मनुस्मृति कालीन राजधर्म
सतयुग-त्रेता-द्वापर-कलियुग
राजधर्म के सिवा कुछ नहीं
राजा हीं सर्वदा से होता रहा
स्व आचरण वश चारों युग!
मनुस्मृति कालीन राजधर्म |
उद्यमरहित सुप्त राजा कलि,
जाग्रत-अकर्मण्य द्वापर छलि,
उद्यमशील त्रेता, कार्य निपटा
स्वछंद बिचरे जो सतयुग बली!
इन्द्र-सूर्य-वायु-यम-वरुण-चन्द्र-
अग्नि-भूमि सम व्रतवीर होना
सार्वकालिक राजा का राजधर्म!
इन्द्रसा बरसात में जन मन को
सींचो स्नेह जल को बरसा कर
अर्क किरण ज्यों खींचे जलकण!
अष्ट मास तक करो कर ग्रहण,
प्राणवायु सा विचरो सदा सर्वत्र,
निर्वाहन करो दूतों पर वायुव्रत
मित्र-शत्रु में बिना भेदभाव का!
बनो दण्ड धर धर्मराज के जैसा,
वरुण फांस सदृश दृश्यमान यश
पारदर्शी होना चाहिए राजा का!
पूर्ण चंद्र सा प्रसन्न मुख मंडल,
पापी मंत्री को दहकाए अनलसा!
पृथ्वी सा सम भावी रहकर बने
राजा सदा हितकारी प्रजावत्सल!