हिन्दी भाषा – व्यावहारिक व व्यवस्थित रूप

हिन्दी भाषा – व्यावहारिक व व्यवस्थित रूप

             
भाषा मानव की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण अंग है l वह चाहे कोई भी भाषा हो l भाषा मनुष्य का भाव साधन है l भाषा का स्वरूप देखा जाये तो हर भाषा की बोली भाषा अवश्य होती है l हम उसे भाषा के स्थानिक रूप में जानते है l बोली भाषा की छोटी इकाई है l इसके बिना भाषा का विकास हो ही नहीं सकता l आज वर्तमान में हिन्दी के असंख्य बोलियाँ को देखा जा सकता है l इसलिए हिन्दी भाषा आज विकास के पथ पर खड़ी है lइसकी विशेष बात है कि इस भाषा में लचकिलापन है कोई भी प्रान्त में बोली जाये वहाँ का रूप ग्रहण कर लेती है l यही भाषा विशेषता किसी भी भाषा को विकास करने से नहीं रोक सकती l आज भारत में ऐसी कई भाषाएँ है जो मरने की कगार पर है l जिनका प्रयोग बहुत कम हो रहा है l एक विकसित भाषा के सभी गुण हिन्दी भाषा में मौजूद हैं l
           
हिन्दी भाषा - व्यावहारिक व व्यवस्थित रूप

अगर हिन्दी भाषा का विकास का सफर देखा जाये तो ये बहुत रोचक और लंबा है l बोली से भाषा का विकास होता है l और बोलचाल की भाषा के अंतर्गत लोक्तियाँ, मुहावरें, कहावतें और स्थानिक ध्वनियाँ शामिल होते हैं l जो भाषा के विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं l प्राचीन आर्य भाषाओं में जब संस्कृत चलती थी तब उस दौर में वैदिक व लौकिक भाषा का विकास हुआ l लेकिन कहते हैं हर दौर में भाषा की बोली भाषा अवश्य होती है या फिर हम उसे भाषा का व्यवहारिक रूप भी कह सकते है l संस्कृत भाषा का व्यहारिक रूप लौकिक भाषा है l इसके बाद पाली प्राकृत फिर अपभरंश से हिन्दी भाषा का विकास हुआ l आज जो रूप देखा जाता है वह खड़ी बोली का माना जाता है l जो मेरठ के आस पास बोली जाती है l

          
अब हमारे सामने प्रश्न ये उठता है की अगर हम भाषा का व्यवहारिक रूप से भाषा का विकास मानते है तो भाषा व्यवस्था का क्या होगा? क्या केवल भाषा का स्थानिक रूप ही महत्वपूर्ण है? भाषा शुद्धता का क्या करें?   व्यवस्थित भाषा शुद्ध भाषा होती  है जबकि व्यहारिक भाषा व्याकरण की दृष्टी से अशुद्ध होती है l जैसा की अगर हम भाषा का व्याकरणिक रूप देखें तो वह कर्ता +कर्म +किर्या को ही मानेगा जबकि व्यवहारिक भाषा इसे उसके  मुताबिक किस तरह से भी प्रयोग कर सकता है l जैसे :अगर भाषा व्यवस्था देखें तो “राम ने फल खाया l” और अगर व्यवहारिक रूप देखे तो  “फल राम ने खाया l”, “खाया फल राम ने l”या फिर ” खाया राम ने फल l”इस तरह होता है lइस उदहारण से समझा जा सकता है कि भाषा के व्यहार में मनुष्य अपने मुताबिक किसी तरह से भी कह सकता है l जबकि भाषा व्यवस्था उसे कर्ता, कर्म, किर्या ही कहेगी l
           
भाषा का स्थानिक रूप भी बहुत महत्वपूर्ण होता है l जिस भाषा में स्थानिक रूप ग्रहण करने क्षमता न हो वह भाषा कभी विकास नहीं कर पाती l हिन्दी भाषा का स्थानिक रूप बहुत ही रोचक है l यह  सुनने के लिए बहुत ही मधुर लगती है l उदहारण के लिए चाहे वह बिहार की भोजपुरी हो या हरयाणवी हो या राजस्थान की  मारवाड़ी ये बोलियां सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं lमहारष्ट्र सोलापुर में हिन्दी भाषा का स्थानिक रूप का एक अच्छा उदहारण है l यहाँ इतनी भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती है जिस के कारण हिन्दी भाषा एक नया रूप लेती है l
           
अगर भाषा का सौंदर्य किसी के कारण है तो वह भाषा के बोली, उसके स्थानिक रूप तथा उसके व्यहारिक रूप से है l और अगर भाषा का सौंदर्य व उसकी सुंदरता को बरकार रखना है तो भाषा में स्थानिक ध्वनियों का समावेश करना अत्यंत आवश्यक है l और अगर उसी तरह केवल हम भाषा की सुंदरता के पीछे जायेंगे तो भाषा की शुद्धता का क्या होगा l अगर केवल भाषा के व्यवहरिक रूप से ही भाषा का विकास होता तो फिर भाषा व्यवस्था की क्या आवश्यकता थी l  हमें भाषा शुद्धता पर भी ध्यान देना उतना ही आवश्यक है जितना कि हम किसी पेड़ को पानी देते हैं l तब जाकर वह पेड़ सही दिशा के साथ खिल उठता है l
             
देखा जाये तो भाषा का व्यहारिक या स्थानिक रूप और भाषा का व्यवस्थित व व्यकरणिक रूप दोनों भी भाषा को विकास के पथ पर ले जाने के लिए जरूरी है l हम किसी एक को ही भाषा के विकास के रूप में नहीं देख सकते l दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैंl     
                                     
       
– मिस्बाह अ. हमीद पुनेकर
सोलापुर, महाराष्ट्र , 
ईमेल – misbapunekar19@gmail.com  

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