पैसे से ही नाम है पैसा ही पहचान है

पैसे से ही नाम है पैसा ही पहचान है

गांव में था मजबूर
शहर था कोंसों दूर
किस्मत काली थी
पाकेट खाली थी
पैसे से ही नाम है पैसा ही पहचान है

घर में दाने तो थे

पर अम्मा बाबू नहीं थे
कुछ मजबूरियां थी
रिश्तेदारों से दूरियां थी
पैसे से ही नाम है
पैसा ही पहचान है
पैसा है तो सब हैं यार
पैसे से ही हैं रिशतेदार
सो अकेलापन नहीं भा रहा था
शहर आने का मन बना रहा था
पकड़कर हाथ बहिन का
पकड़ा रास्ता शहर का
सोचा शहर जाकर
होंगे हालात बेहतर
पर जब से यहां हूं आया
काम नहीं कोई पाया
सर छिपाने की जुगत ने
शमशान में ला पहुंचाया
जलती चिताओं के पास
सर्द हवाओं का उपहास
कुछ करने की आस में हूं
नए शव की तलाश में हूं
शव आएगा लकड़ी मंगवाएगा
तो ही तो मेरे पास काम आएगा
बुरा नहीं चाहता मैं बेकसूर हूं
क्या करुं हालात से मजबूर हूं

अनोखी रात

रात का समय था, रास्ता सुनसान था
सड़क वीरान थी, स्ट्रीटलाइट बंद थी
जिस सड़क पर वो आगे बढ़ रहा था 
उसके बगल में ही एक कब्रिस्तान था
खट-खट-खटाक आवाज आ रही थी
लगता जैसे कोई कब्र खोदी जा रही थी
किसी खतरे का अंदेशा भांप रहा था वो
अंदर-अंदर डर के मारे कांप रहा था वो
इतने में एक लड़की की चीख़ सुनाई दी
पकड़ो पकड़ो – एक आवाज सुनाई दी
आवाज सुनकर वह पहले तो ठिठका.. 
फिर लगभग तेज तेज दौड़ने सा लगा
वह तेजी से भागकर हांफते जा रहा था
उस आवाज की दिशा में कोतूहल वश
तभी भागते हुए उसने कुछ लोग देखे
जो दौड़े आ रहे थे उस लड़की के पीछे
रूको-रूको..सुनो जरा ! उसने उन्हें आवाज लगाई
क्या हुआ..आखिर माजरा क्या है बताओ जरा भाई
लड़की की दूर दूर तक कोई खबर नहीं थी
पल भर में ही वह न जाने कहां गई थी
उन्होंने पूछा “लड़की गई है किस तरफ” 
साथ ही वे बस उसे ढूंढ रहे थे हर तरफ
उसके सवाल का जवाब देने के बजाए
वे पूछने लगे कि तुम यहां हो क्यों आए
दो व्यक्तियों ने उसके दोनों हाथों को सख्ती से पकड़ लिया 
ऐसा लगा जैसे था किसी चोर को पुलिस ने जकड़ लिया 
वह हैरान परेशान पूछता रहा उनसे कि कहां ले जा रहे हो? 
बार बार पूछने पर भी तुम यह बात क्यों नहीं बता रहे हो? 
पर वे खामोशी से गाड़ी में बैठा कर चल दिए
और उसके सवालों के कोई जवाब नहीं दिए
रात उस कमरे में किस तरह बीतेगी-वह सोचने लगा। 
“कहां फंस गया” यहां से कैसे निकलूं वह सोचने लगा। 
इतने में इक हवा का झोंका आया और खिड़की का पर्दा लहराया 
तब उसे वहां से भाग निकलने का आइडिया आया 
खिड़की से बाहर कूदकर जैसे तैसे वह बाहर निकल भागा
सामने थी एक सड़क जिसपर वह बेतहाशा दौड़ने लगा
बमुश्किल दौड़ते हुए रात निकली वह कहां है कुछ समझ नहीं आया
सुबह के चार बजने को थे उसने खुद को वापिस उसी कब्रिस्तान में पाया
वह इधर उधर देख ही रहा था 
इतने में एक जोर से आवाज आई
आज आफिस नहीं जाना 
“सात बज गए भाई” 
देखा तो उसे कंधे से हिलाकर बहिन जगा रही थी 
और उसकी सोच सपनों में उसे कहां कहां घुमा रही थी। 
इसलिए जैसा देखोगे जैसा पढ़ोगे वही दिमाग में आएगा
अच्छा देखोगे अच्छा पढ़ोगे तो ही अच्छा सोच आएग । 

कब जागेगा ?

वाह रे इंसान तेरी अलग ही है ठाठ!
उफ! पर क्यों हैं काम के घंटे आठ ?
नहाना धोना रोजमर्रा के काम
इसी में हो जाएं चार घंटे तमाम
आठ घंटे और लगा लो- सोने के
बाकी टीवी,मोबाइल में खोने के
हे उपरवाले क्या चीज बनाई तूने इंसान 
याद करने का वक्त नहीं-कितना नादान
खुद से ही तू पूछ ले,ये बस एक बार 
इतनी समृद्धि के बाद भी है तेरी हार
मारा मारा फिरता है तू किस राह में ? 
यही जीवनशैली अपनाने की चाह में? 
वाह रे इंसान जवाब नहीं तेरे ठाठ का! 
कब जागेगा, रहेगा न घर का न घाट का 
– प्रभजीत सिंह 
delhipjs@gmail.com

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