मेरी चाय की दुकान में झूठ का लश्कर है

मेरी चाय की दुकान में झूठ का लश्कर है

वो हाथ की लकीरों से ख़ाक़ सिकन्दर है,
ये हाथ नहीं जिसके उसका भी मुक़द्दर है।

मेरी चाय की दुकान में झूठ का लश्कर है

मुझमे क्या कमी है कि सियासत ना करूं,
मेरी चाय की दुकान में झूठ का लश्कर है।

कैसे मानूं कि दुनिया में है शैतान अकेला,
मेरे शहर में भी तो नफ़रत का पयम्बर है।

दो चार आंसू बहने से ग़म होगा क्या कम,
मुझे ग़म इतना है कि आंखों में समन्दर है।

मैं गुनहगार हूं तफ्तीश में,बेशक फुटेज में,
उसके हाथ में बंदूक, मेरे हाथ में पत्थर है।

बड़ा आदमी होने की कोई और शर्त रखो,
दौलत हर एक शख्स को कहां मयस्सर है।

उलझन में इसलिए भी रहता हूं आजकल,
घर अपना है फिर भी कांटों का बिस्तर है।

तुम बा-हिफ़ाज़त रहने की उम्मीद छोड़िए,
वो कपटी है, आंखों में धोखे का अस्तर है।

ज़फ़र वैसे तो करता है वो मन की गुफ्तगू ,
मगर उसकी बातें नहीं जैसे कोई नश्तर है।



– ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

एफ़-413,

कड़कड़डूमा कोर्ट,

दिल्ली-32, zzafar08@gmail.com

You May Also Like