मैं किसी को नहीं जानता हूं

मैं किसी को नहीं जानता हूं

मैं किसी को नहीं जानता,
साफ-साफ कहता हूं।
हाँ! साहब! साफ-साफ कहता हूं।
मैं किसी को नहीं जानता हूं।
ना सियासत को जानता हूं,
ना सियासत के रखवालों को जानता हूं।
ना हुक्म को जानता हूं,
ना हुक्मरानों को जानता हूं।
ना अफसरशाही को जानता हूं,
ना अफसरानों को जानता हूं।
बस साहब अपने आप को जानता हूं।
क्योंकि साहब यह मुझें नहीं जानते,
मुझें नहीं पहचानते,

मैं किसी को नहीं जानता हूं

मेरे नाम को नहीं जानते।
मेरे काम को नहीं मानते,
मेरे दर्द को नहीं जानते,
मेरे टीस,मेरे पीड़ा को नहीं जानते।
मेरे भूख को नहीं समझते,
मेरे प्यास को नहीं मानते,
मेरे लफ्ज़ को नहीं सुनते,
मेरे हक को नहीं मानते,
मेरे फर्ज को नहीं समझते।
साहब! मेरे कई नाम है,
भला किस-किस नाम से,
जानेंगे मुझें?
साहब मेरा नाम,
धर्म भी है,
जात भी है,
हिंसा भी है।
वर्गभेद भी है,
दर्द भी है,दुःख भी है।
बुखमरी भी है,
लाचारी भी है,
टीस भी है,
सम्प्रदाय भी है,
नस्लवाद भी है।
अलगवाद भी है,
बेरोजगार भी है,
ठोकरें भी है।
भ्रष्टवाद भी है,
ट्रस्टवाद भी है,
वर्चस्व भी है।
साहब अब कितना नाम गिनाऊँ।
कभी-कभी साहब,
हम आपस में लड़ जाते है,
अपनें-अपनें वर्चस्व के लिए तन जाते है।
पर साहब हम क्यों लड़ जाते है?
या हमें कोई लड़ा जाता है।
साहब! हम कहां-कहां,
अधिकार के लिए लड़े।
हम कहां-कहां अपने मान के लिए लड़े,
साहब! कोई हमें बस झुंड समझता है।
बस हमें नहीं जानता साहब!
वो कहीं बैठा हंसता है साहब!
बस हमें बेनाम भीड़ समझता है साहब!
और हमें हिंसा के बल पर नोचता है साहब!
बस साहब! हमारा ही
बस कुचल कर,
कुछ खून बहाकर,
कुछ छीनकर,
कुछ लूटकर।
हमारे ऊपर ही फेंकता है साहब!
कुछ डरा कर,
कुछ डर कर,
हमें ही डराता है साहब!
बस साहब! मुश्किल से जी लिया जाता है,
वो आज भी बैठा हंसता है साहब!
हम भीड़ होकर रोता है साहब!,
हम भीड़ होकर रोता है।

                 

 —-राहुलदेव गौतम

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