मुखौटा हिंदी कहानी

मुखौटा

क समय की बात है जब हमारी इस कहानी का सीधा-साधा पात्र एक मेले में घूम रहा था। मेला सावन का था और बच्चों के लिये तरह तरह के झूले लगे थे। खुली जगह पर दुकानें सज गईं थी, जिनसे मेला बहुत आकर्षक हो गया था। सूरज के ढलते ही लोग सपरिवार मेले के लिये चल पड़ते थे।

लखन भी मेले में घूम रहा था। वह अकेला था। मेले की भीड़ में अकेले घूमना सहज होता है — बेफिक्र टहला जा सकता है। बच्चों साथ में हो तो देखना पड़ता है, वे इधर-उधर भाग न जावें। मेले में धक्का-मुक्की और दंगे-फसाद का डर भी बहुत होता है।

निश्चिंत हो टहलता लखन यकायक रुक गया। सामने अचानक भगदड़ मच गई। शोरगुल होने लगा। लखन कुछ समझ पाता कि आगे से एक नौजवान आकर लखन से टकरा गया। उस युवक ने एक रक्तरंजित छुरा लखन के हाथ में थमा दिया और जिसे तेजी से वह आया था, उसी तीव्रता से भीड़ को चकमा देकर भाग खड़ा हुआ।

लखन के कँपते हाथ सेे छुरा नीचे गिर गया। जिनकी नजर खून से भरे छुरे पर पड़ी, वही चिल्ला पड़ा ‘खूनऽ खूनऽऽ।’ इस आवाज से एकदम सन्नाटा छा गया। सब चौकन्ने हो उठे। भीड़ से आवाज आई, ‘इसे पकड़ो’। लखन को एक झटका लगा और वह भीड़ को भेदता भागने की कोशिश करने लगा।

मुखौटा

पुलिस जब तक चौकन्नी होती, लखन भाग चुका था। दूर जाकर उसकी नजर अपने खून से भरे हाथ पर पड़ी। खून टपकता उसके कपड़ों पर भी गिर चुका था। यह देख लखन कँप उठा। उसने और दूर भाग जाना चाहा। भाग्यवश सामने सार्वजनिक नल दिखा। लखन ने चारों ओर नजर फेंकी। आसपास कोई नहीं था। लखन ने हाथ साफ किये। कपड़े पर के खून के दाग भी धो डाले और तेजी से शहर की पूर्व दिशा पर फैले धान के खेतों में कूद पड़ा। रात भर वह एक खेत से दूसरे खेत को लाँधता भागता रहा।

सूर्योदय होता देख, उसने सड़क पर आने की हिम्मत की। चारों तरफ सुनसान था। दूर एक झोपड़ी दिख रही थी। शहर कितने पीछे छूट गया था, इसका अंदाजा लगाना उसके लिये कठिन था। लखन सड़क से हटकर किनारे चलने लगा जहाँ ऊँचे-ऊँचे दरख्त लगे थे जिनके पीछे वक्त पड़ने पर छिपा जा सकता था। आगे पसरी चौड़ी सड़क एकदम सुनसान थी। मेला काफी पीछे छूट गया था। फलतः अब लखन और निश्चिंत हो चला जा रहा था।

तभी किसी ने पीछे से आकर उसके कंधे पर हाथ रखा। इस पर लखन का चौंक जाना स्वाभविक था। उसने पलटकर देखा। पीछे खड़ा व्यक्ति सामान्य कद का, गौरवर्ण का पर विचित्र आकृति का था। उस समय सड़क र अन्य और कोई नहीं था। चारों ओर गहरी निस्तब्धता और सन्नाटे का राज था। सामने खड़े व्यक्ति का चेहरा कठोर और तना हुआ था जैसे वह कोई मुखौटा धारण किये हुआ हो। उसकी आँखें अवश्य लाल थीं। 

‘इतनी सुबह आप कहाँ से आ रहे हैं?’ उस व्यक्ति ने लखन से पूछा।

इस प्रश्न ने गत रात की घटना की याद ताजी कर दी। लखन के शरीर पर सिर से पैर तक एक लहराती बिजली तड़क उठी। पास के दरख्त से चिड़ियों का एक विशाल झुँड़ पंख फड़फड़ा उड़ा और चहचहाता दूर निकल गया। जमीन पर पड़े शुष्क पत्तों की सरसराहट की आवाज आयी जैसे कुछ रेंगता आगे के पेड़ की जड़ों तक चला गया हो।

‘आप कुछ विचलित दिख रहे हैं? क्या यह सच है? यदि हाँ, तो इसकी वजह क्या है?’ इन प्रश्नों की झड़ी लखन के कानों से रेंगती उसके हृदय की धड़कनों में छिपने लगी। लखन फिर भी चुप रहा। पर वह अजनबी चुप न रहा, ‘कोई जल्दी नहीं है। आप सोच-समझकर मेरे प्रश्नों का उत्तर दीजिये। शायद मैं आपके कुछ काम आ सकूँ।’

लखन का दिमाग एकदम ‘सुन्न’ पड़ गया था। ‘यह आदमी मुझसे क्या जानना चाहता है? क्या यह कोई मनोवैज्ञानिक है या फिर मन को खंगालकर सच उगलवानेवाला जासूस?’ इन विचारों ने लखन को और भी भ्रमित कर दिया था। ऐसी भ्रमित कर देनेवाली स्थिति में खामोश रहना ही बेहतर होता है। इसलिये लखन चुप रहा।

‘क्या बात है?’ फिर एक छोटा-सा प्रश्न उछलकर लखन के पास आया। ‘क्या जिन्दगी से ऊब गये हो या फिर घबरा गये हो? क्या सोचकर चुप हो? क्या दुनिया से डर गये हो?’ 

लखन इन सारे प्रश्नों का क्या उत्तर देता? हर प्रश्न उसके मनोबल को आहत कर रहा था।

अचानक उस अजनबी का हाथ ऊपर उठा जैसे वह लखन पर छुरे से वार करना चाह रहा हो। लखन को मेले में घटित क्षण याद आ गये और वह मौका देख भाग खड़ा हुआ। क्षणिक स्फूर्ति के जागरण ने लखन को आगे एक ढाबे के पास पहुँचा दिया। वह ढाबा शायद किसी नये शहर के प्रारंभ का प्रतीक बना था। लखन का गला सूख रहा था और वह ढाबे पर एक गिलास पानी पीकर आगे बढ़ जाना चाह रहा था। तभी फिर एक हाथ उसके कंधे को छूने लगा। लखन सिहर उठा। सामने टेबल पर रखे अखबार की ओर इशारा करते उस अजनबी ने लखन के कान के पास धीरे से कहा, ‘आज का अखबार देखना नहीं चाहोगे?’

अखबार स्थानीय था इसलिये प्रथम पृष्ठ पर ही मेले की घटना का उल्लेख था। एक चित्र भी साथ में था जिसमें लखन भागने की कोशिश करता हुआ स्पष्ट दिख रहा था।

‘यह आप हैं ना!’ अजनबी ने पूछा।

लखन का गला पहले ही सूख चुका था, अब उसकी घिग्घी भी बंद हो गई। 

‘डरो नहीं। मेरे साथ चलो। मेरे पास अनोखा हुनर है, शायद तुम्हारे कुछ काम आवे।’ इतना कह वह अजनबी लखन का हाथ पकड़ जबरजस्ती अपने घर ले आया। लखन को कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए उस अजनबी ने कहा, ‘मेरे पास ऐसा हुनर है कि मैं एक से बढ़कर एक मुखौटा तैयार का सकता हँू। कहो तो तुम्हारे लिये भी एक बना कर दे दूँ। लेना चाहो तो कुछ नमूने दिखाऊँ?’

लखन के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना वह उठकर अंदर चला गया। 

कुछ देर बाद बाहर आकर उसने एक मुखौटा लखन की ओर बढ़ाकर कहा, ‘अभी तो मेरे पास एक ही मुखौटा बचा है। देखो। शायद पसंद आवे। चाहो तो मैं दूसरा बनाकर दे सकता हूँ। परन्तु क्या तब तक तुम बिना मुखौटे के रह सकोगे?’

लखन ने पहली बार उसके प्रश्न का उत्तर दिया, ‘जब अपना ही चेहरा छिपाना हो तो कोई भी मुखौटा चल सकता है। चुनने का प्रश्न ही नहीं उठता।’

लखन की स्वीकृति मिलते ही वह लखन को अंदर के कमरे में ले गया। मुखौटे को लखन के चेहरे पर रखकर कुछ निशान लगाये ताकि नाप सही हो सके। बारीकी से कटिंग कर उसने लखन को एक क्रीम दिखाई और कहा, ‘इससे यह मुखौटा चिपक जावेगा। बस, कुछ मिनिट रुकना पड़ेगा।’ 

कुछ देर बाद लखन को एक आईना देकर उसने कहा, ‘देख लीजिये। काम पसंद आया कि नहीं।’ लखन के ‘हाँ’ कहने पर वह अजनबी बोला, ‘अब यह मुखौटा आपका हुआ।’

‘फीस,’ लखन ने बाहर जाते समय पूछा।

‘नहीं, मैं अपनी कला बेचता नहीं। बस, आपकी खुशी मेरी खुशी है।’

सड़क पर पैर रखते ही लखन ने राहत की साँस लेकर सिर उठाया और चल पड़ा। कुछ दूरी पर सामने के घर की फेंसिंग पर उसकी नजर पड़ी, जहाँ एक पोस्टर लगा था। पोस्टर देखते ही वह स्तब्ध रह गया। पोस्टर पर लिखा था कि पुलिस को तलाश थी एक ‘खूनी’ की। लिखा था कि खूनी शातीर अपराधी है और कई खून कर चुका है। लखन ने देखा कि जिस खूनी की तस्वीर उस पोस्टर पर छपी थी वह उसी मुखौटे की तरह था जो उसने अभी-अभी पहना था। घबराकर लखन ने अपना मुखौटा खींचकर उतारना चाहा। पर यह संभव नहीं था। लखन दौड़कर उस अजनबी के पास गया और मुखौटा उतारने कहा। पर जवाब मिला, ‘बन्धु! अब यह मुखौटा तुम्हारा है। इसे बदला नहीं जा सकता।’

इसी बीच लखन की नजर उस अजनबी के चेहरे पर पड़ी — उसका चेहरा एकदम सपाट था — जिसके ऊपर उम्र के कारण बननेवाली एक भी चिंता की रेखा नहीं थी — आँखों को छोड़कर सारा चेहरा निर्जीव-सा — बर्फ की सिल्ली-सा — एक मुखौटा-सा भावशून्य दिख रहा था। लखन अचंभित हो उठा यह देखकर कि जिस ‘खूनी’ की पुलिस को तलाश थी उसकी फ्रेम की हुई तस्वीर अजनबी के अपने ही घर की दीवार की शोभा बढ़ाती, मुस्करा रही थी।

लखन ने सड़क पर आकर देखा कि हर कहीं, बिजली के खंबों पर, सड़क किनारे दोनों तरफ फैले घरों की फैंसिग की दीवार पर, नालों की पुलिया पर, सार्वजनिक शौचालयों के प्रवेश द्वार पर जेल से भागे हुए उस खूँखार आदमी के पास्टर लगे थे। इसी का मुखौटा अब लखन पहने हुए था। फलतः सड़क पर चलने-फिसते लोग, घरों की छत पर खड़े बच्चे-बूढ़े, बाग-बगीचों पर तैनात चौकीदार, पान ठेलों पर बतियाते लोग लखन को देख खुसुर-फुसुर करने लगते हैं। वह बिचारा घबराकर बड़े डग भरता वहाँ से हट जाने का प्रयास करता है।

आखिरकार उसे एक उपाय सुझता है कि वह शहर छोड़कर भाग जावेे — इतनी दूर चला जावे जहाँ ऐसे पोस्टर न लगे हों। यह विचार आते ही वह स्टेशन की तरफ दौड़ पड़ा। वह बुरी तरह हाँफता टिकिट काऊँटर की तरफ लपका। नीचे गरदन किये बाबू ने पूछा, ‘कहाँ का टिकिट चाहिये?’ पर इस प्रश्न का जवाब न पाकर बाबू ने सिर उठाकर ऊपर देखा। अपने सामने जेल से भागे कैदी की शक्ल देख वह तुरंत रेल्वे पुलिस को फोन करने लगा। यह देख लखन भाग खड़ा हुआ। वह स्टेशन से दूर तो भाग गया पर फरार कैदी को खोजती पुलिस तो सब जगह चौकस थी ही। लखन भागे भी तो कहाँ? 

हमारा सीघा-साधा मुखौटाधारी लखन अंततः गिरफ्तार हो ही गया। वह बहुत गिड़गिड़ाया, सबके पैर छुए, कसमें खायी कि वह फरार कैदी नहीं है। उसे तो यह मुखौटा जबरजस्ती उसी भागे हुए कैदी ने पहना दिया है। पर वहाँ जमा हो चुकी भीड़ में सुननेवाला कोई न था। लोग शोर मचाते हुए उस पर फब्तियाँ कस रहे थे। पुलिस भीड़ को तितर-बितर कर आगे बढ़ने की कोशिश किये जा रही थी। पर भीड़ ऐसे मालौल में भागती नहीं है — वह मजा लेती है।

जैसे तैसे पुलिस उसे लेकर जेल तरफ ले जाने लगी। लखन अब शारीरिक व मानसिक रूप से थक चुका था। उसे राह पर एक मंदिर दिखा और वह गिड़गिड़ाकर कहने लगा, ‘मुझे एक बार मंदिर ले चलो। मुझे बस एक प्रार्थना करने का मौका दो।’ 

न जाने कैसे उन पुलिसवालों का दिल पसीज उठा। वे उसे मंदिर ले आये। मंदिर के बाहर भी पोस्टर लगा था। लखन को दर्शन कराकर जैसे ही पुलिस बाहर आने लगी तो वहाँ खड़े एक नन्हें से बालक ने कहा, ‘अरे, यह तो वही है जो जेल से भागा है।’ फिर कुछ गौर से देखते हुए वह बालक बोला, ‘इसके चेहरे पर तिल के वो निशान नहीं दिख रहे जो पोस्टर पर बने खूनी के चेहरे पर हैं।’ 

बच्चे की इस बात पर पुलिस भी गौर से देखने लगी। लखन को याद आया कि मुखौटा हड़बड़ी में लगाया गया था, अतः हो सकता है कि यह गल्ती हो गई हो। उसका मन बालक की बुद्धि का तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहने लगा।

‘इसे छोड़ो,’ पुलिस दरोगा ने दूसरे सिपाहियों से कहा, ‘इससे बहतर है कि हम मेले में खून करनेवाले की तलाश करें, जिसके लिये हम निकले हैं।’

दरोगा का यह आदेश सुन लखन के मन में आया कि वह पूछे कि जिसे वे गिरफ्तार करना चाहते हैं, वह है कौन? क्या यह वही मैं हूँ जिसकी फोटो अखबार में छपी थी? पर जैसे ही दरोगा ने खुद अपने मोबाईल पर सी.सी.टी.व्ही. से पाया उसका फोटो लखन को दिखाया और पूछा, ‘ इसको कहीं देखा है?’ फोटो देखते ही लखन के मुँह से निकला, ‘अरे! यह तो वही है।’

‘कौन?’

‘वही, जिसने मुझे मुखौटा पहनाया था। उसका घर उसी जगह के पास है, जहाँ आप लोगों ने मुझे पकड़ा था।’ 

लखन को साथ लेकर पुलिस दौड़ पड़ी परन्तु उन्हें घर पर ताला जड़ा मिला। कैदी फरार हो चुका था। लखन आश्चर्य में था कि फरार हुए खूनी ने एक ऐसा मुखौटा पहन लिया जो खूनी का था या फिर अपना चेहरा छिपाने के लियेे मुखौटा पहन लेने के बाद उसने मेले में खून कर दिया था।

खैर, विधाता ने कुछ और ही सोच रखा था। कैद से छूटा खूनी बेतहाशा भागे जा रहा था। वह एक क्षण भी रुकना नहीं चाह रहा था। लेकिन उसकी खोज करते करते सामनेे यमराज आ धमके क्योंकि उन्हें तो उसकी खोज थी जिसका मुखौटा कैदी ने पहन रखा था। वे उसे ही लेने पृथ्वी पर आये थे। 

अब गड़गड़ घोटाला तो होना ही था। यमराज ने मुखौटाधारी कैदी को ही रेल की पाँत फैक दिया और उसके शव को ले चल दिये। स्वर्ग के द्वार पर तैनात चित्रगुप्त ने देखा तो वे बोले, ‘हे यमराज! यह किसे आप ले आये हैंे? यह खूनी है जिसने एक पुण्यवान का मुखौटा पहनकर एक और खून कर दिया है। इसे तो नरक जाना होगा।’

यमराज नरक के द्वार पर गये। यह देख नरक का राजा शैतान बौखला गया और उस मृतक को नरक में रखने से साफ इन्कार करते हुए चिल्लाया, ‘अरे ओ शैतान के बच्चे! अगर इतने सारे खून करने बाद तू ईश्वर का मुखौटा धारण करता तो कुछ बात बनती। ईश्वर बदनाम होता। परन्तु तूने तो अच्छा मुखौटा भी खूनी का बना दिया। क्या तू मेरा ही मजाक उड़ाना चाहता है? मैं तुम्हें यहाँ नहीं रख सकता। अब तुरंत मेरी आँखों से दूर हो जा।’

कहते हैं कि तब वह पृथ्वी पर भेज दिया गया और उसने नकली चेहरे पहनने का चलन पृथ्वी पर ला दिया जिससे पृथ्वी पर सर्वत्र मुखौटााारियों की भरमार दिखाई देने लगी। कुछ लोगों ने नकली मुखौटा खींच कर अलग करना चाहते हैं और कोशिश भी करते हैं, पर वे मुखौटे अलग नहीं कर पाते। फलतः दुनिया में आज सर्वत्र नकली चेहरे ही दिख रहे हैं और चहूँओर फैला भ्रम का वातावरण मानवीय सभ्यता को त्रसित किये जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि आगे इस अशांति का कोई अंत भी नहीं है।

        

यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैंआपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँबूंद- बूंद आँसू आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैसंपर्क सूत्र  भूपेन्द्र कुमार दवे,  43, सहकार नगररामपुर,जबलपुरम.प्र। मोबाइल न.  09893060419.        

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