नैतिकता का अवमूल्यन/विचार मंथन

मनोज सिंह
एक विज्ञापन को देखा तो पहले पहल तो चौंका फिर हैरानी हुई, और फिर बहुत देर तक सोचने के लिए मजबूर हुआ था। एक व्यक्ति समय से पूर्व अपने घर अचानक वापस आता है तो पति को देख गृहिणी घबरा जाती है। भूले हुए सामान को लेने के लिए वही व्यक्ति जब अपनी अलमारी खोलता है तो अंदर किसी अनजान युवा को छिपा हुआ पाता है। पीछे गृहिणी भयभीत है और गलती पकड़े जाने का डर चेहरे पर साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है। उस व्यक्ति का एक मिनट के लिए भौचक्का हो जाना स्वाभाविक है। इसी बीच वह छिपा हुआ युवा उपभोग के किसी सामान की विशेषता के बारे में बताना शुरू करता है। और उसकी खूबियों को दिखाते-समझाते वह यह बताना नहीं भूलता कि मैं उस महिला के सामने अलमारी में छिपकर यही सिद्ध कर रहा था। और इस तरह बातों ही बातों में वह अपने सामान की दूसरी विशेषता बताते हुए उस घर के स्वामी को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है और फिर धीरे से वहां से रफूचक्कर हो जाता है। घर का स्वामी अंत में उसकी बातों से पूरी तरह से सहमत होते हुए दिखाया गया है और यही नहीं उस सामान को खरीदने के लिए प्रेरित भी हो चुका है। उधर, गृहिणी का चेहरा अब सामान्य हो चुका है तो घर में घुस आया युवा जाते-जाते अपनी चतुराई साबित करने में सफल दिखाया गया है। एक और विज्ञापन आजकल बहुत प्रसारित किया जा रहा है जिसमें युवतियों को अपने प्रेम-प्रसंगों के बारे में चर्चा करते हुए फोन पर सुना जाता है। एक स्थान पर वह अपने प्रेमी को घर आने के लिए आमंत्रित कर रही है तो दूसरे दृश्य में वह अपने किसी वरिष्ठ के अनैतिक संबंधों के बारे में किसी के साथ बातचीत में व्यस्त है। इस दौरान पास में बैठा एक अति उत्साही युवक उसकी बातों को सुनने के लिए प्रयासरत दिखाया गया है। आजकल एक चित्र विभिन्न नेटवर्किंग साइटों और मीडिया में भिन्न-भिन्न रूप में आम दिखाया जाता है। जिसमें एक युवा जोड़े को गले मिलते हुए दिखाया गया है मगर वहीं युवती का हाथ युवक के पीछे खड़े एक और व्यक्ति के हाथ में है। इसी मानसिकता के कई और भी विज्ञापन मिल जायेंगे। यही नहीं, फिल्मी नायक-नायिकाओं के बीच विभिन्न स्तर के नैतिक-अनैतिक संबंधों को लेकर पहले मीडिया में उत्सुकता पैदा की जाती है और फिर उत्तेजना की हद तक उसे फैलाया जाता है। यह आज प्रचार-प्रसार का प्रमुख अस्त्र-शस्त्र बनता जा रहा है। और तो और, हास्य और व्यंग्य के अनगिनत कार्यक्रमों में भी हंसाने के लिए अब सिर्फ अनैतिक संबंधों, भौंडापन और अश्लील व निम्न स्तर की बातों का खुलकर प्रयोग होने लगा है।
यहां सवाल उठता है कि विज्ञापनों का प्रभाव क्या सिर्फ सामान या सेवा बेचने तक ही सीमित होता है? उपरोक्त बातों का उद्देश्य क्या सिर्फ मनोरंजन है? शायद नहीं। और अगर हो भी तो क्या उसे इतना स्तरहीन होना चाहिए? नहीं। चूंकि यहां हमें यह मानना होगा कि उपभोग के सामान बेचने के लिए भी एक कहानी बुनी जाती है। जिमसें से एक संदेश निकलता है। जिसको अच्छी-बुरी दृष्टि से पढ़ा-समझा जा सकता है। शब्दार्थ से लेकर भावार्थ तक विचारों की लंबी श्रृंखला होती है। यकीनन यह पाठक और दर्शक पर अपनी-अपनी तरह से असर डालते हैं। यह बनाने वाले की मानसिकता को तो दर्शाता ही है उसकी सोच को भी प्रदर्शित करता है। मगर जाने-अनजाने ही समाज की प्रवृत्तियों को भी बता जाता है। और उसे बढ़ावा भी देता है। ठीक उसी तरह से जिस तरह से, विज्ञापन से समाज में खरीदारी की आदतें पड़ती हैं या फिर आम जनता की जरूरतों के हिसाब से विज्ञापन बनाये जाते हैं? यह एक तरह से प्रश्नों का कुचक्र है। जिसका सीधे-सीधे जवाब तो नहीं दिया जा सकता, मगर यह एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े हुए हैं, और एक-दूसरे के लिए प्रेरक का काम करते हैं, सीधे-सीधे तौर पर कहा जा सकता है। 
बाजार में विज्ञापन एक आवश्यक माध्यम है लेकिन क्या सफलता के लिए इसका उपयोग किसी भी हद तक किया जाना चाहिए? फिल्मों को सफल बनाने के लिए क्या किसी भी स्तर तक खबरों में गिर जाना चाहिए? सवाल उठता है कि हंसने के लिए किसी का मजाक उड़ाना, नीचा दिखाना क्या आवश्यक है? अब तो कई नायक-नायिका सुर्खियों में रहने के लिए अपने संबंधों को खुद हवा देते हैं। इसे बीमार मानसिकता का नाम दिया जाना चाहिए। क्या यह एक किस्म का भौंडापन नहीं है? यहां सीधे-सीधे अनैतिकता है। ऐसा नहीं कि अच्छा रचनात्मक एवं सकारात्मक सृजन नहीं हो रहा मगर उपरोक्त किस्म की रचनाओं में अचानक वृद्धि हुई है। पहले भी इस तरह की निम्नता होती थी। मगर इस हद तक खुलकर नहीं। मनुष्य के अवगुण सदा साथ रहे हैं। मगर कभी समाज ने उसे सार्वजनिक स्तर पर स्वीकार नहीं किया था। कम से कम इसे प्रचारित नहीं किया जाता था। प्रेम का मनुष्य के जीवन में जन्म-जन्मांतर से संबंध है। हमारे शास्त्र इसके बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं और कामशास्त्र की अपनी एक महत्ता रही है। मगर यही सेक्स जब विकृत और विचारहीन हो जाता है तो समाज को रोगग्रस्त करता है। यूं तो अनैतिक संबंध पहले भी हुआ करते थे मगर तब उसे समाज में छिपाया जाता था। उसकी सामाजिक स्वीकृति नहीं हुआ करती थी। बल्कि ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्साहित किया जाता था। घटिया और हल्का साहित्य पहले भी उपलब्ध होता था। लेकिन इसे छिपकर पढ़ा जाता था। मगर आज तो इसे विज्ञापित किया जा रहा है। स्त्री-पुरुष संबंध तो प्राकृतिक रूप से सर्वत्र एक समान ही है मगर प्रदर्शन के तरीके उसे अच्छे और बुरे में परिवर्तित कर देते हैं। नारी का सौंदर्य और प्रेम-रस पूर्व में भी था। उसके श्रृंगार का विस्तार से जितना वर्णन हिंदी साहित्य में हुआ है ऐसा कहीं और दिखाई नहीं देता। मगर जब इसे नग्नता में परिवर्तित कर दिया जाता है तो उसका प्रभाव प्रदूषित करता है। कला में अश्लीलता आते ही समय के पैमाने पर यह अस्तित्वहीन हो जाता है।
असल में मनुष्य तो मूल रूप से जानवर ही है। उसकी सदा इच्छा करती है कि वह हर दूसरी नारी के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करे। उसकी चाहतों का कोई अंत नहीं। उसके वहशीपन की कोई सीमा नहीं। मगर इसके अपने दुष्परिणाम हैं। समाज की स्थापना के मूल में मनुष्य के इन अवगुणों को नियंत्रित करना ही प्रमुख था। उसकी इच्छाओं और भावनाओं को नियमित एवं सीमित करना आवश्यक था। यहां अच्छे और बुरे को परिभाषित किया गया। समाज की स्थापना ही इसलिए हुई कि सब कुछ सबके लिए समान व व्यवस्थित किया जाये। ऐसे में फिर व्यवस्था के लिए नियम-कायदे-कानून तो होंगे ही। वे हर क्षेत्र में बनाये गये। चाहे वो फिर सामाजिक हों, राजनीतिक हो, निजी हों। ध्यान से देखें तो हर एक के पीछे कोई न कोई कारण साफ-साफ दिखाई देते हैं। यकीनन मनुष्य में अंदर की पशुता को रोकने एवं प्रबंधित करने के लिए ही नैतिकता की बात सामने आई होगी। सवाल उठता है कि क्या हम इस नैतिकता को पुनर्स्थापित और नये ढंग से परिभाषित करना चाहते हैं? अगर हां तो फिर समाज को उसके परिणामों के लिए भी तैयार रहना होगा। परिवार का विघटन, तलाक, हत्याएं, बलात्कार ऐसे कुछ उदाहरण यहां दिये जा सकते हैं जिसे हमें स्वीकार करना होगा। मगर सत्य तो यह है कि असमाजिकता व अराजकता के बढ़ते ग्राफ से हम सब चिंतित हैं।
मेरे मन में पश्चिमी संस्कृति के खुलेपन को लेकर एक जिज्ञासा जाग्रत हुई थी। जैसा हमारे यहां बतलाया जाता है, क्या यह सच है? जानने की इच्छा हुई थी। वहां पर रहने वाले मित्रों से पूछने पर पता चला कि वे भी अपने व्यक्तिगत रिश्तों के मामले में उतने ही सजग, सतर्क और संवेदनशील हैं। गहराई से पूछने पर पता चला कि विवाह पूर्व चाहे जितने संबंध रहे हों, जिस भी स्तर के हो, मगर विवाह में बंधने के बाद वे पूरी तरह से समर्पित जीवन साथी की अपेक्षा करते हैं। यही नहीं, ऐसा न होने पर तुरंत तलाक भी देने को तैयार हो जाते हैं। वे इस बिंदु पर अत्यंत क्रियाशील हैं। और धोखे को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते। इन तथ्यों ने मुझे चौंकाया था और भारतीय समाज में पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने मुझे चिंतित किया था। असल में हम मानवीय मूल गुणों से भटक रहे हैं। रिश्तों में विश्वास दोनों पक्ष को चाहिए। यह दीगर बात है कि आदमी ही नहीं औरतों में भी बराबर से कमजोरी रही है। लेकिन सवाल उठता है कि हम उसी कमजोरी को दिखाकर क्या प्रदर्शित करना चाहते हैं? क्या उपरोक्त विज्ञापन इस बात के प्रमाण हैं कि हम उसमें निहित अर्थ को स्वीकार कर रहे हैं? या फिर, क्या हम यह कहना चाहते हैं कि ऐसा हमारे समाज में अब आम हो गया है? और कुछ हो न हो इस तरह के विज्ञापन आधुनिक महिला की गलत छवि को प्रदर्शित करते हैं। यहां चतुर-चालाक बदमाश व्यक्ति का आराम से खुशी-खुशी निकल जाना और घर के स्वामी को बेवकूफ बनते हुए दिखाकर हम पता नहीं क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या हम अपने समाज का यही चरित्र प्रस्तुत करना चाहते हैं?
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभावआदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
 

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