मन की स्वच्छता भी जरूरी

पर्यावरण के साथ मन की सफाई भी जरुरी 
गाँधी जयंती पर विशेष 

मन की स्वच्छता भी जरूरी पर्यावरण के साथ मन की सफाई भी जरूरी – प्रकृति मानव व्यवहार को दर्शाती है। सत्य, शुद्धता, शांति, प्रेम और सम्मान जैसे मानव आत्मा के जन्मजात गुणों का उल्लंघन प्राकृतिक कानून और व्यवस्था का उल्लंघन है। जैसे-जैसे आंतरिक सद्भावना ने प्रकृति की शक्तियों के बीच सद्भाव को बाधित किया , वह भी परेशान हो गया। मानव हृदय में जहर की भावनाओं ने  पृथ्वी पर हवा, पानी और मिट्टी को जहर भर दिया है। बाहर की सभी गंदगी एक दाग मानव आत्मा का प्रतिबिंब है। 
डोम की अपवित्रता से भागते आदि शंकराचार्य से जब डोम ने उन्हीं की शब्दावली में सवाल किया कि अपवित्र क्या है? अगर शरीर अपवित्र है तो वह तो नश्वर है और आत्मा जो कि अजर और अमर है वह कैसे अपवित्र हो सकती है? इसलिए डोम का सवाल था कि वे किसे अपवित्र समझ कर भाग रहे हैं शरीर को या आत्मा को?  इस सवाल ने शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया और उऩ्हें डोम से नए प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति हुई।
निरोग शरीर में निर्विकार मन का वास होता है। जिन महात्मा गाँधी के जन्म दिवस पर स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया वही महात्मा स्वास्थ्य का नियम बताते हुए कहते हैं, मनुष्य जाति के लिये स्वास्थ्य का पहला नियम यह है कि मन चंगा तो शरीर भी चंगा है। गांधी जी ने स्वच्छता को, स्वतंत्रता से भी ज्यादा जरूरी बताया। मैला साफ करने को खुद अपना काम बनाया। गांवों में सफाई पर विशेष लिखा और किया। कुंभ मेले में शौच से लेकर सुर्ती की पीक भरी पिचकारी से हुई गंदगी से चिंतित हुए।गांधी जानते थे कि यदि कचरे का निष्पादन उचित तरीके से न हो, तो ऐसा निष्पादन पर्यावरण का दोस्त होने की बजाय, दुश्मन साबित होगा।’प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी. वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है. अपना ही भारी नुकसान कर सकता है. इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए. ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। 
गांधीजी ने मेरे सपनों के भारत’ पुस्तक में सफाई और खाद पर चर्चा करते हुए लिखा  –”इस भंयकर गंदगी से बचने के लिए कोई बड़ा साधन नहीं चाहिए; मात्र मामूली फावड़े का उपयोग करने की जरूरत है।”संयम, सादगी, स्वावलंबन और सच पर आधारित और सही मायने में सभ्य और सांस्कारिक उनका जीवन दर्शन, पर्यावरण की वर्तमान सभी समस्याओं के समाधान प्रस्तुत कर देता है। एकादश व्रत भी एक तरह से मानव और पर्यावरण के संरक्षण और समृद्धि का ही व्रत है। ”प्रकृति हरेक की जरूरत पूरी कर सकती है, लेकिन लालच एक व्यक्ति का भी नहीं।” जब गांधी यह कहते हैं, तो इसी से साथ आधुनिकता और तथाकथित विकास के दो पगलाये घोङों के हम सवारों को लगाम खींचने का निर्देश स्वतः दे देते हैं।
मन और शरीर के बीच अटूट सम्बन्ध है। अगर हमारे मन निर्विकार यानी निरोग हों, तो वे हर तरह से हिंसा से मुक्त हो जाये, फिर हमारे हाथों तंदुरुस्ती के नियमों का सहज भाव से पालन होने लगे और किसी तरह की खास कोशिश के बिना ही हमारे शरीर तन्दुरुस्त रहने लगे। 
अगर झाड़-पोंछ न की जाए तो घर के कोने-कोने में धूल जम जाती है। ठीक इसी तरह हमारे रिश्ते-नातों पर अनजाने में सिलवटें पड़ जाती हैं। वक्त के साथ उन पर धूल की परतें भी जम जाती हैं। वजह कुछ भी हो सकती है। समय-समय पर यदि हम अपने रिश्तों पर जमी धूल साफ करते रहें तो प्यार और मिठास बनी रहती है।कोई भी जान-बूझकर एक-दूसरे की उपेक्षा नहीं करता है, लेकिन रिश्तों में गर्माहट भी नहीं है। यह कहां खो गई है? कई बार हम ऑफिस के लोगों से सोशल साइट्स पर खूब बात करते हैं, लेकिन मिलने पर अनजाने व्यक्ति की तरह एक-दूसरे को अनदेखा कर देते हैं।
गाँधी स्वास्थ्य को न केवल भौतिक स्वच्छता से जोड़ते हैं बल्कि वह आन्तरिक स्वच्छता के पहलू को भी यहाँ
महात्मा गांधी
महात्मा गांधी

रेखांकित करते हैं। उनका यह विचार निम्न पंक्तियों में प्रतिबम्बित होता है। मेरी राय में जिस जगह शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई हो तथा युक्ताहार और योग्य व्यायाम हो, वहाँ कम-से-कम बीमारी होती है और अगर चित्तशुद्धि भी हो तब तो कहा जा सकता है कि बीमारी असम्भव हो जाती है।

एकल होते परिवारों के कारण मवेशियों की घटती संख्या और परिणामस्वरूप घटते गोबर की मात्रा के कारण जैविक खेती पहले ही कठिन हो गई है। कचरे से कंपोस्ट का चलन अभी घर-घर अपनाया नहीं जा सका है। कचरा निष्पादन हेतु गांधी जी ने कचरे को तीन वर्ग में छंटाई का मंत्र बहुत पहले बताया और अपनाया था: पहले वर्ग में वह कूड़ा, जिससे खाद बनाई जा सकती हो। दूसरे वर्ग में वह कूड़ा, जिसका पुर्नोपयोग संभव हो; जैसे हड्डी, लोहा, प्लास्टिक, कागज़, कपड़े आदि। तीसरे वर्ग में उस कूड़े को छांटकर अलग करने को कहा, जिसे ज़मीन में गाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। कचरे के कारण, जलाशयों और नदियों की लज्जाजनक दुर्दशा और पैदा होने वाली बीमारियों को लेकर भी गांधी जी ने कम चिंता नहीं जताई।गांवों की इसी समस्या को देखते हुए डा राम मनोहर लोहिया ने पचास के दशक में ही गांवों में महिलाओं के लिए शौचालय बनाने को अपनी पार्टी का एजेंडा बना रखा था। गांवों की यह समस्या अर्द्धग्रामीण तरीके से शहरों में रह रहे समाज में भी है। दिल्ली झुग्गियों की 66 प्रतिशत महिलाओं को शौच जाते समय छेड़खानी की समस्या का सामना करना पड़ता है, 46 प्रतिशत को बाकायदा रोका जाता है और 30 प्रतिशत पर हमला होता है।समाचारों के अनुसार अकेले देश की 2014 में प्रकाशित एक खबर के अनुसार मुम्बई में पिछले छह वर्षों में टीबी से 46,606 लोगों की जाने जा चुकी थी। अर्थात देश की आर्थिक राजधानी में केवल टीबी से प्रत्येक दिन 18 लोग अपना दम तोड़ रहे हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर, यूपी के गोरखपुर क्षेत्र व पश्चिम बंगाल के उत्तरी क्षेत्रों में जापानी बुखार लगातार बच्चों की मौत का कारण बनता रहा है।
स्वच्छता सभी मानव आत्माओं के मूल शुद्ध अवस्था से जुड़ा हुआ है। स्वर्ग या सत्ययुग में कचरा डिब्बे और कचरा डंप की कल्पना करना मुश्किल है। हम जमीन की जगह को साफ करने का प्रयास कर सकते हैं लेकिन प्रदूषित हवा, पानी और मिट्टी की सफाई के बारे में क्या? इस विनम्र कार्य को हासिल करना कैसे संभव है?
सफाई और मानसिक द्वन्द का  वितृष्णापूर्ण दृश्य फिल्म स्लमडाग़  मिलेनेयर में है। वहाँ बच्चा मलकुंड में कूदकर जब बाहर आता है तो किसी भी मनुष्य क्या जानवर की भी संवेदना को झकझोर देने के लिए पर्याप्त होता है। बच्चों के साथ जुड़े गंदगी के उस दृश्य का वास्तविक विस्तार हम तब देख सकते हैं जब सीवर साफ करने के लिए किसी सफाई कर्मचारी को मेनहोल में उतारते हैं और उसके पहले उसे शराब भी पिला देते हैं। ताकि उसकी चेतना मंद पड़ जाए।
इससे वह कभी अपना काम कर डालता है तो कभी कमजोर चेतना और उपकरणों के अभाव में जहरीली गैस की चपेट में आकर वहीं दम तोड़ देता है।
अतः गांधी जयंती पर स्वच्छता, सेहत, पर्यावरण, गो, गंगा और ग्राम रक्षा से लेकर आर्थिकी की रक्षा के चाहने वालों को पहला संदेश यही है कि गांवों में ‘घर-घर शौचालय’ की बजाय, ‘घर-घर पानी निकासी गड्ढा’ और ‘घर-घर कंपोस्ट’ के लक्ष्य पर काम करें। 
हम किस प्रकार के पर्यावरण का निर्माण करते हैं, हम किस तरह के रूपों को हमारे चारों ओर रखते हैं और जिस प्रकार की संरचनाएं या पर्यावरण या अंतस हम धारण करेंगे वह हमारे व्यक्तित्व पर एक अद्भुत प्रभाव डालते हैं। अगर हम जिस तरह से बैठते हैं,  जिस तरह से हम अपने आप को व्यवस्थित करते हैं और जिस तरह से हम अपने आस-पास की चीजें रखते हैं, उसके बारे में थोड़ी अधिक जागरूकता है,तो हम स्थानिक व्यवस्था को ऐसे तरीके से बना सकते हैं जो भीतर की ओर देखने के लिए अनुकूल है, और जो हमारी आध्यात्मिक प्रक्रिया को बहुत अधिक सरल बना देगा । यदि आप बिंदु ए से बिंदु बी तक ड्राइव करना चाहते हैं, तो आप शायद कैसे  भी ड्राइव कर सकते हैं, लेकिन यदि कोई उचित सड़क निर्धारित की जाती है, तो आप आसानी से वहां पहुंच जाएंगे। उस संदर्भ में, यदि हमारे आस-पास की स्थानिक व्यवस्था इस तरह से व्यवस्थित की जाती है कि यह अंतस में दिखने के लिए अनुकूल है, तो यह हमारी आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगी। 
आध्यात्मिक जीवन शैली शुद्धता, सम्मान, संतुलन और सद्भाव पर आधारित है। जब हम अपने दिमाग को व्यवस्थित करना सीखते हैं तो हम भी एक सरल और शुद्ध जीवन जीने लगते हैं। सहज मूल्यों और आध्यात्मिक पहचान के बारे में जागरूक होने के साथ-साथ भगवान के शुद्ध स्मरण में जुड़े रहने से  मस्तिष्क , दिल और दिमाग को शुद्ध करने में मदद मिलती है। आत्मा की आंतरिक सफाई ही बाहरी स्वच्छता की अनुनायक  है।

– सुशील शर्मा 

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