फिसलती रेत कविता

फिसलती रेत

सूरज की आखिरी किरण के पीछे 
नदी के किनारे 
हवा की सरसराहट 
फिसलती रेत

बहते जल का कल कल 

पैरों के नीचे फिसलती रेत 
और तुम्हारे उड़ते हुए केश,
दूर गांव में 
जल रही मशाल से 
मेरा ध्यान विचलित कर रहे हैं।
मेरे बढ़े हुए हाथ 
तुम्हारे माथे और कपोलों से 
बालों का झुरमुट हटाते हुए 
कांप रहे हैं।
जैसे मैंने हटाया हो 
बालों के झुरमुट के साथ 
किसी भूखे के सामने से भोजन 
किसी प्यासे के सामने से पानी 
और जैसे मैंने हटाया हो
किसी कवि की कविता
किसी लोकतांत्रिक राष्ट्र की संसद
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रवि कान्त उपाध्याय 
(एम.ए. हिंदी साहित्य, इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
शिवकुटी, इलाहाबाद

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