अस्तित्व की कील
पहचान मेरी, धुल गई सी लगती है,
अस्तित्व की कील मेरी, हिल गई सी लगती है ।
आजकल याद आता नहीं, गॉंव का वो बूढ़ा बरगद
इस शहर में हर चीज़ कहीं, खो गई सी लगती है ।
भीड़ में अकेले इनसान की चीख,
होठों में पे आके उसके, घुट गई सी लगती है ।
देखकर हाल अब, शहर का मेरे,
पुष्पलता शर्मा |
हर दर्द की लहर यहीं ठहर गई सी लगती है ।
पर्वतों के दायरे में आकर तो देखिए,
पीर में अपनी नदी, सिमट गई सी लगती है ।
क्षितिज में वो धरा-गगन का मिलन,
धरती चल-चल के कहीं, थक गई सी लगती है ।
ऑंखों के झरने में थमे हुए मोती,
आते-आते खुशी कहीं, रुक गई सी लगती है ।
सोलह का सावन या साठ का सहरा,
जि़न्दगी की धूप तन्हा, उड़ गई सी लगती है ।
ऑंखों की बेबसी कुछ तकदीर का फ़साना,
चुप्पी उस बेवा की, चीख गई सी लगती है ।
फिर हुआ बसेरे में, किसी मासूम का शील-भंग,
हर लम्हे की तस्वीर वहीं, सहम गई-सी लगती है ।
थामा जब भी हाथ, जीवन का जीने को,
हर सॉंस दूर जाकर कहीं, रूठ गई-सी लगती है ।
दिनकर की मजबूरी है, प्रकाश देने से इनकार,
शायद कोई घटा उसको, ढँक गई सी लगती है ।
चिर सत्य के दर्पण में, जब भी देखा अक्स,
जि़न्दगी की तस्वीर कहीं, दरक गई-सी लगती है ।
शाश्वत परिवर्तन की परिभाषा क्या समझें ?
कि जि़न्दगी मुट्ठी से, रेत-सी, सरक गई सी लगती है ।
यह रचना पुष्पलता शर्मा ‘पुष्पी’ जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी आपकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक लेख ( संस्कारहीन विकास की दौड़ में हम कहॉं जा रहे हैं, दिल्ली फिर ढिल्ली, आसियान और भारत, युवाओं में मादक-दृव्यों का चलन, कारगिल की सीख आदि ) लघुकथा / कहानी ( अमूमन याने….?, जापान और कूरोयामा-आरी, होली का वनवास आदि ), अनेक कविताऍं आदि लेखन-कार्य एवं अनुवाद-कार्य प्रकाशित । सम्प्रति रेलवे बोर्ड में कार्यरत । ऑल इंडिया रेडियो में ‘पार्ट टाइम नैमित्तिक समाचार वाचेक / सम्पादक / अनुवादक पैनल में पैनलबद्ध । कविता-संग्रह ‘180 डिग्री का मोड़’ हिन्दी अकादमी दिल्ली के प्रकाशन-सहयोग से प्रकाशित हो चुकी है ।