रसखान
रसखान दिल्ली के एक पठान सरदार थे।इन्होने प्रेम वाटिका में अपने आपको शाही खानदान का कहा गया है।
रसखान |
इनके अलावा इनके जीवन के सम्बन्ध में कुछ प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पायी है।कहीं -कहीं इन्हें सैयद इब्राहीम के नाम से जाना गया है .वास्तव में रसखान न तो बिट्ठलनाथ के शिष्य थे और न ही उनका कृष्ण काव्य पुष्टिमार्ग की भक्ति पद्धति पर लिखा गया है , इनके कविताओं में सुफिओं के प्रेम पीर की प्रधानता मिलती है , रसखान एक रसिक कवि थे और उनका लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम में बदल गया था। अर्थात न तो रसखान नारद भक्त थे ,वल्लभी नहीं। प्रेम उनके जीवन और काव्य का मूल आधार है –
आनंद अनुभव होत नहीं , बिना प्रेम जग जान !
के वह विषयानन्द कै ,ब्रह्मानंद बखान। .
रचनाएँ- इनकी दो पुस्तकें प्रेमवाटिका और सुजान रसखान प्रकाशित हो चुकी है। प्रथम पुस्तक में प्रेम विषयक दोहों का संग्रह है और दूसरी में कवित्त सवैय्या छंद में एकनिष्ठ प्रेम की मार्मिक अभिव्यंजना की है।
रसखान सचमुच रसखान है। आचार्य शुक्ल इनके सम्बन्ध में लिखते हैं – प्रेम के ऐसे सुन्दर उदगार सेवाओं में निकले कि जन – साधारण प्रेम या श्रृंगार सम्बन्धी कवित्त सेवाओं को ही रसखान कहने लगे – “जे कोई रसखान सुनाऊँ।” रसखान ने ब्रजलीला को उतना महत्व नहीं दिया जितना विलोकन और मुस्कान को। इन्होने संयोग और वियोग श्रृंगार के दोनों पक्षों का सुन्दर वर्णन किया है। रसखान का मन जितना किशोरलीला में रमा है ,उतना बाल लीला में नहीं . रास और चीरहरण लीला को उन्होंने चलता सा बना दिया है।बाँसुरी में चमत्कार में केवल रस ही नहीं ,कला भी है। इनकी भाषा बहुत चलती ,सरस और शब्दाम्बर युक्त है। रसखान ,अंलकारों और छंदों के अनावश्यक आडम्बर में नहीं फँसे। रसखान ,ब्रजभूमि में मनुष्य रूप में ग्वाल बालों के साथ में ,पशु रूप में ,नन्द की गायों के बीच ,पत्थर रूप में उस पहाड़ में जिसे श्री कृष्ण ने अपनी उँगली पर धारण किया था और पक्षी रूप में यमुना तट पर स्थित कदम्ब वृक्ष पर रहना चाहते हैं।रसखान की कविताओं में कृष्ण के किशोरावस्था का रूप विभिन्न रूपों में प्रलक्षित हुआ है :-
१. मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
२. या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
३. सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तू पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥