पराक्रम दिवस 23 जनवरी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

नेताजी अनंत पथ की ओर महागमन

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपने अद्भुत प्रबल शौर्य, पराक्रम और बुद्धिमता का प्रदर्शन किया था, उसी के सम्मानित करते हुए भारत सरकार ने उनकी गौरवशाली 125 वीं जयंती वर्ष को “पराक्रम दिवस” के रूप में मना रही है। भारतीय इतिहास में सुभाष चन्द्र बोस के समान कोई दूसरा व्यक्तित्व नहीं हुआ, जिसमें एक महान सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति के अद्भुत खिलाड़ी और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नेताओं के साथ बैठ कर कूटनीति तथा राजनीति प्रसंगों पर चर्चा करने वाला हो। भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में महात्मा गाँधी जी के बाद अगर किसी व्यक्तित्व का नाम लिया जा सकता है, तो वह महान व्यक्तित्व का ही नाम है, ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस’।  

सन् 1940 में उधर जर्मन का हिटलर लंदन पर लगातार बम वर्षा कर रहा था और इधर भारत में ब्रिटिश सरकार ने अपनी आँखों की किरकिरी बने उनका सबसे बड़ा शत्रु सुभाष चंद्र बोस को 2 जुलाई, 1940 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर कलकत्ता की प्रेसिडेंसी जेल में डाल दिया गया। लेकिन बेवजह अपनी गिरफ्तारी के विरोध में 29 नवंबर, 1940 को सुभाष चंद्र बोस ने जेल में ही भूख हड़ताल शुरू कर दी थी, जिससे उनका सेहत लगातार गिरने लगा। जिससे घबड़ाकर प्रेसिडेंसी जेल का गवर्नर जॉन हरबर्ट ने 5 दिसम्बर को एक एंबुलेंस में सुभाष चन्द्र बोस को उनके घर 38/2 एल्गिन रोड भिजवा दिया, ताकि सुभाष की अस्वाभाविक मौत का आरोप अंग्रेज़ सरकार पर न लगे। उनके घर के बाहर सादे कपड़ों में पुलिस का कठोर पहरा बैठा दिया था। यहाँ तक कि अपने कुछ जासूस छोड़ रखे थे कि घर के अंदर क्या हो रहा है? अर्थात एक तरह से उन्हें उनके घर पर ही नजरबंद कर दिया गया था। उसने सोचा था कि कि सुभाष की सेहत में सुधार होते ही उन्हें फिर से हिरासत में ले लेगा। फिर उनसे मिलने वाले हर शख़्स की गतिविधियों पर नज़र रखी जाने लगी थी और सुभाष द्वारा भेजे जा रहे हर ख़त को डाकघर में ही खोल कर पढ़ा जाने लगा था।  

एक दिन बढ़ी हुई दाढ़ी सहित अपनी तकिया पर अर्धलेटे हुए ही सुभाष चन्द्र ने अपने 20 वर्षीय भतीजे शिशिर के हाथ को अपने हाथ में थामे उससे पूछा था, – ‘आमार एकटा काज कौरते पारबे?’ यानी ‘क्या तुम मेरा एक काम करोगे?’ शिशिर ने हांमी भर दी थी। बाद में पता चला कि सुभाष गुप्त रूप से भारत से निकलने में शिशिर की मदद लेना चाहते थे। 

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तय हुआ कि शिशिर अपने चाचा सुभाष को देर रात अपनी कार में बैठा कर कलकत्ता से दूर किसी एक रेलवे स्टेशन तक ले जाएँगे। सुभाष के पास दो गाड़ियाँ थीं, जर्मन वाँडरर कार और अमेरिकी स्टूडबेकर प्रेसिडेंट कार। अमेरिकी कार बड़ी ज़रूर थी, जिसे आसानी से पहचाना जा सकता था, इसलिए इस यात्रा के लिए वाँडरर कार को ही चुना गया। शिशिर कुमार बोस अपनी किताब ‘द ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, – ‘हमने मध्य कलकत्ता के वैचल मौला डिपार्टमेंट स्टोर में जा कर बोस के भेष बदलने के लिए कुछ ढीली सलवारें और एक फ़ैज़ टोपी, एक सूटकेस, एक अटैची, दो कार्ट्सवूल की कमीज़ें, टॉयलेट का कुछ सामान, तकिया और कंबल ख़रीदा। मैं फ़ेल्ट हैट लगाकर एक प्रिटिंग प्रेस गया और वहाँ मैंने सुभाष के लिए विज़िटिंग कार्ड छपवाने का ऑर्डर दिया। कार्ड पर लिखा था, मोहम्मद ज़ियाउद्दीन, बीए, एलएलबी, ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पायर ऑफ़ इंडिया अश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थायी पता, सिविल लाइंस, जबलपुर।

घरेलू क्रिया-कलापों में एकरूपता रखी गई। सुभाष के निकल भागने की बात बाकी घर वालों को, यहाँ तक कि उनकी माँ से भी से छिपाई गई थी। सुभाष चन्द्र ने अपने परिजन के साथ 16 जनवरी की रात को आख़िरी बार भोजन किया। सुभाष को घर से निकलने में थोड़ी देर हो गई क्योंकि घर के बाकी सदस्य अभी जाग ही रहे थे। सुभाष बोस पर किताब ‘हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट‘ लिखने वाले सौगत बोस के अनुसार, – ‘16 जनवरी की रात एक बज कर 35 मिनट के आसपास सुभाष बोस ने मोहम्मद ज़ियाउद्दीन का भेष धारण किया। उन्होंने सोने के रिम का अपना चश्मा पहना, जिसको उन्होंने एक दशक पहले पहनना बंद कर दिया था। भतीजे शिशिर की लाई गई काबुली चप्पल उन्हें रास नहीं आई। इसलिए उन्होंने लंबी यात्रा के लिए फ़ीतेदार चमड़े के जूते पहने। सुभाष कार की पिछली सीट पर जा कर बैठ गए। शिशिर ने वांडरर कार बीएलए 7169 का इंजन स्टार्ट किया और उसे घर के बाहर ले आए। सुभाष के शयनकक्ष की बत्ती पूर्व की भाँति अगले एक घंटे के लिए जलती छोड़ दी गई थी।’

जब सारा कलकत्ता गहरी नींद में था, उस समय चाचा और भतीजे ने लोअर सरकुलर रोड, सियालदाह और हैरिसन रोड होते हुए हुगली नदी पर बना हावड़ा पुल पार किया। दोनों भोर होते-होते आसनसोल और सुबह क़रीब साढ़े आठ बजे शिशिर ने धनबाद के बरारी में अपने भाई अशोक के घर से कुछ सौ मीटर दूरी पर सुभाष को कार से उतारा दिया। 

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शिशिर कुमार बोस अपनी किताब ‘द ग्रेट एस्केप‘ में लिखते हैं, – ‘मैं अशोक को बता ही रहा था कि माजरा क्या है कि कुछ दूर पहले उतारे गए इंश्योरेंस एजेंट ज़ियाउद्दीन (दूसरे भेष में सुभाष) ने घर में प्रवेश किया और अशोक को बीमा पॉलिसी के बारे में बताने लगे। फिर मैंने कहा कि बातचीत हम शाम को करेंगे। नौकरों को आदेश दिए गए कि ज़ियाउद्दीन के आराम के लिए एक कमरे में व्यवस्था की जाए। नौकर की उपस्थिति में अशोक ने मेरा ज़ियाउद्दीन से अंग्रेज़ी में परिचय करवाया।’

शाम को बातचीत के बाद ज़ियाउद्दीन ने अपने मेज़बान अशोक को बताया कि वे गोमो स्टेशन से कालका मेल को पकड़ कर अपनी आगे की यात्रा करेंगे। कालका मेल गोमो स्टेशन पर देर रात आती थी। गोमो स्टेशन पर नींद भरी आँखों वाले एक अज्ञात कुली ने सुभाष चंद्र बोस का सामान उठाया। शिशिर बोस आगे लिखते हैं, – ‘मैंने अपने रंगाकाका बाबू (सुभाष चन्द्र) को कुली के पीछे धीमे-धीमे ओवरब्रिज पर चढ़ते देखा। थोड़ी देर बाद वे चलते-चलते अँधेरे में गायब हो गए। कुछ ही मिनटों में कलकत्ता से चली कालका मेल वहाँ पहुँच गई। मैं तब तक स्टेशन के बाहर ही खड़ा था। दो मिनट बाद ही मुझे कालका मेल के आगे बढ़ते पहियों की आवाज़ सुनाई दी।’ सुभाष चंद्र बोस 18 जनवरी 1941 को जिस गोमो स्टेशन से नेताजी ट्रेन में सवार हुए थे, उसका नाम ‘नेताजी’ के सम्मान में नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो जंक्शन किया जा चुका है और जिस कालका मेल से गए थे उसका नाम भी सम्मानजनक नेताजी एक्सप्रेस किया जा चूका है 

Significance of railways in Netaji's Great Escape - RailYatri Blog

18 जनवरी, 1941 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गोमो स्टेशन से ‘कालका मेल’ में सवार होकर अपने दूरगामी कार्य योजना को सफल बनाने के लिए आगे की ओर बढ़ चले। 


अब गतांक के आगे ……. 

इस बीच सुभाष चन्द्र के एल्गिन रोड वाले घर के उनके कमरे में रोज खाना पहुँचाया जाता रहा। वह खाना उनके भतीजे और भतीजियाँ खाते रहें, ताकि लोगों को आभास मिलता रहे कि सुभाष अभी भी अपने कमरे में ही हैं। सुभाष ने शिशिर से कहा था कि अगर वह चार या पाँच दिनों तक मेरे भाग निकलने की ख़बर छिपा गए तो फिर उन्हें कोई नहीं पकड़ सकेगा। 27 जनवरी को एक अदालत में सुभाष के ख़िलाफ़ एक मुकदमें की सुनवाई होनी थी। तय किया गया कि उसी दिन अदालत को बताया जाएगा कि सुभाष का घर में कहीं पता नहीं हैं।

सुभाष चंद्र बोस कालका मेल ट्रेन से पहले दिल्ली पहुँचे। फिर वहाँ से उन्होंने पेशावर के लिए फ़्रंटियर मेल पकड़ी। 19 जनवरी की देर शाम पेशावर के केंटोनमेंट स्टेशन पहुँचे, तो वहाँ मियाँ अकबर शाह बाहर निकलने वाले गेट के पास खड़े थे। वह एक अच्छे व्यक्तित्व वाले मुस्लिम शख़्स को गेट से बाहर निकलते देखकर ही समझ गए कि वे कोई और नहीं, बल्कि भेष बदले सुभाष चंद्र बोस ही हैं। उन्होंने उनसे एक ताँगे में बैठने के लिए कहा और ताँगे वाले को डीन होटल ले चलने का निर्देशन दिया। फिर स्वयं एक दूसरे ताँगे में बैठे सुभाष के पीछे चलने लगे।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अंग्रेज़ों की क़ैद से भाग निकलने की कहानी - BBC  News हिंदी

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मियाँ अकबर शाह अपनी किताब ‘नेताजीज़ ग्रेट एस्केप‘ में लिखते हैं, – ‘मेरे ताँगेवाले ने मुझसे कहा कि आप इतने मज़हबी मुस्लिम शख़्स को विधर्मियों के होटल में क्यों ले जा रहे हैं। आप उनको क्यों नहीं ताजमहल होटल ले चलते जहाँ मेहमानों के नमाज़ पढ़ने के लिए जानमाज़ और वज़ू के लिए पानी भी उपलब्ध कराया जाता है? मुझे भी लगा कि बोस के लिए ताजमहल होटल ज़्यादा सुरक्षित जगह हो सकती है क्योंकि डीन होटल में पुलिस के जासूसों के होने की संभावना हो सकती है।’ आगे लिखते हैं, – ‘लिहाज़ा बीच में ही दोनों ताँगों के रास्ते बदले गए। ताजमहल होटल का मैनेजर मोहम्मद ज़ियाउद्दीन से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनके लिए फ़ायर प्लेस वाला एक सुंदर कमरा खुलवाया। अगले दिन मैंने सुभाष चंद्र बोस को अपने एक साथी आबाद ख़ाँ के घर पर शिफ़्ट कर दिया। वहाँ पर अगले कुछ दिनों में सुभाष बोस ने ज़ियाउद्दीन का भेष त्याग कर एक बहरे पठान का वेष धारण कर लिया क्योंकि सुभाष स्थानीय पश्तो भाषा बोलना नहीं जानते थे।‘

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सुभाष के पेशावर पहुँचने से पहले ही मियाँ अकबर शाह ने तय कर लिया था कि फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के दो लोग, मोहम्मद शाह और भगतराम तलवार, बोस को भारत की सीमा पार कराएंगे। भगत राम ही रहमत ख़ाँ के रूप में वहाँ के सोवियत दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। तब तय हुआ कि वे अपने गूँगे व बहरे रिश्तेदार ज़ियाउद्दीन को अड्डा शरीफ़ की मज़ार ले जाएँगे, जहाँ उनके फिर से बोलने और सुनने की दुआ माँगी जाएगी।

26 जनवरी, 1941 की सुबह मोहम्मद ज़ियाउद्दीन और रहमत ख़ाँ एक कार में रवाना हुए। दोपहर तक उन्होंने तब के ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा पार कर ली। वहाँ उन्होंने कार छोड़ उत्तर पश्चिमी सीमाँत के ऊबड़-खाबड़ कबाएली इलाके में पैदल ही बढ़ना शुरू कर दिया। 27-28 जनवरी की आधी रात वो अफ़ग़ानिस्तान के एक गाँव में पहुँचे। मियाँ अकबर शाह अपनी किताब में आगे लिखते हैं, – ‘इन लोगों ने चाय के डिब्बों से भरे एक ट्रक में लिफ़्ट ली और 28 जनवरी की रात जलालाबाद पहुँच गए। अगले दिन उन्होंने जलालाबाद के पास अड्डा शरीफ़ मज़ार पर ज़ियारत की। 30 जनवरी को उन्होंने ताँगे से काबुल की तरफ़ बढ़ना शुरू किया। फिर वे एक ट्रक पर बैठ कर बुद ख़ाक के चेक पॉइंट पर पहुँचे। वहाँ से एक अन्य ताँगा कर वे 31 जनवरी, 1941 की सुबह काबुल में दाख़िल हुए।’

Residents of Herat in the west of Afghanistan celebrated the day by  organizing music and poetry

इस बीच सुभाष को गोमो छोड़ कर शिशिर 18 जनवरी को कलकत्ता वापस पहुँच गए। जब उनसे लोगों ने सुभाष के स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि उनके चाचा गंभीर रूप से बीमार हैं।

सौगत बोस अपनी किताब ‘हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट‘ में लिखते हैं, – ’27 जनवरी को एक अदालत में सुभाष के ख़िलाफ़ एक मुकदमें की सुनवाई होनी थी। पूर्व ही तय किया गया था कि उसी दिन अदालत को बताया जाएगा कि सुभाष का घर में कहीं पता नहीं है। सुभाष के दो भतीजों ने पुलिस को ख़बर दी कि वे घर से गायब हो गए हैं। ये सुनकर सुभाष की माँ प्रभाबती का रोते-रोते बुरा हाल हो गया। उनको संतुष्ट करने के लिए सुभाष के भाई शरत ने अपने बेटे शिशिर को उसी वाँडरर कार में सुभाष की तलाश के लिए कालीघाट मंदिर भेजा। 27 जनवरी को सुभाष के गायब होने की ख़बर सबसे पहले आनंद बाज़ार पत्रिका और हिंदुस्तान हेरल्ड में छपी। जहाँ से ये ख़बर पूरी दुनिया में फैल गई। ये सुनकर ब्रिटिश खुफ़िया अधिकारी न सिर्फ़ आश्चर्यचकित रह गए बल्कि शर्मिंदा भी हुए।’

जब सुभाष ने खुद जर्मन दूतावास से संपर्क करने का फ़ैसला किया। उनसे मिलने के बाद काबुल दूतावास में जर्मन मिनिस्टर हाँस पिल्गेर ने 5 फ़रवरी को जर्मन विदेश मंत्री को तार भेज कर कहा, – ‘सुभाष को मैंने उन्हें सलाह दी है कि वे भारतीय दोस्तों के बीच बाज़ार में अपने-आप को छिपाए रखें। मैंने उनकी तरफ़ से रूसी राजदूत से संपर्क किया है।’

बर्लिन और मास्को से उनके वहाँ से निकलने की सहमति आने तक बोस सीमेंस कंपनी के हेर टॉमस के ज़रिए जर्मन नेतृत्व के संपर्क में रहे। इस बीच सराय में सुभाष बोस और रहमत ख़ाँ पर ख़तरा मंडरा रहा था। एक अफ़ग़ान पुलिस वाले को उन पर शक हो गया था। उन दोनों ने पहले कुछ रुपये देकर और बाद में सुभाष की सोने की घड़ी दे कर उससे अपना पिंड छुड़ाया। ये घड़ी सुभाष को उनके पिता ने उपहार में दी थी।

कुछ दिनों बाद सीमेंस के हेर टॉमस के ज़रिए सुभाष बोस के पास संदेश आया कि अगर वे अपनी अफ़ग़ानिस्तान से निकल पाने की योजना पर अमल करना चाहते हैं तो उन्हें काबुल में इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी से मिलना चाहिए। 22 फ़रवरी, 1941 की रात को सुभाष चन्द्र बोस ने इटली के राजदूत से मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात के 16 दिन बाद 10 मार्च, 1941 को इटालियन राजदूत की रूसी पत्नी सुभाष चंद्र बोस के लिए एक संदेश ले कर आईं, जिसमें कहा गया था कि सुभाष दूसरे कपड़ो में एक तस्वीर खिचवाएँ। सुभाष की उस तस्वीर को एक इटालियन राजनयिक ओरलांडो मज़ोटा के पासपोर्ट में लगा दिया गया और 17 मार्च की रात सुभाष को एक इटालियन राजनयिक सिनोर क्रेससिनी के घर शिफ़्ट कर दिया गया।

सुबह तड़के वे एक जर्मन इंजीनियर वेंगर और दो अन्य लोगों के साथ कार से रवाना हुए। वे अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पार करते हुए पहले समरकंद पहुँचे और फिर ट्रेन से मास्को के लिए रवाना हुए। वहाँ से सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी की राजधानी बर्लिन का रुख़ किया। 9 अप्रेल, 1941 को उन्होंने जर्मन सरकार को एक मेमोरंडम सौंपा, जिसमें एक्सिस पॉवर और भारत के बीच परस्पर सहयोग को संदर्भित किया गया था। 

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर विशेष: आज़ाद हिंद बैंक के एक लाख रुपये  के नोट पर नेताजी की तस्वीर – Shabddoot – शब्द दूत

इसी साल नवम्बर में स्वतंत्र भारत केंद्र और स्वतंत्र भारत रेडिओ की स्थापना की। 29 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने अंडमान और निकोबार में आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की। जहाँ इनका नाम ‘शहीद’ और ‘स्वराज्य’ रखा गया। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में जापान ने परमाणु हमले के बाद हथियार डाल दिए। इसके कुछ दिन बाद ही 18 अगस्त, 1945 को नेताजी की एक हवाई दुर्घटना में मारे जाने की खबर आई। हलाकि उनकी मृत्यु आज तक रहस्य ही बनी हुई है।  

RSTV Vishesh - 21 October 2020: Azad Hind Sarkar | आजाद हिंद सरकार - YouTube

(9 जनवरी, 2022)





– श्रीराम पुकार शर्मा,

24, बन बिहारी बोस रोड,

हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)

सम्पर्क सूत्र – 9062366788

ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail।com  


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