मुक्ति

मुक्ति

एक छोटी सी कागज की
हमारे बीच मे दीवार है
और लोग कहते हैं
तकरार में भी प्यार है,

मुक्ति

रूठने का मजा तब है
जब मनाने वाला हो,
जिसे कोई मनाने वाला न हो
उसके लिए सब बेकार है।

मुझे वो चाहत भी स्वीकार थी,
ये नफरत भी सिरोधार्य है।

मैं अपराधी हूँ
नछम्म अपराध की,
बँधी हूँ कुटिल काल के
हाथो में,
या जूझ रही हु किसी
श्राप से,

मुक्ति कही दिखती नही
स्त्री होने के पाप की,
इतनी निर्मम है दुनिया
की कोई साथ नही देता,
जैसा दिखता है सब
वैसा नही होता।।

रचनाकार परिचय 
श्रद्धा मिश्रा
शिक्षा-जे०आर०एफ(हिंदी साहित्य)
वर्तमान-डिग्री कॉलेज में कार्यरत
पता-शान्तिपुरम,फाफामऊ, इलाहाबाद

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