उलझनों में उलझी

उलझनों में उलझी

जाने कितने उलझनों में उलझी मै 

चली जाती हूँ बेसबब ,
उन पगडंडियों से जो अपरिचित सी है ,
क्योंकि चलना ही तो नियति है ।
इक्छा या अनिक्छा तो कबके पीछे छुट गये ।
कुछ रेशमी से रिश्तो के धागे

साधना सिंह
साधना सिंह 
कब कमजोर हुए और ना जाने कब टुट गये ।
मै हतप्रभ,  उदास  सोचती ही रही, 
आखिर क्यूँ..  
कुछ पाकर कुछ खो दिया, 
तो जो खोया उसका मलाल चैन ना लेने देता है।
और जो पाया उसकी भी संतुष्टि मन मे कहां रहती है। 
हमेशा अतृप्ति मे तृप्ति की भावना जागृत करने के लिये 
तृप्त वाले क्षणों मे भी अतृप्त ही रही । 
ये भटकाव शायद प्रवृत्ति  है 
जो मानव जन्म से लाता है ,
पर मै मन मे मथती रहती हूँ ।
आखिर क्यूँ…. 
भरे हुये तिजोरियों मे रीते- रीते हाथ 
कुछ और नही असंवेदनशीलता ही तो है ,
नफा़-नुकसान की सोच ने 
रिश्तो का बाजारीकरण कर दिया । 
हाथ भले ही मिलते रहते हैं पर दिलों को दुर कर दिया ।
एक पाँव उपर रखा तो देखा कि
मुंह से प्रोत्साहित करने वाले के हाथ ही दुसरा पैर नीचे खींच रहा था । 
मै क्षोभ से भरी कुढती रही ,
आखिर क्यूँ … 
______________ साधना सिंह 
                      गोरखपुर 

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