भिखारी

भिखारी

राहों में मिला जो एक भिखारी
ऑखें उसने मेरी नम कर दी
हाथ-पैर नहीं थे उसके
यूँ घिसटकर चलता था
जैसे अपने लोथ के नीचे
श्वेता सिंह चौहान
श्वेता सिंह चौहान
सारा जग झुकाता था
उसने कुछ पैसे थे मांगे
भूखा पेट दिखाया था
पैसे कुछ दिए थे मैंने 
अगले दिन फिर आने का वादा किया था
सारे सुख की नींद थे सोते
वो जागता रहता था
भूखे पेट न नींद भय्यसर
नंगा था सिर,नंगा शरीर 
ठंड भी उसको लगती होगी
उसकी बहुत फिक्र थी होती
सबेरे जब मैं देखने पहुँची 
भीड़ ने उसको घेरा था
भूख और ठंड का मारा
सारे जग से जो था सताया 
वो बेचारा जग के मालिक से
अपना कसूर पूछने कब का
इस बेरहम जग को छोड़कर 
ऊपर बहुत ही ऊपर जा चुका था!
अफसोस की कुछ भी कर न सकी
पहली बार जीवन में लेकिन 
शमॅ आया इंसान होने पर
इंसानियत तो शमॅसार हुई अवश्य 
पर बेकार वो शमॅ,
वो इंसानियत जो काम किसी के आये न!

यह रचना श्वेता सिंह चौहान जी द्वारा लिखी गयी है . आप अध्यापिका के रूप में कार्यरत है और स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में संलग्न हैं . 

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