महेंद्रभटनागर-विरचित बाल-काव्य

महेंद्रभटनागर-विरचित बाल-काव्य   

– डॉ. आदित्य प्रचंडिया
बाल-बालिकाओं और पठनप्रिय अभिभावकों में बच्चों के लिए जो कविता लोकप्रिय है, वह बाल-कविता है। लोकप्रियता ही इस कविता का आधार और आस्वाद्य है। बाल-कविता के स्वरूप, उसके प्रतिमान, भाव-सौन्दर्य, विषय-प्रसंग, शिल्प-सौन्दर्य, छंद-विधान आदि का ब्यौरा कहीं उपलब्ध नहीं है। लेकिन बच्चों का मनोरंजन, ज्ञानवर्धन और चरित्र-गठन करने की दिशा में हिन्दी की श्रेष्ठ बाल-कविता प्रभावी भूमिका निभाती है। कौन है जो बच्चों को समाज की विसंगतियों से जूझने की ऊर्जा दे सकता है? यह दायित्व बाल-काव्यकार का ही है जो अपनी सशक्त रचनाओं से बच्चों में नई चेतना, नई स्फूर्ति ला सकता है। बच्चे कविताओं में केवल आनंद ही नहीं पाते बल्कि अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त होता भी देखते हैं। बच्चों का जीवन आज कितने खतरों से घिरा है, यह किसी से छिपा नहीं है। अभाव, भुखमरी, अशिक्षा, अस्वस्थता, यौन-शोषण, मादक पदार्थ तो अब तक बच्चों के दुश्मन थे ही, अब आतंकवाद और युद्ध ने नये शत्रु खड़े कर दिये हैं। हम बच्चों को कैसा भविष्य देंगे यह एक पेचीदा सवाल बन गया है। विश्वभर के बच्चे किसी-न-किसी ख़तरे, पीड़ा या संकट से आतंकित हैं। आखिर हम उनके लिए कैसी दुनिया का निर्माण करने जा रहे हैं? एक बाल-रचनाकार का स्वयं का चिन्तन और उसके विचारों का फलक इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह न केवल अपने परिवेश, वरन् समाज के प्रत्येक पहलू से परिचित हो। उसे यह अहसास हो कि आज कौन-सा पहलू किस तरह से बच्चों को प्रभावित करता है।
महेन्द्रभटनागर प्रगतिशील कविता के प्रमुख हस्ताक्षर है। महेन्द्रभटंनागर की कविताएँ छोटी कक्षाओं से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक के विभिन्न संकलनों में समाविष्ट हैं, जिनका अध्ययन प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्नातक और स्तानकोत्तर कक्षाओं में होता है। ऐतिहासिक महत्त्व के अनेक काव्य-संकलनों में भी उनकी कविताएँ समाविष्ट हैं। ‘हँस-हँस गाने गाएँ हम!’ नामक बाल-कविताओं का संग्रह महेन्द्रभटनागर-विरचित है। सन् 1957 में प्रकाशित इस संकलन में सोलह कविताएँ समाविष्ट हैं – वर्षा, खेलें खेल, अच्छे लड़के, जागो, माँ, हम, काम हमारा, हमारा देश, हिमालय, दीपावली, सबेरा, बादल, चाँद, किशोर, हम मुसकराएंगे, महान् ध्रुव। महेन्द्रभटनागर इस संग्रह की भूमिका में लिखते हैं – ”प्रस्तुत कविताएँ हिन्दी भाषा का साधारण-ज्ञान-प्राप्त बालकों के निमित्त लिखी गयी हैं। कविताओं की भाषा सरल रखी गयी है और किसी भी ऐसे शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है जिसका उच्चारण बालकों के लिए दुरूह हो। आशा है, इनसे उनका मनोरंजन होगा और उनमें
महेंद्रभटनागर
महेंद्रभटनागर

राष्ट्रीयता के भाव पुष्ट होंगे। लेकिन मेरा उद्देश्य बालकों का मात्र मनोरंजन करना नहीं है। मैं चाहता हूँ कि वे इन कविताओं के माध्यम से कुछ नये शब्द भी सीखें। ऐसे शब्दों के अर्थ पीछे दे दिये गये हैं। बालक कविताएँ सुगमता से याद रख सकें, अतः उन्हें लम्बी होने से बचा लिया गया है। अधिकांश कविताएँ ‘बाल भारती’, और अन्य मासिक व साप्ताहिक पत्रों के बाल-स्तम्भों के अन्तर्गत समय-समय पर प्रकाशित और ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के विभिन्न केन्द्रों की बाल-सभाओं के कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रसारित हो चुकी हैं। कुछ कविताएँ ‘कुमारी प्रभा’ के छद्म नाम से भी छपी हैं।

बालक के धरती पर आने से बहुत पहले, उसका स्वागत करने प्र.ति धरती पर आ चुकी थी। प्र.ति में ध्वनि, लय-ताल और संगीत था। वनस्पति उगी तो सुर-ताल और भी समृद्ध हो उठे। उस समय तक भाषा और साहित्य का कहीं पता न था। किन्तु लय-ताल में शिशु-गीत तो थे। मौसम की कविताओं में वर्षा रहती है। वर्षा भी बाल-कविता का मनोरम विषय है। वर्षा की कविताओं में उमंग और हलचल ख़ूब रहती है। बादलों के नगाड़े बजते हैं। बिजली की चकाचौंध होती है। सर-सर हवा चलती है। झम-झम पानी बरसता है। गरमी भाग जाती है। मेढ़क बोलने लगते हैं। पंछी डोलने लगते हैं। नाव चलायी जाती है। बच्चे नहाने को मचलने लगते हैं। कूदने-उछलने लगते हैं और प्रसन्न हो गान गाने लगते हैं। महेन्द्रभटनागर के वर्षा-गीत में यही अभिव्यक्ति दृष्टव्य है :
सर-सर करती चले हवा, पानी बरसे झम-झम-झम !
आगे-आगे गरमी भागे, हँस-हँस गाने गाएँ हम !
मेंढ़क बोलें, पंछी डोलें, बादल गरजें जैसे बम !
नाव चलाएँ, ख़ूब नहाएँ, आओ कूदें धम्मक – धम !
इस प्रकार महेन्द्रभटनागर की बाल-कविता ‘वर्षा’ में बालक-मन का स्वाभाविक और सजीव चित्रण हुआ है। इस बाल-कविता में ध्वनि-सौन्दर्य से सम्बद्ध कई प्रकार की अभिव्यक्तियों के अभिदर्शन होते हैं। सर-सर, झम-झम सहज ध्वनि के उदाहरण हैं।
बच्चों के जीवन में खेल-कूद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। खेल-कूद से ही उनके शरीर और मस्तिष्क का विकास होता है। महेन्द्रभटनागर ‘खेलें खेल’ कविता में मिल-जुल कर खेल खेलने की सीख देते हैं। कभी वे छुक-छुक रेल बन जाते हैं। आँख-मिचौली, खो-खो खेलना, हाथ में हाथ लेकर हँसते हुए इधर-उधर दौड़ना-भागना, हार-जीत से बेपरवाह रहना, घर-दीवार से कूदना-फाँदना, रोज़ कसरत करना, ताक़तवर बनना, कभी बीमार न पड़ना इत्यादि का उल्लेख इस रचना में हुआ है। यथा –
छुक-छुक करती आयी रेल, आओ, हिल-मिल खेलें खेल !
आँख-मिचौनी, खो-खो और, दौड़ा-भागी सब-सब ठौर !
टिन्नू- मिन्नू- पिन्नू साथ, हँस-हँस और मिलाकर हाथ !
कूदें – फादें घर दीवार, चाहें जीतें, चाहें हार !
कसरत करना हमको रोज़,ताकतवर हो अपनी फौज !
सब कुछ करने को तैयार, नहीं कभी भी हों बीमार !
आपस में हम रक्खें मेल, छुक-छुक करती आयी रेल!
‘छुक-छुक….’ रेल की ध्वनि सर्वविदित है। महेन्द्रभटनागर का मन ध्वनि-सौन्दर्य से अनुप्राणित है और बाल-रुचि से अनुप्रेरित है।
कृति में महेन्द्रभटनागर का बाल-कविता’-रचना के प्रति आचार्यत्व प्रकट होता है। महेन्द्रभटनागर के मतानुसार बाल-कविता केवल बाल-मन की रुचि और रुचि-परिष्कार तक ही सीमित नहीं होती। उनके अनुसार बाल-जगत, बाल-जीवन, बाल-संकल्प, संघर्ष और आत्म-प्रेरित साहस के कार्य भी बाल-कविता के मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद सरोकार हैं। महेन्द्रभटनागर मानते हैं कि बाल-संस्कृति की छवि भी कविता में छलकती है और बाल-समाज में झलकती है। ‘अच्छे लड़के’ रचना में बाल-जीवन की दिनचर्या दर्शित है –
हम बालक हैं, हम बन्दर हैं, हम भोले-भाले सुन्दर हैं !
हर रोज सुबह उठ जाते हैं, मुँह धोकर बिस्कुट खाते हैं !
दो कप चाय गरम जब मिलती, तब यह सूरत जाकर खिलती !
फिर, पंडितजी से पढ़ते हैं,, हम नहीं किसी से लड़ते हैं !
माँ के कहने पर चलते हैं, ना रोते और मचलते हैं !
दिनभर हँसते-गाते रहते,भारत-माता की जय कहते !
हम रहते भाई मिल-जुल कर,हो भला हमें फिर किसका डर ?
संस्कार उकेरने में ‘अच्छे लड़के’ बाल-कविता की भूमिका बेजोड़ है। बच्चों के लिए भारत-माता के प्रति प्रेम दर्शाना कविता की विशेषता है जो बालकों में सांस्कृतिक चेतना उत्पन्न करता है। यह रचना बालकों में बड़ी लोकप्रिय है। वानर से अपनी तुलना पढ़ या सुनकर वे बेतहाशा हँसते हैं। बाल-वानर की तरह बालक भी शरारती और नक़लची होते हैं। महेंद्रभटनागर प्रशिक्षित अध्यापक हैं। वे बाल-मनोविज्ञान और शिक्षा-मनोविज्ञान के ज्ञाता हैं।
महेन्द्रभटनागर ‘जागो’ कविता के माध्यम से बच्चों को सीख देते हैं कि सुबह जल्दी उठना चाहिए। चिड़ियों के ‘चीं-चीं’ कर चहकने, तोते, गाय के जगने की तुलना करके काव्यकार जागने की बात कहता है और सुबह जल्दी उठ जाने के लाभ भी बताता है –
चहक रहीं है चिड़ियाँ चीं-चीं, तुमने अब क्यों आँखें मीचीं ?
हुआ सबेरा जागो भैया, जागा तोता, जागी गैया !
यदि जल्दी उठ जाओगे, तो खूब मिठाई पाओगे !
अम्मा ने चाय बनायी है, मीठा हलुआ भी लायी है !
खाना है तोबिस्तर छोड़ो, फौरन मुँहको धोने दौड़ो !
मानव अधिक समय तक अपने माता-पिता के पालन-पोषण और सुरक्षा पर निर्भर रहता है। माता बच्चों की जीवन-पाठशाला की प्रथम शिक्षिका है। माता अपनी संतान को राम, .ष्ण, सीता के समरूप मानती है। वह अपने बच्चों के पढ़-लिख कर सुयोग्य नागरिक बनने के सपने देखती है। माता अपने बच्चों को तरह-तरह के खेल सिखाती है और उनके मन में खेलने के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करती है। माँ की महत्ता का उजागरण महेन्द्रभटनागर-विरचित कविता ‘माँ’ में हुआ हैः
माँ ! तू हमको प्राणों से भी प्यारी है !
मीठा दूध पिलाती है, रोटी रोज़ खिलाती है
हँस-हँस पास बुलाती है, गा-गा गीत सुलाती है
दुनिया की सब चीज़ों से तू न्यारी है !
कहती हर रात कहानी, बातें अपनी पहचानी,
सुन जिनको हम खुश होते, सुख सपनों में जा सोते,
हे माँ! तुझ पर सब वैभव बलिहारी है !
बालक का मन मोम के समान होता है। उसे सुगठित कर सद्-गुण युक्त बनाने में बालगीतों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इसे किसी भी अवस्था में भुलाया नहीं नहीं जा सकता। राष्ट्रीय व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले और भावी नागरिकों में सद्-गुणों की स्थापना करने वाले गीत भी महेन्द्रभटनागर ने लिखे हैं। ‘हम’ कविता में बच्चों का संकल्प देखते ही बनता हैः
हम छोटे-छोटे भोले-भाले सारे बाल
पढ़-लिख पर जल्द बनेंगे वीर जवाहरलाल !
अच्छे-अच्छे काम करेंगे
नहीं किसी से जरा डरेंगे
दुनिया में कुछ नाम करेंगे
भारत-माता को कर देंगे हम मालामाल !
जन-जनका दुख दूर करेंगे,
सेवा हम भरपूर करेंगे
बाधा चकनाचूर करेंगे,
झूठे धोखेबाजों की नहीं गलेगी दाल !
इस बाल-रचना में मुहावरों के सहज प्रयोग से भाषा का सौष्ठव प्रभावक बन पड़ा है।
बाल-मन को समुचित दिशा देकर, उसे निर्माणात्मक और सृजनात्मक कार्यों में लगाने के लिए महेन्द्रभटनागर-रचित बालगीत ‘काम हमारा’ प्रेरित करता है। इस रचना में यथोचित रूप से उपदेश की मात्रा भी है। बालक की शब्द-सम्पदा को समृद्ध बनाने के साथ उसमें संकल्प-कथन के चातुर्य को भी विकसित किया गया है :
भारत की आशा हैं हम, बलवान, साहसी, वीर बनेंगे,
इसकी सीमा-रक्षा को हँस-हँस, सैनिक रणधीर बनेंगे!
हमको आगे बढ़ते जाना, हर पर्वत पर चढ़ते जाना,
भूल न पीछे पैर हटाना, इतना केवल काम हमारा !
कितना सुन्दर, कितना प्यारा !
भारत के दिल की धड़कन हम, थक कर बैठ नहीं जाएंगे,
भूख-गरीबी का युग जब-तक है, चैन न किंचित पाएंगे!
घर-घर में जा दीप जलाना, रोते हैं जो उन्हें हँसाना,
आज़ादी के गाने गाना, इतना केवल काम हमारा !
कितना सुन्दर, कितना प्यारा !
बच्चों के लिए यह कविता रोचक है। यह कविता महेन्द्रभटनागर के इस कथन का प्रमाण भी है कि अच्छा बालगीत आसानी से याद हो जाता है।
महेन्द्रभटनागर एक सजग राष्ट्रप्रेमी हैं। राष्ट्रप्रेमी का कर्तव्य होता है कि वह भारतीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने वाले बालगीतों को विस्मृत न होने दे। ‘हमारा देश ‘ बालगीत में महेन्द्रभटनागर देश की स्वतंत्रता का शंखनाद करते हैं। देश के कायाकल्प होने, धरती-माँ का वेश नया होने और बुरा अँधेरा बीत जाने की बात सहज ढंग से करते हैं :
आज हमारा देश नया है !
ये खेत हज़ारों मीलों तक, फैले हैं कितने हरे-हरे,
गेहूँ-मक्का-दाल-चने-जौ, चावल से सारे भरे-भरे !
धरती-माँ का वेश नया है !
इसमें चिड़ियाँ नीली-पीली, सित-लाल-गुलाबी गाती हैं,
ऊषा अपने गालों पर प्रति-दिन नूतन रंग सजाती है,
बुरा अँधेरा बीत गया है !
महेन्द्रभटनागर ने बाल-हृदयों में राष्ट्रीय एकता की भावना जाग्रत करने में अपने काव्य-कौशल का परिचय दिया है।
बालगीत की भावधारा को रेखांकित करने में महेन्द्रभटनागर का आचार्यत्च दृग्गोचर होता है। राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत, देशप्रेम और भावात्मक एकता को बल पहुँचाने वाले अनेक बालगीत ‘हँस-हँस गाने गाएँ हम!’ कृति में संगृहीत हैं। ‘हिमालय’बालगीत में कठिनाई या बाधाओं के सामने घुटने न टेक कर, साहस और शक्ति से आगे बढ़ते जाने का भाव निहित है। यहाँ राष्ट्र की धरोहर को बचाना भी काव्यकार का लक्ष्य है :
भारत-माँ का ताज हिमालय !
ऊँचा-ऊँचा नभ को छूता, युग-युग जगने वाला प्रहरी,
जगमग-जगमग करता जिसमें किरनों से मिल बर्फ़-सुनहरी,
तूफानों का या हमलों का जिसको न कभी भी लगता भय !
भारत-माँ का ताज हिमालय !
बहती जिसमें माला-सी, दो गंगा – यमुना की धाराएँ,
टकरा-टकरा कर छाती से जिसके जाती बरस घटाएँ,
हरी-भरी की धरती जिसने किया हमारा जीवन सुखमय !
भारत-माँ का ताज हिमालय !
इस बालगीत में हिमालय का माहात्म्य मुखर है। इस प्रकार महेन्द्रभटनागर ने राष्ट्रीय एकता का संदेश देकर सांस्कृतिक समुन्नयन में महनीय योग दिया है।
महेन्द्रभटनागर की मान्यता है कि बाल-संस्कृति की छवि गीत और बाल-समाज में झलकती है। पर्वों के अवसर पर अक़्सर बच्चे-जवान-बूढ़े प्रसन्नचित हो झूमते हैं, घूमते हैं और त्योहार मनाते हैं। त्योहार कविता का आधार बनते हैं। बालगीतों में ईद, बड़ादिन, दशहरा, दिवाली, होली आदि के रस-रंग उड़ते हैं। आनन्दित हो बच्चे गाते हैं। दीपावली और होली बालगीतों में छायी हुई हैं। इससे जहाँ इन त्योहारों की लोकप्रियता प्रकट होती है, वहीं अच्छे-अच्छे कवियों की क़लम का गौरव भी आकार लेता है। महेन्द्रभटनागर के ‘दीपावली’ नामक बालगीत के मार्मिक उद्गार द्रष्टव्य हैंः
जगमग-जगमग करते दीपक लगते कितने मनहर प्यारे,
मानों आज उतर आये हैं अम्बर से धरती पर तारे !
दीपों का त्योहार मनुज के अतंर-तम को दूर करेगा,
दीपों का त्योहार मनुज के नयनों में फिर स्नेह भरेगा!
धन आपस में बाँट-बूट कर, एक नया नाता जोड़ेंगे,
और उमंगों की फुलझड़ियाँ, घर-घर में सुख से छोड़ेंगे !
दीपावलि का स्वागत करने, आओ हम भी दीप जलाएँ,
दीपावलि का स्वागत करने, आओ हम भी नाचे गाएँ !
बालगीतों में ‘दीपावली’ एक प्रतीक बन जाती है – आनन्द और उल्लास का प्रतीक। महेन्द्रभटनागर इस प्रकार की प्रतीकात्मकता को बालगीत की विशेषता मानते हैं।
बालगीतों में सादृश्यमूलक अलंकारों – उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का बहुतायत में लेकिन भावार्थ बोधक प्रयोग होता है। मात्र अलंकार के लिए अलंकार का चमत्कार नहीं रचा जाता। मानवीकरण की छटा भी भाव-सौन्दर्य का बोध कराती है। महेन्द्रभटनागर-रचित ‘सुबह’ कविता का मानवीय व्यापार क्रमबद्ध और आकर्षक है। महेन्द्रभटनागर के अनुसार बालगीत-शिल्पन भी बालगीत की उत्कृष्टता की पहचान है –
हर रोज सबेरा होता है !
ज्यों ही दूर गगन में उड़कर यह काली-काली रात गयी-
झट सूरज पूरब से आकर बिखरा देता है धूप नयी!
जग जाता है ‘जिम्मी’ मेरा फिर और न पलभर सोता है !
चिड़ियाँ घर-घर में चीं-चीं शोर मचातीं, गाती आतीं,
सोई ‘जीजी’ को शरमातीं और जगाकर उड़-उड़ जातीं,
सब अपने कामों में लगते आराम सभी का खोता है !
टन-टन बजती घंटी चलते धरती पर जब दो बैल बड़े
देखो हल लेकर जाने को हैं, कितने पथ पर .षक खड़े,
खेतों में जाकर इसी समय ‘होरी’ नव फ़सलें बोता है !
हर रोज सबेरा होता है !
काली-काली रात का जाना, पूरब से नई धूप का बिखरना, चिड़ियों का चहचहाना, जीजी का शरमाना व काम में लगना, दो बैलों के चलने से घंटी का बजना, किसान का हल लेकर जाना और होरी का फ़सले बोना – ये सब बाल रुचि के वर्णन बाल-पाठक-मन पर अपूर्व छाप छोड़ते हैं।
आपसी मेल-मिलाप, समवेत स्वर में गायन और प्रसन्नता के रंग में विभोर हो जाना बच्चों की दुनिया का उजला पक्ष है। महेन्द्रभटनागर के अनुसार बालगीत यदि खुशियाँ न बाँट सके तो वह बालगीत कहाँ?
बालगीतों में भाव-सौन्दर्य के साथ शिल्प-सौन्दर्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। शिल्प-सौन्दर्य में अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश अलंकारों की छटा और तुकान्तों की लय मनमोहक होती है। पंक्तियों के अंत में तो लय का चमत्कार होता ही है, वह अंतरंग ध्वनि-सौन्दर्य में भी उपलब्ध होता है।
‘बादल’ बालगीतों म़ें क्या-क्या रूप-सिँगार भरते हैं! बादल क्यों आते हैं? बालगीत इसका रहस्य खोलते हैं। बादल भगीरथ का प्रसाद बाँटने आए हैं। रंग-बिरंगे बादल जब आते हैं तो लोग नाच उठते हैं। महेन्द्रभटनागर ‘बादल’ गीत में वर्षा-परिदृश्य को चित्रित करते हुए कहते हैं कि नदियाँ जल से पूर जाती हैं। बच्चों के हाथों में कागज़ की नावें होती है। सड़कों पर पानी और गलियों में दलदल, तालों पर मेंढ़कों की टर-टर, दीपकों पर उड़नेवाली दीमकों की फर-फर! ऐसे माहौल में जी भरकर झूला झूलने की चाहना बलवती हो जाती है! जब श्यामल बादल घुमड़-घुमड़ कर बरसते हैं, बाल-मन अपूर्व सुख का अनुभव करते हैं :
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ये घनघोर बरसते श्यामल-बादल !
निर्भय नभ में उमड़-घुमड़ कर छाए,
देख धरा ने नाना रूप सजाए,
स्वागत करने नव-वृक्ष उमग आए,
पल्लव-पल्लव में आज मची हलचल !
नदियाँ जल से पूर गयीं मटमैली,
गिट्टक-टिल्लू ने मिल होली खेली,
हाथों में कागज की नावें ले लीं,
सड़कों पर पानी, गलियों में दलदल !
तालों पर मेंढ़़क करते टर-टर-टर,
दीपक पर दीमक उड़ती फर-फर-फर,
आओ झूला झूलें जी भर-भर कर,
सुख पाएँ वर्षा का सब बाल-सरल !
ये घनघोर बरसते श्यामल-बादल !
भारतीय समाज और संस्कृति में प्रकृति एक नटी है। प्रकृति पूज्य देवी है। प्रकृति के साहित्यिक चित्रण में पेड़-पौधे, फल-फूल, नीड़, शस्य-श्यामल भूमि, चाँद आदि अनेक काव्य-केन्द्र हैं। प्रकृति विषयक बालगीतों में उन सब की पहचान उजागर होती है। ‘चाँद’ नामक बालगीत में महेन्द्रभटनागर चाँद की महत्ता इस प्रकार दर्शाते हैंः
चाँद आसमान में निकल रहा,
श्याम रूप रात का बदल रहा !
मुँह पुनीत प्यार से भरा हुआ,
मन सरल दुलार से भरा हुआ,
आ रहा किसी सुदेश से अभी,
मंद – मंद मुसकरा रहा तभी !
साथ रोशनी नयी लिए हुए,
वेश मौन साधु-सा किए हुए!
नींद का संदेश भेजता हुआ ,
स्वप्न भूमि पर बिखेरता हुआ,
दूर के पहाड़ से सरक-सरक,
झूल पेड़-पेड़ में, झलक-झलक,
और है न ध्यान, खेल में मगन,
सिर्फ एक दौड़ की लगी लगन !
आसमान चढ़ रहा बिना रुके,
ढाल और चढ़ाव पर बिना झुके !
चाँद का बड़ा दुरूह काज है,
व्योम का तभी न चाँद ताज है !
इस बालगीत में ध्वनि और रूप सौन्दर्य की कई प्रकार की अभिव्यक्तियों-झलकियों के दर्शन होते हैं। बालगीत जब चित्रात्मक बनते हैं तो अधिक मुग्धकारी हो जाते हैं।
प्रगतिशील चेतना और सामाजिक सरोकार को समर्पित ‘किषोर’ बालरचना को महेन्द्रभटनागर गंभीरता से लेते हैं और किसी भी प्रकार के वाद-प्रतिवाद से मुक्त रहते हैं। इससे बालगीत की साहित्यिकता प्रकट होती है। ‘किशोर’ बालगीत में महेन्द्रभटनागर किशोरों को आगे बढ़ने का संदेश देते हैं। शेर की दहाड़ के समान आसमान को फाड़ने की बात करते हैं। मातृभूमि की व्यथा-जलन हरने के लिए कहते हैं। मौत से नहीं डरते हुए, स्वतंत्र स्वर्ण नवप्रभात के प्रत्येक श़त्रु को पछाड़ने का आह्वान करते हैं। आँधियाँ कितनी भी डरावनी क्यों न हों, साहसी और शक्तिमान होकर, भूख-प्यास झेलते हुए, अथक रहकर, आगे बढ़ने का उद्घोष करते हैं :
शेर-से दहाड़ते चलो, आसमान फाड़ते चलो !
वीर हो महान देश हिंद के, विजय करो,
मातृभूमि की व्यथा-जलन समस्त तुम हरो,
देख मौत सामने नहीं डरो, नहीं डरो !
तुम स्वतंत्र-स्वर्ण नवप्रभात के हरेक शत्रु को पछाड़ते चलो !
देख आँधियाँ डरावनी नहीं, कभी रुको,
साहसी किशोर शक्तिमान हो, नहीं झुको,
भूख-प्यास झेलते बढ़ो, नहीं कभी थको !
राह रोकता मिले अगर कहीं पहाड़ तो उसे उखाड़ते चलो !
महेन्द्रभटनागर ‘हम मुसकराएंगे’ बालरचना में बच्चों को संकटों का सामना करते हुए सदैव मुसकराते रहने के लिए कहते हैं। तूफ़ान का सामना करते हुए, प्राण की परवाह न करते हुए, मातृभूमि के मान-सम्मान का ध्यान रखते हुए, देश की स्वाधीनता के गीत गाने की बात करते हैं। राह के सारे अवरोधों को, आत्मविश्वास के साथ, मिटा देने का आग्रह करते हैं। हृदय में अनेकता में एकता का भाव लिए, परिश्रमपूर्वक धरा पर स्वर्ग लाने का आह्वान करते हैं। काव्यकार, जगमग दीपों से प्यार करने वालों को फूलों का मधुर उपहार सँजोए, देखने के इच्छुक हैं। वे संसार के जन-जन को हँसता-विहँसता देखना चाहते हैंः
संकटों में भी सदा हम मुसकराएंगे !
हम करेंगे सामना तूफ़ान का
डर नहीं हमको तनिक भी प्राण का
ध्यान केवल मातृ – भू के मान का
देश की स्वाधीनता के गीत गाएंगे !
हो भले ही राह में बाधा प्रबल
हम रहेंगे निज भरोसे पर अटल,
एकता हमको बनाएगी सबल,
हम कड़े श्रम से, धरा पर स्वर्ग लाएंगे !
जगमगाते दीपकों से प्यार है,
पास फूलों का मधुर उपहार है,
लक्ष्य में हँसता हुआ संसार है,
एक दिन दुनिया सुनहरी कर दिखाएंगे !
भावात्मक स्तर पर विविधता में एकता का स्वर इन बालगीतों में मुखर हुआ है। के सरस गुण का परिचायक है। बालगीतों का कथन रस-स्तर पर न भी मानें तो भाव- स्तर पर तो वह साधारणीकृत होता ही है। महेन्द्रभटनागर के बालगीत सपाट सीधे उपदेश या अव्यावहारिक आदर्श या काल्पनिक मूल्यों की दुंदुभी नहीं बजाते, बल्कि बाल मनोनुकूल अर्थमय सत्ता प्रदान करने का प्रयास करते हैं। वे सहज शिक्षा का सरस रूप धारण करते हैं। जो बालक के मन को भाता है, उसके होठों पर गूँजने-बजने लगता है।
महेन्द्रभटनागर की बालरचना ‘महान् ध्रुव’ में संवादात्मकता एवं नाटकीयता के गुण उजागर हुए हैं। यह रचना पद्यकथा अथवा कथात्मक कविता है। प्रस्तुत रचना का कंथानक पौराणिक ग्रंथों के आधार पर है। (दृष्टव्य : ‘कल्याण’ का बालभक्त अंक)। बड़े कलात्मक कौशल से कवि ने सम्पूर्ण कथा को रोचक काव्य-आकार दिया है। तुक-सौन्दर्य के साथ-साथ आवेग शैली के प्रयोग ने कथा को प्रभावी प्रवाहयुक्त व आकर्षक बना दिया हैः
सुनीति और सुरुचि थीं राजा उत्तानपाद की दो रानी,
थी प्रिय अधिक सुरुचि राजा को
इससे वह करती रहती थी मनमानी।
ध्रुव की माँ थीं सुनीति और सुरुचि-पुत्र थे उत्तम,
दोनों शिशु खेला करते, थे राजा को प्रिय-सम !
एक दिवस शिशु उत्तम को गोद लिए खेलाते थे राजा,
और अचानक तभी वहाँ आये ध्रुव
देख, लगे चढ़ने अंक पिता के। उत्तम बोले, ‘आ जा।’
पर, रानी सुरुचि वहीं बैठी थीं,
जिनके भय से, ले न सके वे ध्रुव को गोद सदय से !
सौत-पुत्र ध्रुव से ईर्षा से बोली गर्वीली रानी –
‘हे ध्रुव ! तुमने इतनी-सी बात न जानी
हो तुम राजा के पुत्र सही पर, हो न योग्य राज्यासन के।
यदि पाना हो राजा की गोद तुम्हें,
तो जन्मो फिर से मेरे कोखासन से।’
खा चोट हृदय पर रानी के कटु वचनों की,
बालक ध्रुव तत्काल लगे रोने साँसें भर-भर !
राजा मौन रहे मानों ध्रुव हो पुत्र न उनका,
इतने अधिक सुरुचि के थे वश में
इतना अधिक उन्हें था उनका डर।
.
आहत ध्रुव रोते-रोते अपनी माँ के पास गये फिर,
माँ ने बेटे को दुलराया, सहलाया, रोने का पूछा करण,
पर, ध्रुव ने नहीं बताया कुछ, केवल रोते रहे, झुकाए सिर !
इस पर, समझायी सारी बात दासियों ने,
सुन, ध्रुव-माँ भी धीरज छोड़ लगी रोने !
फिर दुख से बोली -‘बेटा ! यह दुर्भाग्य हमारा है,
होनहार के आगे, अरे, न चलता कोई चारा है !
पर, तुम हिम्मत मत हारो, कुछ ऐसी युक्ति विचारो
जिससे पाओ ऊँचा पद – अचल-अटल
ऐसा कि जहाँ से हिला-हटा न तनिक भी पाये
देव दनुज मानव बल।’
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फिर माँ ने ध्रुव को युक्ति बतायी
‘बेटा ! मेरे मत में सब से ऊँचा-सत्य जगत में।
जिसने सत को पाय, उसका ही यश सब लोकों ने गाया!
तुम भी सत्य उपासक बन, पा सकते हो वह पद
जिसके आगे तुच्छ महत् राज्यासन!
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सुन चल पडे तभी बालक ध्रुव – करने पूरी माँ की बात,
भाग्य बदलने अपना, मधुवन में किया उन्होंने तप दिन-रात!
पाना सत्य – यही थी बस एक लगन,
सदा इसी में डूबा रहता उनका मन !
सत्य ज्ञान की ज्योति जगाना,
अज्ञान-तिमिर को दूर भगाना।
बना हुआ था लक्ष्य यही, पाना था उनको तथ्य यही।
पढ-लिख कर, गुरुओं से सुनकर, औश् जीवन में अनुभव कर
बुद्धि परिश्रम से जिसको पाकर छोड़ा,
ध्रुवने बचपन से ही जीवन की सुख सुविधाओं से मुँह मोड़ा,
तभी जगत में ध्रुव का नाम हुआ,
ज्ञान-ज्योति से ज्योतित उनका धाम हुआ,
ज्ञानी बनकर दुर्लभ पद पाया – जो जग में ध्रुव-पद कहलाया !
पूर्ण ज्ञान पाकर ध्रुव लौटे अपने घर !
राजा ने पहचानी अपनी भूल बड़ी!
आशीष-स्नेह देने सुनीति-सुरुचि खडीं,
स्वागत करने जनता उमड पड़ी !
देख प्रजा का प्रेम तोष,
उत्तानपाद ने ध्रुव को सौंप दिया साम्राज्य कोष।
पर, ध्रुव कोरे ज्ञानी बनकर नहीं रहे
जनहित अगणित काम किये औ कष्ट सहे।
माँ की आज्ञा से आदर्श गृहस्थ बने।
जन-पीड़क यक्षों को दंडित करने भीषण युद्ध किये।
विजयी, जन-प्रिय ध्रुव ने वर्षों तक राज्य किया!
जग से जो कुछ पाया वह सब जगे हित कर दान दिया!
माना, नहीं आज हैं ध्रुव-ज्ञानी,
पर है उनके यश की शेष कहानी
जिसको घर-घर में कहती माँ या नानी !
उत्तर नभ में जो सबसे चमकीला स्थिर तारा है,
लगता जो हम सबको बेहद प्यारा है,
वह अद्भुत बाल-तपस्वी ध्रुव का घर है !
वह जन-रंजक सम्राट तरुण-ध्रुव का घर है !
वह अनुपम ज्ञानी और विरागी ध्रुव का घर है !
मानव में मानव के प्रति ही नहीं पशु-पक्षियों के प्रति भी संवेदना जगाने में बालगीतों की भूमिका उल्लेखनीय रही है। जीवन-संग्राम में बालक साहस और धैर्य से परिस्थितियों का सामना कर सकें – प्रत्यक्ष या परोक्ष यही संदेश ‘महान् ध्रुव’ नामक बालरचना की कथा में है। आज के बालक जब बड़े होंगे तो वे चुनौतियों का सामना करने में टूटेंगे नहीं, झुकेंगे नहीं।
इस प्रकार महेन्द्रभटनागर की ये बाल रचनाएँ अच्छाइयों औ सच्चाइयों से साक्षात्कार कराती है। उनकी बाल-कविताओं का प्रमुख स्वर रहा है – जीने की चाह जगाना, मुसीबतों से जूझने की प्रेरणा भरना, साहस, आस्था, विश्वास का दीप बुझने न देना। महेन्द्रभटनागर की बाल कविता राष्ट्र को नई पहचान देती है। असल में काव्यकार की बाल-रचनाएँ ‘नौलखा-हार’ हैं। ये रचनाएँ संस्कृति और संस्कार के महत्त्व को रेखांकित करती हैं। निश्चय ही बाल-पाठक इन्हें पढ़ कर बेशक़ीमती मोती पाएंगे। महेन्द्रभटनागर की बाल-कविता में इंद्रधनुषी रंग हैं, जिनसे उनका अभिनव और मौलिक चिन्तन उभरता है। बाल-मन के जानकार महेन्द्रभटनागर की बाल-रचनाओं में ताज़गी, सादगी और सरसता का संचार हुआ है। आज के संकटग्रस्त-चुनौतीग्रस्त बालक-बालिका के कल्पनाशील मन को उद्घाटित करती हैं ‘हँस-हँस गाने गाएँ हम’ की कविताएँ। बाल-जगत को मायालोक से निकाल कर आज के चौतरफ़ा यथार्थ से जोड़ने की काव्यकार महेन्द्रभटनागर की विचारधारा उल्लेखनीय है।
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मंगल कलश,
394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड,
अलीगढ़ – 202001 (उ. प्र.)

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