विघटन संवेदना का

विघटन संवेदना का

इस मतलबी दुनिया में सभी 
अपने-अपने मतलब के साथी
वक्त की चोट लगी सीने पर
तब अपनों की ही भीड़ में
हमने खुद को अकेला पाया।
खुदगर्ज यहां भरे परे हैं
रेणु रंजन
रेणु रंजन
इतिहास पलट कर देखा तो
इसके किस्से बहुत भरे हैं
दानवता आज निखर रहा है 
मानवता को घुटकता पाया। 
भूख से गरीबी तड़प रही
अमीरों की रोटी सड़ते देखा
कोख में बेटी मारी जाती 
अक्सर बेटों को बहकते देखा
इससे मन को विचलित  पाया। 
भाई-भाई बन जाते दुश्मन 
स्वार्थवश सबको लड़ते देखा 
लोभ संवरण करे न कोई 
सभ्यों को भी असभ्य बनते देखा
भरे घर को भी टूटता पाया। 
जगह-जगह गंदगी भरी पड़ी
उसमें मासूमों को लोटते देखा
क्षुधा व्याकुल गरीबी कराह रही
फटेहालों को भी मचलते देखा
अपने अंदर खुद को ढूंढता  पाया। 
अपने भी चलते स्वार्थ की राह 
गैरों की क्या परवाह करें
रिस्तों की बलि बेदी पर
खुद को समर्पित करके देखा 
कठोरता को अंदर सहमता पाया। 
हो रहा विघटन घर घर में
संवेदनशील व्यवहार का
बड़े छोटों का भेद रहा नही
बुजुर्गो का सम्मान घटते देखा
कसौटी पर अपने को कसता पाया। 
    





–  रेणु रंजन
शिक्षिका, राप्रावि नरगी जगदीश
पत्रालय : सरैया, मुजफ्फरपुर
मो. – 9709576715

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