बचपन ना आया

बचपन ना आया 


आज फिर आई सुबह मांजा  पतंग लेकर
सुनहरी धूप आई दबे पाँव  छत से उतर कर
दूब पर फिर से बिछी ओस की चादर

बचपन
बचपन

सघन वृक्षों से चहका  अनगिन पक्षियों का स्वर
लगा जैसे सब ने  पुकारा , बुलाया साथ मिल कर
पर ठिठोली से भरा बचपन ना आया लौट कर |
फिर गस्त पर आया  प्रभाकर  ले कर उजाले
गलियों से गुजरे गुब्बारे, कुल्फी   के फेरीवाले
फिर से आई सांझ   झूलों पे   झूली लेकर हिंडोले
शाखों से गूंजे फिर से पक्षियों के स्वर निराले
लगा जैसे सब ने  पुकारा , बुलाया साथ मिल कर
पर ठिठोली से भरा बचपन ना आया लौट कर |
लगा कभी  चमकीले बटन , आई निशा  मन मोहिनी
या निस्तब्द  नभ ले बहुरूपिया चांद और चांदनी
आया  चांद को ढकने एक नन्हा मेघ का टुकड़ा
और तभी  आया पवन  दिखाने चांद का मुखडा
लगा जैसे सब ने  पुकारा , बुलाया साथ मिल कर
पर ठिठोली से भरा बचपन ना आया लौट कर |

– संतोष चौहान 

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