नवधा भक्ति

नवधा भक्ति

रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)        
श्री राम जी और शबरी जी का मिलन
दो:-कंद मूल फल अति दिए राम कहूँ आणि |
     प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानी ||
 

अर्थात-शबरी जी ने रसीले और स्वादिष्ट फल लाकर श्री राम जी को दिए|
          प्रभु बार बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाए ||
शबरी जी:-हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गयी| 
श्री राम जी को देखकर उनका प्रेम 
               अत्यंत बढ गया|उन्होंने कहा में नीच जाती की और मुढ़बुद्धि हूँ ||
“श्री राम जी “:–में तो केवल एक भक्ति ही का सम्बन्ध मानता हूँ| मैं तुझसे अपनी 
                                      नवधा भक्ति कहता हूँ | तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर |
          
पहली भक्ति हैं- -:-संतो का सत्संग| 
दूसरी भक्ति हैं- -:-मेरे कथा-प्रसंग में प्रेम |
तीसरी भक्ति हैं:-अभिमानरहित होकर गुरु के चरण-कमलों की सेवा और 
        
चोथी भक्ति हैं- :-कि कपट छोड़ कर मेरे गुणसमूहों का गान करे ||मेरे (राम )
           मन्त्र का जाप और मुझमे दृढ़ विश्वास-यह है,
पांचवी भक्ति:-जो वेदों में प्रसिद्ध हैं|
छठी भक्ति हैं— इन्द्रियों का निग्रह,शील(अच्हा स्वभाव या चरित्र),भूत कार्यो 
            से वैराग्ग्य और निरंतर संत पुरषों के धर्म (आचरण)में लगे रहना ||
सातवीं भक्ति हैं—जगतभर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत(राममय)देखना और संतोको 
            मुझसे भी अधिक करके मानना|
आठवीं भक्ति हैं- –जो कुछ मिल जाए,उसमें संतोष 
            करना और स्वपन में भी पराये दोषों को ना देखना ||
नवीं भक्ति हैं- –सरलता और सबके 
             साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में
             हर्ष और विषाद ना होना| इन नवों में से जिनके पास एक भी होती  हैं| मुझे वह अत्यंत 
             प्रिय हैं|
सौजन्य :- कौसल्या वाघेला

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