माँ , अब मैं समझ गया

1. माँ , अब मैं समझ गया
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                                                               — सुशांत सुप्रिय

मेरी माँ
बचपन में मुझे
एक राजकुमारी का क़िस्सा
सुनाती थी

राजकुमारी पढ़ने-लिखने

घुड़सवारी , तीरंदाज़ी
सब में बेहद तेज़ थी

वह शास्त्रार्थ में
बड़े-बड़े पंडितों को
हरा देती थी

घुड़दौड़ के सभी मुक़ाबले
वही जीतती थी

तीरंदाज़ी में उसे
केवल ‘ चिड़िया की आँख की पुतली ‘ ही
दिखाई देती थी

फिर क्या हुआ —
मैं पूछता

एक दिन उसकी शादी हो गई —
माँ कहती

उसके बाद क्या हुआ —
मैं पूछता

फिर उसके बच्चे हुए —
माँ कहती

फिर क्या हुआ —
मैं पूछता

फिर वह बच्चों को
पालने-पोसने लगी —
माँ के चेहरे पर
लम्बी परछाइयाँ आ जातीं

नहीं माँ
मेरा मतलब है
फिर राजकुमारी के शास्त्रार्थ
घुड़सवारी और
तीरंदाज़ी का
क्या हुआ —
मैं पूछता

तू अभी नहीं
समझेगा रे
बड़ा हो जा
खुद ही समझ जाएगा —
यह कहते-कहते
माँ का पूरा चेहरा
स्याह हो जाता था …

माँ
अब मैं समझ गया

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                           2. यह सच है : एक
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                                                    — सुशांत सुप्रिय
अपने बेटे के
जन्म-दिन की ख़ुशी में
मैंने एक पौधा लगाया

बेटा बड़ा होने लगा
पौधा भी बड़ा होने लगा

मैं बेटे से प्यार करता था
मैं पौधे से भी प्यार करता था

मैं बेटे को पाल-पोस रहा था
मैं पौधे में खाद-पानी डाल रहा था

एक दिन बेटा बड़ा हो गया
एक दिन पौधा पेड़ बन गया

फिर बेटा मुझे छोड़
अपनी राह चल दिया
पेड़ अब भी मेरे पास है

बेटा अब मुझे याद भी नहीं करता
पेड़ अब मुझे छाया और फल देता है

कभी-कभी
मुझे लगता है जैसे
पेड़ के पके हुए फलों के भीतर
कहीं मेरे पिता की सुगंध है
पेड़ की जड़ों में कहीं मेरी माँ का दूध है

आप भी पेड़ लगाइए
अपनों का सुख पाइए

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                          3. यह सच है : दो
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                                                  — सुशांत सुप्रिय
जब मैं छोटा बच्चा था
तब मेरे भीतर
एक नदी बहती थी
जिसका पानी उजला
साफ़ और पारदर्शी था

उस नदी में
रंग-बिरंगी मछलियाँ
तैरती थीं

जैसे-जैसे मैं
बड़ा होता गया
मेरे भीतर बहती नदी
मैली होती चली गई

धीरे-धीरे
मैं युवा हो गया
पर मेरे भीतर बहती नदी
अब एक गंदे नाले में
बदल गई थी

उस में मौजूद
सारी मछलियाँ
मर चुकी थीं

उसका पानी अब
बदबूदार हो गया था
जिसमें केवल
बीमारी फैलाने वाले
मच्छर पनपते थे

यह दुनिया की
अधिकांश नदियों की व्यथा है
यह दुनिया के
अधिकांश लोगों की कथा है

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                           4. पढ़ते-पढ़ते
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                                               — सुशांत सुप्रिय
पढ़ो —
कहता है टेबल-लैम्प
बच्चा सिर झुकाए
पाठ पढ़ने लगता है

ध्यान से पढ़ो
ठीक से याद करो
पाठ का कोई अंश
छूट न जाए —
कहता है टेबल-लैम्प
सुनता है बच्चा
और डूब जाता है पाठ में

इसी तरह झुका हुआ
न जाने कब तक
पढ़ता रहता है बच्चा
जागता रहता है टेबल-लैम्प

पढ़ते-पढ़ते
बच्चे का ज़हन
भारी हो जाता है
पाठ के सारे शब्द
अपने अर्थों की चादर ओढ़ कर
सो जाते हैं

बहुत देर बाद
जब कमरे में माँ आती है
तो वह बच्चे और टेबल-लैम्प
दोनों को सोया हुआ पाती है

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                           5. प्रियतमा के नाम
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                                                     — सुशांत सुप्रिय
ओ प्रिये

तुम खरगोश बन जाओ
और मैं बन जाऊँ तुम्हारा बिल
तुम मुझ में आ कर रहो
शिकारियों से बचो और
आश्रय पाओ

या तुम दुधमुँही बच्ची बन जाओ
और मैं बन जाता हूँ
एक दूध भरा गरम और भारी स्तन

सुशांत सुप्रिय

जो भर दे तुम में नव-जीवन

क्यों न मैं
एक लम्बी सीढ़ी बन जाऊँ
और तुम उस पर
दौड़ कर चढ़ जाओ
ऊँचाइयों तक जाने के लिए

चलो मैं समुद्र बन जाता हूँ
और तुम बन जाओ
एक रंग-बिरंगी सुंदर मछली
जो तैरे मेरी अतल गहराइयों में

क्यों न ऐसा करें
कि मैं बन जाता हूँ
एक वाद्य-यंत्र
और तुम मुझे बजाओ
अपनी सहस्र उँगलियों से

अब मैं पेड़ हूँ
और तुम हो
एक फुदकती चिड़िया
या एक
नटखट गिलहरी
जो खाए
मेरे मीठे फलों को

या ऐसा करता हूँ
कि मैं किशमिश बन जाता हूँ
और तुम बन जाओ
एक छोटी बच्ची
जो मुझे मुँह में भर कर
खुश हो जाए

या फिर सुनो
तुम बीज बन जाओ
और मैं बन जाता हूँ
मिट्टी पानी और धूप
तुम्हारे लिए

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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
         A-5001 ,
         गौड़ ग्रीन सिटी ,
         वैभव खंड ,
         इंदिरापुरम ,
         ग़ाज़ियाबाद – 201014
         ( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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