युवा भारत के भविष्य की तस्वीर अब हमारे ही हाथों में

युवा भारत के भविष्य की तस्वीर अब हमारे ही हाथों में 

ज के दौर का भटकता युवा किस रास्ते पर जा रहा है? इसकी फ़िक्र ही कहाँ किसी को है? हर कोई ऐसी अंत हीन दौड़ की तरफ दौड़ रहा है, जिसका कोई अंत नज़र नहीं आ रहा है। हरकोई बस दौड़ में दौड़े चला जा रहा है। विश्व भर में हमारा ही देश ऐसा है, जहाँ सबसे ज्यादा युवा हैं और जिस देश में युवा ज्यादा होते हैं वो देश उन्नति करता है ये तो सभी का कहना है मगर, क्या कोई जानता है? कि युवा होने मात्र से उन्नति निश्चित है, मैं इस बात से इत्तफ़ाक नहीं रखता हूँ हो सकता है कि आप में से भी बहुत सारे लोग मेरी बात से सहमत होंगे मगर कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो मेरी बात से असहमति रखते होंगे, क्यों की अगर हमारा युवा भटक गया! या फिर भटक सकता है तो भविष्य में इसके नकारात्मक परिणाम भी हम सबको ही भुगतने होंगें! अगर इन युवाओं का भविष्य अन्धकार की तरफ इशारा करता है, तो हमारा देश भी इस समस्या से कैसे अछूता रह सकता है? जो भविष्य इन युवाओं का होगा उसी से हमारे राष्ट्र का भी निर्माण होगा।  
युवा भारत के भविष्य की तस्वीर अब हमारे ही हाथों में

राष्ट्र निर्माण की दिशा में बड़ी भूमिका उन व्यस्को की है, जो नौकरी पेशे से जुड़े हुए हैं और उन व्यवसाओं में है जो रोज़गार  के अवसर प्रदान करते हैं। अगर हमारे देश में व्यवसाय कम मात्रा में हैं  जो रोज़गार  के अवसर देते हैं, तो भी इस युवा वर्ग को ऐसे अंत हीन दिशा की ओर धकेल सकता है जहाँ से उसको वापिस लाना नामुमकिन हो सकता है! इसकी कुछ हद तक जिम्मेदारी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की भी बनती है। इस दिशा में कुछ पुख्ता इंतज़ाम किए जाए न कि लाखों सरकारी नौकरियों की और कारखानों में काम करने वाले चाहें मजदूर हो या ऊपर लेवल पर काम करने वालों कीं घोषणाएं करके छोड़ दी जाएं और क्रियान्वयन के लिए उचित कदम न उठाए जाएं।  न कि ऐसी घोषणाएं बस कर दीं जाएं तथा केवल और केवल अखबार एवं मीडिया कीं शुर्खियाँ बटोर कर रह जाएं , बाद में इन योजनाओं का क्या हुआ? किसी को कुछ नहीं पता! पहले क्या योजनाएं थीं? और अब क्या योजनाएं हैं? किसी  को कुछ नहीं पता सब कुछ अता-पता और लापता सा ही नज़र आता है।

   
राज्य सरकारें, केंद्र सरकार पर और केंद्र सरकार, राज्य सरकारों को दोषी ठहराने में हमारे देश में माहिर हैं, और इस तरह से दोनो सरकारें अपने-अपने बचने का रास्ता ढूँढ ही लेती हैं, और जनता भी जिसके विरुद्ध होती है, उसके खिलाफ़ मन पक्का कर लेती है। इस तरह से कुछ लोग इस तरफ और कुछ लोग उस तरफ नज़र आने लगते हैं और लोग इसी तरह से अपने मार्ग से भ्रमित हो जाते हैं। सरकारें इसी बात का फ़ायदा उठातीं हैं इस तरह से पाँच साल के लिए अमुक सरकार बनती और जब इस सरकार से परेशान हो जाते हैं तो दूसरी सरकार बन जाती है इस तरह से सरकारों का समाधान तो निकल जाता है पर रोज़गार  की योजनाएं ढांक के पात ही साबित होतीं हैं और युवा वहीँ खड़ा ख़ुद को ठगा सा महशूस करता है पर युवा भारत के इस युवा की जीविका का समाधान अभी तक भी नहीं निकाल सका! और इन बातों का खामियाज़ा हमारे देश की इस नई पीढ़ी को ही भुगतना  पड़ता है। जो 40 से 50 साल या उससे ऊपर के लोग हैं। हम लोग गेंद को दूसरे के पाले में फैंक कर इस समस्या से कभी भी निज़ात  नहीं पा सकते!    
प्रोफेसर कमलेश संजीदा
प्रोफेसर कमलेश संजीदा

अब सवाल यह उठता है कि 40 से 50 साल आयू या उससे ऊपर के लोग इस समस्या के लिए क्यों जिम्मेदार हैं? ये वो लोग हैं जो अब तक सभी स्थितियों को भली भाँती समझ चुके होते हैं। क्या रास्ता निकालना होता है? इसमें भी माहिर हो चुके होते हैं अपने व्यवसाय कैसे शुरू किए जा सकते हैं? और दूसरों के व्यवसाय में नौकरियों की संभावनाएं हो सकतीं हैं या नहीं हो सकतीं, अच्छी तरह से समझ चुके होते हैं। जिंदगी के विभिन्न पहलुओं से भी दो-चार हो चुके होते हैं तथा नईं संभावनाएं भी तलाश सकते हैं नए व्यवसाय भी स्थापित कर सकते हैं जिसमे नए रोज़गार  उपलब्ध हो सकते हैं। विपरीत परिस्तथियों में फसकर भी निकलने के लिए नए मार्ग तैयार कर सकते हैं। इसलिए ये लोग ज्यादा समझदार साबित होते हैं ये लोग नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के अंतर को भी भली भाँती समझते हैं नए और पुराने तरीके के धंधों में संभावनाएं पैदा कर सकते हैं इनका सम्बन्ध और कार्य क्षेत्र में सामना हर रोज़ दौनों पीढ़ियों से करना पड़ता है।  और दौनों पीढ़ियों में ये लोग समन्वय बना कर ही चलते हैं। शायद आप लेखक की इस बात से सहमत होंगे।

युवा भारत की युवा की तश्वीर किसकी आँखों से छिपी हुई है। सभी जानते हैं, लेकिन युवा क्या करें? क्या ना करें? आज उसकी समझ में नहीं आ रहा है। आज का युवा रोज़गार  को लेकर अपनी जीविका चलाने के लिए जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है? करोना काल के बाद से, जो अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है करोना काल अभी भी चल ही रहा है। बहुत सारे धंधे व्यवसाय बंद हो चुके हैं, और जो चल भी रहे हैं उनमें उस हिसाब से रोज़गार  उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं जिस हिसाब से रोज़गार उपलब्ध होने चाहिए थे, रोज़गार  की उपलब्धता नहीं हो पा रही है और ना ही अभी दिख रही है, किसी भी नए या पुराने तरह के रोज़गार  की उपलब्धता पर ही मार्केट की स्थितियां  निर्भर करतीं हैं। क्योंकि मार्केट के अंदर मनी का फ्लो उस हिसाब से नहीं हो पा रहा है! जिस हिसाब से होना चाहिए था! जब मार्केट में मनी का फ्लो ही नहीं होगा, तो धंधे कैसे चलेंगे? शायद  नहीं चल पाएंगे। ना ही नए रोज़गार उत्पन्न हो पाएंगे।
अब आगे आने वाले समय में हो सकता है, कि स्थितियां थोड़ी दुरुस्त हों,  लेकिन पिछले डेढ़ साल के अंदर बहुत सारे युवा अपनी नौकरी खो बैठे हैं या उन्होंने कहीं दोबारा प्राइवेट सेक्टर में ज्वाइन किया है, तो उन्हें उस हिसाब से महीने का पारिश्रमिक नहीं मिल पा रहा है जो कि अब से पहले वो सैलेरी ले रहे थे! यहां तक कि बहुत सारे लोगों की पारिश्रमिक 50% से 70% से भी कम हो चुका है गवर्नमेंट सेक्टर में और प्राइवेट सेक्टर में सैलरी से संबंधित बहुत बड़ी खाई बन चुकी है गवर्नमेंट में यदि मैं किसी एंप्लॉय की बात करता हूँ, तो अगर हम एक चपरासी के वेतन की बात करें तो लगभग 30,000 रूपये के करीब महीना मिलता है, और प्राइवेट सेक्टर में 10 साल पुराना इंजीनियर जो कभी लाखों में काम करता था, आज 15000-16000 रूपये पर आ गए हैं और बहुत सारे युवा बेरोज़गार  हो चुके हैं। क्या अब 15000-16000 रूपये लेने वाला जो कभी 80 हज़ार रूपये या उससे अधिक महिना पाता था। क्या उसमें उसका सर्वाइवल लेवल रहेगा? या बिगड़ जाएगा। यह आप अपने आप सोच सकते हैं। महंगाई भी दिन प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है जो रुकने का नाम नहीं ले रही है। इस तरह से एक इंजीनियर आदमी भी धीरे-धीरे गरीबी रेखा की तरफ बढ़ता चला जा रहा है। यहां तक की देखा जाए बहुत सारे इंजीनियर्स और अलग-अलग काम करने वाले लोग जिन्हें नौकरी के अवसर नहीं मिल पा रहे हैं। वह मार्केट में नौकरी के लिए भटक रहे हैं यहां से वहां भागे फिर रहे हैं और उन्हें नौकरी नहीं मिल पा रही है घर का जीवन यापन करना उनके लिए दिन प्रतिदिन मुश्किल सा होता चला जा रहा है क्या करें? क्या ना करें? यह उसे समझ में ही नहीं आ रहा है। कुछ  लोग तो रिक्शा चलाने को भी मजबूर हैं और कुछ लोग सब्जी बेच रहे हैं क्या एक पढ़ा लिखा युवा अगर सब्जी और रिक्शा का काम करके देश के उत्थान में नई रिसर्च में योगदान दे सकता है? ये तो फिर सवाल बनकर ही रह जाएगा!
पढ़ा लिखा आदमी सोचने को मजबूर हो रहा है कि वह क्या करें? अब उसके सामने कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है  वह मजदूरी कर नहीं सकता! या यह कहिए कि मजदूरी करना उसके बस की बात ही नहीं है! क्योंकि उसने तो दिमाग से काम लिया था। और अपने आप को ऊपर उठाया था लेकिन उसकी स्थिति आज  मजदूर के मुकाबले  बद से बदतर होती चली जा रही है। मुझे नहीं पता क्या होने वाला है? और शायद आपको भी नहीं पता! भविष्य में क्या होने वाला है? अब आप यह सोचने लगे होंगे कि ये आदमी तो नेगेटिव बात कर रहा है तो आप ही सोच कर बताएं! लेकिन इसके भयावह परिणाम हो सकते हैं! और आगे आने वाले वक्त में हमें देखने को मिलेगें! जिसके लिए हमें अभी से तैयार रहना होगा। इसमें भी कहीं ना कहीं हमारी ही गलतियाँ रही हैं और उन गलतियों को बार-बार दोहराया गया है, यदि हम वह गलतियाँ नहीं करते! तो शायद! हम ऐसी स्थिति में नहीं पहुँचते,  एक दूसरे का शोषण करने का लेवल बढ़ता चला जा रहा है प्राइवेट सेक्टर में लोगों से काम तो ख़ूब कराया जा रहा है लेकिन उसके हिसाब से उसको मेहनताना नहीं दिया जा रहा है इस तरह से अब युवा अंदर से परेशान, हताश एवं दुखी होता चला जा रहा है। टूटता चला जा रहा है जो हमारे देश के लिए, देश के भविष्य के लिए घातक हो सकता है हमें इससे भी बचना है। 

अब हम सब लोगों को मिलकर ही इसका समाधान निकालना है कि क्या हो सकता है? कैसे हो सकता है? कैसे इसे बदला जा सकता है? यदि इस पर हम सब ने विचार नहीं किया तो वह भयावह परिणाम हमें देखने को ही मिलेंगे और उन्हें कोई नहीं रोक सकता! ना ही शायद किसी के रोकने की भविष्य में क्षमता होगी!  इसके लिए सरकारों को भी, चाहे वह राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार हो और बड़े-बड़े उद्योगपतियों को ही इसका समाधान निकालना ही होगा अगर उद्योगपति यह सोचते हैं  कि हम तो आगे बढ़ते रहेंगे तो यह भी उनकी एक भूल साबित हो सकती है यदि वह ऐसे  शोषण करते रहेंगे तो एक अवस्था पर आकर जब वह चरम सीमा तक पहुँचेगी तब एक  विस्फोटक परिणाम दे सकती है। जिससे हम सबको ही बचना है या सचेत रहना है  और ओरों को भी बचाना है जिसके लिए सही निर्णय लेकर सही वक्त पर सही कदम उठाने की जरुरत है जिसमे हम सबको आगे बढ़कर एक दूसरे का हाँथ पकड़कर एक दूसरे का सहारा बनकर, एक दूसरे पर विस्वास कायम रखना होगा और ऐसे रास्ते खोजने हैं जिनसे भारत के इस युवा शक्ति को भटकने से बचाना है ये सब हमारी ही जिम्मेदारी है इसको संभालने के लिए दूसरा नहीं आने वाला न ही हमें इस तरह की उम्मीद किसी अन्य देश से रखनी चाहिए समस्या हमारी है तो हमें ही सुलझानी है। हम ही जिम्मेदार हैं।और इस तरह युवा भारत के भविष्य की तश्वीर अब हमारे ही हाँथों में है।


– प्रोफेसर कमलेश संजीदा,

गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश

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