बारिश की बूंदे

बारिश की बूंदे

तुम्हें याद है !
बारिश की वो बूंदे
चलो मैं याद दिलाती हूं
तुम्हें तुम्हारा शरारती बचपन
कैसे उमड़ते-घुमड़ते
बादलों को देख
हमारे मन का मयूरा भी
नाचने लगता था

बारिश की बूंदे
बारिश की बूंदे

दौड़े आते थे हम
घर में, दादी -मम्मी देखो!
बरसात आने वाली है
बारिश की बूंदे
जैसे टपकने लगती,
हम भाग जाते थे
छत पर आंगन में
दादी मम्मी से छुपके
हाथ फैला कर हम
गले लगाया करते थे
हम कितना खुश होते थे
मानो आसमान से
मोती बरस रहा हो
और हम समेट के
भर ले अपने दामन में
अंजलि में भर के
कभी खुद पे उछालते थे
कभी एक दूसरे पर
उन दिनों हम कितने
अमीर हुआ करते थे
बारिश के पानी में,
हमारी भी नाव चला करती थी
और ,आज हम बड़े हो गए
अब तो बारिश को
देख कर सर पर हाथ रख लेते हैं कहीं भीग न जाएं
नहीं तो ,
सर्दी जुकाम हो जाएगा,
पहले कहां डर लगता था
सर्दी का
स्कूल से आते वक्त
किताब गीली होने का
बीमार होने का
पर अब लगता है
किताब का नहीं
पर कपड़ा गीला होने का
बाहर से ही नहीं
अब तो अंदर से भी सूख गए
पर वह बारिश की बूंदे आज भी भीगा देती है
आना फिर एक बार
उसी आंगन में
उसी छत पर फिर से
अंजलि में भर कर
उछालेंगे उन बारिश की बूंदों को
क्या? पता अपना गुजरा
कल मिल जाए
क्या पता वो
एहसास मिल जाए



– अंजनी त्रिपाठी

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