भारत का शंखनाद – विचार मंथन


अद्भुत दृश्य था। अचरज से भरा नजारा था। आश्चर्य तो फिर होना ही था। अतुलनीय भारत की अमूल्य सांस्कृतिक परंपरा के इतने शानदार प्रदर्शन की शायद किसी ने उम्मीद नहीं की होगी। यह यकीनन मौलिक था क्योंकि अपना था। इसने सही शब्दों में भारत की विविधता को बेहतरीन ढंग से प्रदर्शित करते हुए यह प्रमाणित कर दिया कि अनगिनत सभ्यताएं युगों-युगों से एकसाथ रहते हुए भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकती हैं। यहां अनेकता में एकता की बात जाने-अनजाने ही मुखर हो रही थी। मौका था उन्नीसवें कॉमनवेल्थ गेम्स के दिल्ली में उदघाटन समारोह का। यह भारत है। भारतीय संस्कृति है। यही हिन्दुस्तान का आम आदमी और उसकी जीवनशैली है। विश्व की प्राचीनतम सभ्यता, जहां जीवन-मूल्य अभी बाजार में पूरी तरह बिके नहीं। खुशनुमा शाम की रौनक बता रही थी कि इस देश की हजारों साल पुरानी मान्यताएं अभी भी अपने मूल रूप में विद्यमान हैं। यह अपने इन्हीं संस्कारों के कारण विश्व को आज भी नैतिक नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखता है। प्राकृतिक योग विद्या, जिसने विश्व मानव को अध्यात्मिक ऊर्जा व उत्तम स्वास्थ्य का विशेष ज्ञान दिया, कि जड़ें यहीं हैं। यह भारत है, जो सिर्फ इसलिए कमजोर नहीं कहा जाना चाहिए कि वो नम्र है, सहिष्णु है, बल्कि इन गुणों के साथ इसमें आतिथ्य-भाव है। और इन मानवीय गुणों की आज आवश्यकता है। कबीलाई संस्कृति और सांप-सपेरे की दुनिया कहलाया जाने वाला भारत, आधा नंगा और भूखा नहीं है, जैसा समझा जाता है। वो हर क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ चुका है। हां, यह भी सत्य है कि आसमान में ऊंचे उड़ने पर भी हमने अपनी जड़ों को कभी नहीं छोड़ा, तभी तो आंधियों में उड़े नहीं, मजबूती से खड़े रहे। इन्हीं बातों को सत्यापित कर रही थी यह शाम, जहां भारत और इंडिया का एक जबरदस्त संयुक्त प्रदर्शन था। आधुनिकतम तकनीकी और विज्ञान का सफलतम प्रयोग जरूर किया गया था। मगर यह उपयोग मात्र था, विज्ञान की गुलामी नहीं। समय के साथ चलते हुए समय की मांग को पूरा करने का एक सफल प्रयास। अपनी पहचान की कीमत पर नहीं।
यह कार्यक्रम सिर्फ विदेशियों के लिए ही नहीं भारत के चंद मुट्ठीभर शहरों की आधुनिकतम पश्चिमी-शैली को जीने वालों के लिए भी कम आश्चर्य वाला नहीं रहा होगा। कइयों के लिए यह अकल्पनीय रहा होगा तो कइयों ने इस पर कटाक्ष भी किया था। तभी तो धीरे से यह बात अंग्रेजी मीडिया के कुछ वर्ग में चलाने की कोशिश की गयी थी कि कस्बाई संस्कृति को इतना दिखाने की क्या आवश्यकता थी? मगर इसे अधिक समर्थन नहीं मिला था, न ही मिलना था क्योंकि यही भारत की धड़कन है। फिर चाहे जितना कहा जाए कि हम आगे बढ़ चुके हैं, लेकिन असल में यही भारत का वास्तविक जीवन है। उसमें गरीबी का माखौल उड़ाता भौंडा प्रदर्शन नहीं था। बल्कि कम जरूरतों के साथ जीवन जीने का एक ढंग था, आनंद था, उमंग था, उत्साह था, स्पंदन था। हिप्प-हॉप, ब्रेक डांस और रॉक एंड रोल पर दिन-रात थिरकने वाली नयी पीढ़ी के लिए यह शुरुआत में थोड़ा अटपटा जरूर रहा होगा, मगर नगाड़ों और ढोल की गूंज के साथ तबले की थाप ने ऐसा लय बनाया कि हर एक के पांव नाच उठे। शरीर के साथ मन-मस्तिष्क भी मचल उठा, जब मेघालय के वांगला, उड़ीसा के कोया, महाराष्ट्र के गज्जा, असम के बिहू लोकनृत्य में बजने वाले नगाड़े और ढोल के साथ-साथ भारत का पंगचोलम और चेंदा ड्रम की तेज ध्वनि ने संपूर्ण वातावरण को मदमस्त कर दिया। ढोलू कुनिता, गाजा ढोल व पंजाबी ढोल के साथ बंगाल और मणिपुर के ड्रम ने ऐसा संगीतमय माहौल कर दिया कि जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम से हजारों किलोमीटर दूर सिल्वर स्क्रीन पर आदतन टकटकी लगाये रखने वाला दर्शक भी अपनी-अपनी जगह झूम उठा। भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के लिए बदनाम आयोजकों की इस दबंगता पर यकीनन हैरानी होती है। यह सब कुछ जानते और समझते हुए किया गया या जाने-अनजाने में ही सही, मगर एक सार्थक पहल हुई, जब भारतीय संस्कृति और सभ्यता का विश्वमंच पर अपने मूल रूप में खुलकर प्रदर्शन किया गया। वो भी तब जब तमाम मीडिया इंडिया की बात करता है, और चारों ओर पश्चिम संस्कृति का तेजी से फैलता असर दिखाया जाता है। यह सुनी-सुनाई बातें, मानो उस शाम रुकी हो न हो मगर उसका प्रवाह जरूर टूटा था। पिछले कुछ दिनों में बॉलीवुड, मीडिया और क्रिकेट के त्रिकोण ने भारत के बाजार को मिल-बांटकर लूटने की सफल कोशिश जरूर की है। मगर एक अकेली शाम इस प्रक्रिया से लोहा लेती प्रतीत हुई। शोर से त्रस्त हो चुके कानों को राहत मिली थी जब कार्यक्रम की शुरुआत शास्त्रों और परंपरा के अनुसार शंखनाद से हुई। जिस काल में चिड़ियों की चहचहाट के लिए भी मन तरस उठे, उसे चैन मिला जब प्राचीनतम व पारंपरिक वाद्ययंत्र को सुना। शंखनाद के साथ भारतीय नृत्य का प्रदर्शन एक ऐसी छठा बिखेर रहा था जिसे देखकर विश्व दातों तले उंगली दबा रहा होगा। गली-गली, गांव-गांव कुकुरमुत्ते की तरह पैदा हो चुके जिमनास्टिक-सा करते कमरतोड़ ब्रेक डांस के अनगिनत एकडमी व सिल्वर स्क्रीन पर तारों (स्टार्स) का अहसास कराने वाले रात के तथाकथित जुगनुओं ने इसे किस तरह लिया होगा, समझ पाना मुश्किल है। जब सात साल का नन्हा-सा बालक तबला वादक केशव हजारों नगाड़ों के साथ अपने तबले की थाप दे रहा था, उसके होंठों की मुस्कुराहट और चेहरे की उन्मुक्त मुस्कान के पीछे भारत का लंबा इतिहास मजबूती से खड़ा था। उसका आत्मविश्वास ही भविष्य का भारत है। उस पर कई माताओं ने नजर उतारी होंगी। भारतीय सौंदर्य शास्त्र ने आधुनिक पीढ़ी को सुंदरता का एक बार फिर पाठ पढ़ाया होगा। हिन्दुस्तानी वेशभूषाओं में नृत्य करती नृत्यांगना किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थीं। हरिहरण के गीत और संगीत में भारतीय संस्कृति के साथ-साथ उसकी आत्मा भी थी। नमस्कार की मुद्रा में कलाई में सुशोभित कंगन देख विदेशी मेहमान भी आत्मविभोर हो गए होंगे। हजारों छात्रों ने स्वागतम्‌ गीत के लिए दस मिनट तक जिस आकृति का प्रदर्शन किया वह एक समृद्ध और शक्तिशाली भारत का गायन था। सभ्यताएं और संस्कृति सभी विशिष्ट होती हैं और उन्हें अपनाने की हमारी परंपरा रही है मगर आंखें बंद कर पूरी तरह नकल करके असल को छोड़ देना, जड़विहीन वृक्ष बनने के समान है। पश्चिमी नृत्यशैली के कुछ चंद स्टेप्स पर डूब जाने वाली युवा पीढ़ी के लिए यह यकीनन आश्चर्य से भरा होगा कि भारत में नृत्यों की इतनी विविधता भी है। कत्थकली, कोडियाटम, कनियारकली, भरतनाट्यम, कत्थ्क में शरीर के साथ-साथ मन को भी नाचने के लिए मजबूर कर देने का सामर्थ्य है। ये केवल नृत्य नहीं नृत्यनाटिका है, जिसमें एक पूरी कहानी होती है। उत्तर पूर्व और दक्षिण लोकनृत्य के साथ-साथ भंगड़ा ने तो फिर विशाल जनसमूह को ऊर्जा से भर दिया था। सुदर्शन पटनायक जैसे मशहूर भारतीय कलाकार अपनी उंगलियों से रेत पर सजीव चित्रण मिनटों में उकेर सकते हैं, देखकर ब्रिटिश राजकुमार चार्ल्स भी हैरान लग रहे थे। विशाल कठपुतलियों की उपस्थिति हमारे बालमन को चंचल कर रही थी। हां, अंत में रहमान साहब का प्रदर्शन अपेक्षाओं में खरा नहीं उतर पाया। अपनी संगीत की गौरवपूर्ण विरासत को देखते हुए शायद हम उनसे अधिक उम्मीद करने लगे हैं। जबकि सच तो यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मशीनें, संगीत में आत्मा नहीं डाल सकती। ‘इंडिया बुला लिया’ में भारत पूरी तरह नदारद था।
कार्यक्रम में सिर्फ ग्रामीण भारत ही नहीं था, कस्बों की संस्कृति के जीवंत पन्ने भी खुले पड़े थे। मानव ट्रेन के द्वारा भारत-दर्शन एक कमाल की परिकल्पना थी। इसने मानो संपूर्ण भारत को मैदान में लाकर बसा दिया था। यहां चंद शहरों में बिखरे उंगलियों पर गिने जाने वाले मॉल नहीं थे बल्कि आम बाजार था। नुक्कड़ था। यहां लोहार था, ग्वाले थे, गलियों में होने वाले सर्कस व तमाशे थे। गांव के कुएं की पनघट के साथ चौपाल थी। जीवन के हर पहलू और रंग थे। नेता थे, अमीर थे, गरीब थे, नर्तक थे, कारीगर थे, खेत था, खलिहान था, दुकान थी, चक्की थी, बस थी, साइकिल और मिठाई की दुकान थी, चौराहे पर बिकने वाले खेल-खिलौने थे। यहां किसी प्रकार की हीनभावना नहीं बल्कि भारत की दुनिया से खुलकर मुलाकात हो रही थी। सबसे बड़ी बात यह कि संपूर्ण कार्यक्रम टीवी और बॉलीवुड की कृत्रिम चमक से दूर था। यहां परदे पर दिखाया जाने वाला सात परतों के मेकअप के साथ सजा-धजा नकली भारत का चेहरा नहीं था। सबसे बड़ी अचरज वाली बात थी कि यहां दर्शकों को लुभाने वाली बॉलीवुड की अर्द्धनग्न नायिकाएं और नौटंकीबाज नायक नहीं थे। यहां पर एक असली भारत था। जो तेजी से आगे बढ़ रहा है अपनी पहचान के साथ। चारों दिशाओं में। यह सिलसिला खेलों में भी जारी है। फुर्तिला व कलात्मक बैडमिंटन से लेकर ताकतवर कुश्ती-मुक्केबाजी में भारत तेजी से विश्वपटल पर उभरा है। निशानेबाजी में तो फिर हम विश्वचैंपियन हो रहे हैं। तभी तो हमारी निगाहें मंजिल की ओर पूरी तरह केंद्रित है और तीर निशाने पर ही होगा। यह भारत का शंखनाद है जिससे विश्व गूंजायमान हो उठा।
मनोज सिंह
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