बलात्कारी राक्षस
भैया! श्मशान- सी सड़क है,
जरा दो न सहारा,
कहाँ जाऊँ यहाँ से?
यहाँ कोई नहीं है मेरा।
इतना सुनते ही दरिंदा,
फूले नहीं समाए,
बगल में ही है घर मेरा,
चाहो तो उस तरफ
कदम उठाए।
सोची लड़की
बड़ा ही कठिन से
मिला एक घोंसला,
रात भर की
तो बात है,
सुबह लूंगी,
नया फैसला।
नादान लड़की
समझ ना पाई,
काल के गाल में
जा समाई।
मन ही मन
शिकार पाकर,
चल पड़ा राक्षस
घर की ओर,
कौन जाने आश्रय देने वाला था?
इतना जिस्म चोर।
घर जाते ही
बंद किया दरवाजा,
जिस्म को नोच खाने की
बना रखा था इरादा।
चिल्लाती रही युवती,
अश्रुधार लेकर,
परंतु कोई ना आया
सहारा का हथियार लेकर।
तार-तार किया
उसके जिस्म और जान को,
तनिक भी दया न आई
इस बलात्कारी इंसान को।
भरा पेट
छोड़ा अंग,
खाकर उसके जिस्म
मन में छाई खुशियों की उमंग।
दरिंदगी के अंधेरा से
जब बाहर आए,
आवाक् हुआ तन
अपनी ही बेटी को
बिस्तर पर पाए
काश! कि सभी बलात्कारियो के साथ
ऐसा ही होता,
तो दूसरे के
तन का वस्त्र,
उनके हाथों
कभी ना हटता।
✍️पूजा झा काव्या