रिश्तों का संसार

गर रिश्तों का संसार न होता

किसके संग हंसते , किसके संग रोते
यहां हंसना और रोना दुश्वार भी होता
यह मनमोहक धरती सूनी सी लगती
गर यहां पर रिश्तों का संसार न होता।

रिश्तों का संसार
रिश्तों का संसार

हम किसे पुकारते मां और बाबूजी
फिर जग में कोई तारणहार न होता
और दादा दादी, चाचा चाची के बिन
बचपन में खेल कूद उपहार न होता।

नहीं होता भाई बहन का प्यारा बंधन
कोई तीज त्योहार खुशगवार न होता
नहीं होती फिर कोई प्रियतमा तुम्हारी
और दिल में तुम्हारे कोई प्यार न होता।

कहां मिलते दोस्त भाई से प्यारे तुम्हें
फिर जीवन में कोई दिलदार न होता
अभी जिसके नाम से धड़के है दिल
फिर उस महबूबा से इकरार न होता।

बन जाता फिर मानव भी पशु समान
रहता भटकता, कोई घर बार न होता
यह मनमोहक धरती सूनी सी लगती
गर यहां पर रिश्तों का संसार न होता ।

– देवकरण गंडास “अरविन्द”
व्याख्याता इतिहास
9636852604

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