरा जीवन हो गया | एक तरह से नीरस-सी जिंदगी जिसमे कोई बदलाव नहीं | हाँ दो सप्ताह बाद तो दिवाली आनी  है उसकी तैयारी भी तो करनी है | अब दिनभर मैं घर में रहती हूँ तो जाहिर है सारा काम मुझे ही संभालना है | घर की सफ़ाई,बाहर का लेन-देन और भी न जाने कितने छोटे-मोटे काम रहेंगे | अब मैं अपनी व्यथा भला किसे सुनाऊं | कौन भला सुनेगा | यदि कभी घर में बच्चों को कुछ कहदो तो बवाल उठ जाता है और बच्चों का जवाब तो देखो “अम्मा तुम्हे क्या पता आजकल की पढ़ाई कितनी कठिन हो गई है अब हम पढ़ाई करे या तुम्हारे घर के काम में मदद करे — तुम ही सोचलो |” ऐसा जवाब सुनकर मैं उन्हें क्या कहूँगी कुछ भी तो नहीं क्योंकि मैं उनकी पढ़ाई में हर्जा नहीं चाहूंगी | घर के साहब तो जो सुबह काम पर निकलते है रात गए उनके दर्शन होते है |
मेरी कहानी तो रोज की यही है | लोग कहते है दिवाली बहुत बड़ा त्यौहार होता है लेकिन मेरे लिए तो सभी त्यौहार एक समान ही है | कभी पास-पड़ोस में देखती हूँ कितना बन-संवर कर मेरे पड़ोस की महिलाएँ खुशियाँ मनाती है | मुझे तो ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि मैं बनूँ सवरुं | क्या करूँ घर की जिम्मेदारियाँ ख़त्म ही नहीं होती | कई बार काम को घर के लोगों को सौंपने की कोशिश की लेकिन नाकामयाबी ही हाथ लगी |बहुत अखरता है कि घर के सभी लोग उल्लास हो त्यौहार का आनंद लेते है और मैं ….| 
निवारण हर किसी की कहानी क्या मेरे जैसी ही है जिसके ऊपर घर की जिम्मेदारी है या जिसे अपने घर में सभी लोगों की देखभाल करनी हो | इस बार मैं बहुत ही आहत हुई हूँ क्योंकि हमेशा की तरह इस बार भी चाहे घर में कुछ भी हो त्यौहार का मौका हो या घर में छोटी-मोटी पार्टी मैं हमेशा सिर्फ घर के काम में ही उलझी रहती हूँ | अपने इस जीवन से मैं बुरी तरह उकता चुकी हूँ | कई बार मन में आता है घर छोड़ दूँ किन्तु मन नहीं मानता ऐसे लगता है बच्चों का क्या होगा,भला यदि मैं घर में न रहू तो इन सारों का जीवन तो तितर-बितर हो जाएगा | 
मन की उदासी छुपाए नहीं छुपती ,अब तो चेहरे पर  भी झुंझलाहट झलक ही जाती है | पतिदेव ने इस चीज को देखा तो सही पर अनदेखा कर दिया |जब उन्होंने मुझसे पूछा और मैंने अपने मन की बात उनके सामने रखी तो उन्हें ये समस्या नहीं लगी बल्कि कहा ‘हर घरेलु स्त्री जिसकी  गृहस्थी हो उनका जीवन ऐसे ही होता है |’ लेकिन मुझे तो मेरी समस्या बड़ी लग रही थी या मैंने उसे ज्यादा बड़ा बना लिया | 
    मैं क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था | एक दिन बालकनी में खड़ी थी तो सामने के फ्लैट की बालकनी में किसी हमउम्र महिला को देखा | मैं देखकर मुसकरा दी | उसने भी जवाब मुसकरा कर दिया | मैंने उसे घर आने के लिए कहा और समय भी बता दिया दोपहर २ के बाद | वह उसी दिन ही आ गई | उसक नाम मुस्कान था | नाम की ही तरह उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान ही बिखरी रहती है | उसे देखकर मैं बहुत अच्छा महसूस कर रही थी | मैं उसके लिए चाय और बिस्किट ले आई और हम दोनों साथ-साथ चाय की चुस्कियाँ लेने लगी | उसकी भी गृहस्थी बिलकुल मेरी ही तरह की है | लेकिन उसमे और मुझमे एक फ़र्क मुझे लगा और वो ये था कि वो हमेशा चुस्त-तंदरुस्त दिखाई देती थी और मैं हमेशा काम करते-करते थकी हारी | 
     अकसर दोपहर एक घंटा हमारा साथ में ही बीतने लगा | एक दिन मुस्कान ने मुझे अपने साथ बाजार आने के लिए कहा और मैंने मना कर दिया और कहा ‘बच्चो का आने का समय हो जाएगा आते ही उन्हें खाने के लिए कुछ देना पडेगा भूखे रहेंगे न वे ,और भी उनके दूसरे काम होंगे -मैं नहीं आ पाउंगी |’ उसे सुनकर थोडा बुरा लगा और वह  उस दिन  अकेले चली गई | मेरे मन में एक प्रश्न छोड़ गई कि उसके भी तो बच्चे आएँगे तो क्या वह उनका ध्यान नहीं रखती है | 
दूसरे दिन रोज की तरह दो बजे उसका आना मुझे खुश कर गया क्योंकि मैं सोच रही थी शायद वह नहीं आएँगी | मैंने उससे पूछ ही लिया ‘क्या तुम्हारे बच्चों को स्कूल से आने के बाद भूख नहीं लगती |’ उसने कहा ‘लगती है | क्यों?’ 
‘नहीं कल तुम बच्चों के आने के समय बाजार खरीदी के लिए जो चली गई तो मन में प्रश्न कुलबुला रहा था |’
‘अच्छा तो इसलिए तुमने मना कर दिया |’
‘हाँ और तो कोई कारण नहीं था ,इसलिए तो मैं नुक्कड़ के पास से ही जो भी लेना हो ले लेती हूँ |’
‘तुम्हे कुछ जिम्मेदारी बच्चों पर और अपने पति पर डालनी चाहिए कब तक तुम अपने मन को मारते रहोगी |’
‘बच्चो की पढ़ाई है और उन्हें तो फुर्सत ही नहीं मिलती है |’
‘सब बहाने है तुमने ही सर पर चढ़ा रखा है |’
‘कई बार बच्चों को तो बोलती हूँ लेकिन दिनभर ये पढ़ाई ही करते रहते है थोडा ही समय मिल पाता  है इन्हें अपने लिए |’
‘और तुम्हे अपने लिए कितना समय मिलता है ?’
‘एक घंटा दोपहर का तुम्हारे साथ बैठती हूँ न |’
‘मजाक नहीं, क्या तुम खुश हो अपनी जींदगी से जो एक घंटा हम साथ में गुजारते है उस वक्त भी तुम्हारे हाथ कुछ न कुछ  काम होता है |’
‘ज्यादा मत दो जिम्मेदारी छोटी -छोटी दो जैसे कमरा साफ़ करने की,खुद का ड्रेस धोले जुराबे धोले बस |’
‘शायद तुम ठीक कह रही हो मुझे ही कुछ सोचना पड़ेगा |’
‘तुम्हे ये करना भी होगा क्योंकि इसी तरह तो तुम बच्चों को जिम्मेदार बना पाओगी वरना बच्चे कब सीखेंगे |’
रविवार के दिन मैंने घर में एक मीटिंग रखी इस मीटिंग में मैं ,मेरे पति और दोनों बच्चे |
मैंने अपनी काम के बँटवारे  की योजना सभी को बताई |पहले तो  इन लोगो ने काम का ,पढ़ाई का रोना रोया किन्तु मुसकान के बताए अनुसार मैंने भी अपने मन को कठोर कर लिया और मैंने साफ़-साफ़ शब्दों में उनसे कह दिया ‘यदि तुम काम नहीं करोगे तो गन्दा ड्रेस,गन्दी जुराबे और गंदे कमरे में ही रहना होगा | ‘ 
बहुत ना नुकर के बाद आखिर सभी ने जबरदस्ती ही सही किन्तु छोटे-मोटे कामों को अपने हाथ में ले लिया और मुझे भी अब समय मिल जाता जिसमे मैं अपने लिए जी लेती हूँ और अब त्यौहार का मजा भी ले लेती हूँ |

यह रचना जयश्री जाजू जी द्वारा लिखी गयी है . आप अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं . आप कहानियाँ व कविताएँ आदि लिखती हैं . 

You May Also Like