मेरी ज़िन्दगी में भी आये थे ‘अज्ञेय’ (१) – महेंद्र भटनागर

अपने प्रारम्भिक साहित्यिक जीवन में ‘अज्ञेय’ जी से बड़ा प्रभावित था। उनका मेरा प्रथम साहित्यिक परिचय ‘गैंग्रीन’ (‘रोज़’) शीर्षक कहानी के माध्यम से हुआ। इस कहानी के कला-सौन्दर्य और मनोवैज्ञानिक चित्रण ने बड़ा आकर्षित किया था। तदुपरांत, ‘अज्ञेय’ जी की और भी कहानियाँ पढ़ीं — जो उपलब्ध हो सकीं। ‘कोठरी की बात ‘ (जेल-जीवन की कहानियों का संग्रह) पढ़ी। ‘अज्ञेय’ जी के व्यक्ति के संबंध में, बहुत-कुछ उज्जैन-आवास के दौरान, प्रभाकर माचवे जी से सुना। तदुपरांत, डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी से। ‘तार-सप्तक’ (प्रकाशन- सन् 1943) प्रभाकर माचवे जी के यहाँ ही देखा; सन् 1945 के बाद कभी। ‘तार-सप्तक’ के मुख-पृष्ठ का चित्र देखकर ‘अज्ञेय’ जी की असाधारणता का बोध होता है। माचवे जी इस चित्र को समझ नहीं पाते थे; उन्हें वह कुछ उल्लू का-सा चित्र प्रतीत होता था ! ‘अज्ञेय’ जी के वैशिष्ट्य पर हम प्राय: बात करते थे। ‘तार-सप्तक’ की प्रकाशन-योजना भी माचवे जी से ही विदित हुई थी। ‘अज्ञेय’ जी से मेरा सीधा परिचय व पत्राचार सन् 1948 में हुआ। उन दिनों, उज्जैन से, ‘सन्ध्या’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहा था। ‘सन्ध्या’ की प्रति ‘अज्ञेय’ जी को भी प्रयाग भेजी। ‘अज्ञेय’ जी का उत्साहवर्द्धक पत्र मिला :

प्रयाग / दि. 17-11-48

प्रिय महेंद्र जी,

‘सन्ध्या’ मिली। सुंदर है, और आशा करता हूँ कि आप उसे निकाल ले जायेंगे। मध्य-भारत में नयी पत्रिकाओं के लिए काफ़ी क्षेत्र है और आपको उसका लाभ उठा कर ‘सन्ध्या’ की उन्नति का प्रयत्न करना चाहिए।

मैं दिसम्बर में कुछ भेज सकूंगा ; आप क्या एक बार याद दिलाने का कष्ट करेंगे ?

सस्नेह, आपका

वात्स्यायन

‘अज्ञेय’ जी, इन दिनों प्रयाग से ‘प्रतीक’ (द्वै-मासिक साहित्य-संकलन) निकाल रहे थे – श्रीपतराय जी के साथ। ‘प्रतीक’ के अंक क्र. 10 (हेमंत/ 1948) में उन्होंने मेरी भी एक कविता ‘संकल्प-विकल्प’ प्रकाशित की :

आज यह कैसी थकावट ?

कर रही प्रति अंग – रग-रग को शिथिल !

.

मन अचेतन भाव-जड़ता पर गया रुक !

ये उनीदें शान्त बोझिल नैन भी थक-से गये !

.

क्यों आज मेरे प्राण का

उच्छ्वास हलका हो रहा है,

गूँजते हैं क्यों नहीं स्वर व्योम में ?

.

पिघलता जा रहा विश्वास मन का

मोम-सा बन,

और भावी आस भी

क्यों दूर-तारा-सी

दृष्टि-पथ से हो रही ओझल ?

.

व जीवन का धरातल

धूल में कंटक छिपाये

राह मेरी कर रहा दुर्गम !

.

गगन की घहरती इन आँधियों से

आज क्यों यह दीप प्राणों का

रहा उठ रह-रह सहम ?

.

रे सत्य है,

इतना न हो सकता कभी भ्रम !

.

भूल जाऊँ ?

या थकावट से शिथिल हो कर

नींद की निस्पन्द श्वासों की

अनेकों झाड़ियों में

स्वप्न की डोरी बना कर झूल लूँ ?

.

इस सत्य के सम्मुख झुका कर शीश अपना

आत्म-गति को

(रुक रही जो)

रोक लूँ ?

.

या सत्य की हर चाल से

संघर्ष कर लूँ आत्मबल से आज ?

***

इस अंक के अन्य लेखक थे — दिनकर, सुमित्रानंदन पंत, जैनेन्द्र कुमार, भगवतशरण उपाध्याय, गिरिजाकुमार माथुर, त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर सहाय, नलिनविलोचन शर्मा, प्रभाकर माचवे आदि।

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