राजा जनक को उपदेश

राजा जनक को उपदेश

राजा जनक को उपदेश सनन्दन जी कहते हैं मोक्ष धर्म सम्बंधित वचन सुनकर तत्वज्ञ नारद जी ने अध्यात्म विषयक उत्तम बात जानने  हेतु बोले – अध्यात्म और ध्यान विषयक मोक्ष ,शास्त्र को बार -बार सुनने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हो रही है , साधु पुरुष जिसका अवलम्बन लेकर अविद्द्या रुपी बंधन से मुक्त होते है|उसे जानने की पुनः चेष्टा उन्होंने की और कहा कि विद्वान् पुरुष प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं | अब मिथिला नरेश जनक जी ने मोक्ष कैसे प्राप्त किया यह जानने के लिए शास्त्रों के घोर अध्ययन की आवश्यकता होगी कहा गया है कि जनक वंशी राजा जयदेव का मिथिला में राज्य था और जयदेव ब्रह्म प्राप्ति के लिए धर्म चिंतन करते थे | राजा चिंतन करते करते जब निष्कर्ष की राह पर होते अथवा शंका होने पर आचार्य ,पुरोहितों से बैठक कर समाधान की तरफ बढ़ते  राजा जयदेव के दरबार में विभिन्न आयु वर्ग के एक सौ आचार्य चिंतन के हेतु  होते थे | राजा के विचार में आया –
  •  ‘ इस शरीर को त्यागने के पश्चात सत्ता रहती है या नहीं ‘
  •  ‘पुनर्जन्म होता है या नहीं ‘

इस प्रश्न को राजा जयदेव ने आचार्यों के समक्ष रखा | इस प्रश्न के उत्तर  के रूप में  आचार्यों द्वारा जो तर्क रखा जाता था उससे राजा जयदेव जी को  संतोष न होता था | आचार्यों ने अलग अलग तर्क प्रस्तुत करते परन्तु निष्कर्ष तक न पहुंच पाते | राजा को संतुष्ट करने में आचार्य सफल न हो पाते थे |   संयोग ही था कि उसी समय कपिला के पुत्र सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके मिथिला में आ पहुंचे थे | यह एक संयोग ही था महामुनि पंचशिख जी का  वहां  आना | यह प्रसंग कवि की कल्पना नहीं अपितु नारद पुराण में वर्णित है |  महामुनि पंचशिख जी तत्वज्ञानी और संन्यास धर्म परायण थे | वे संदेह रहित होकर निर्द्वन्द हो विचरण करते थे | मुनि ऋषियों में अद्वितीय कामना रहित थे तथा सांख्यविधान के ज्ञाता थे उनमें  साक्षात कपिल मुनि ही रूप धारण किये हैं , बताया गया |वे मुनि शिष्य तो थे ही चिरंजीवी भी थे और उन्हें ब्रह्मनिष्ठ बुद्धि मिली हुई थी |महामुनि पंचशिख परमार्थ स्वरुप ब्रह्म के विषय में उपदेश दिए इस बात को ब्रह्मा जी ने बताया  जिसे सनन्दन जी ने उद्धृत किया | 
पंचशिख जी ने जनक जी का  धर्माचरण भाव देख ‘मोक्ष का उपदेश राजा जनक को दिया | यह सांख्य शास्त्र पढ़ने से प्राप्त हो सकता है | सांख्य शास्त्र में इसका विशेष, विधिवत वर्णन किया गया है|  उन्होंने –  ‘जाति निर्वेद’ तदुपरांत ‘कर्म निर्वेद ‘पुनः ‘सर्व निर्वेद , बताया | 
  •  जिसके लिए धर्म का आचरण किया जाता है वह कर्मों का फल उदय होने पर प्राप्त होता है | उसको यह लोक और परलोक का भोग नश्वर है | 
  •  वह मोहरूप चंचल और अस्थिर है | आस्था व्यर्थ है | 
  •  नास्तिकों के मतानुसार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है | जैसे गाय  में दूध – घास आदि से आते हैं ठीक उसी प्रकार वीर्य से शरीर आदि सहित चेतना  भी प्रकट होती है | चेतन आत्मा शरीर से भिन्न है यह सिद्ध है !  क्योंकि मृत्यु पश्चात कुछ समय शरीर तो रहता है परन्तु चेतना नहीं रहती | 
  •  देह से आत्मा भिन्न है | आत्मा नहीं मरती |
  •  यदि आत्मा मर जाती , तो कर्म का नाश हो जाएगा | 

प्रमाण कहते हैं – ‘देहातेरिक्त आत्मा ‘,आत्मा की सत्ता है | विभिन्न मतों में आस्था रखने वाले ,इधर -उधर दौड़ लगाने वाले – जड़ सदृश्य स्थिर हो जाते हैं | उनको नाथ की कृपा होने से राह दिखाते हैं और राह पर लाते 
हैं | शास्त्रों में दव्य त्याग हेतु -‘यज्ञकर्म ‘ बताया गया | 
* भोग त्याग के लिए ‘व्रत ‘
* दैहिक सुख त्याग हेतु ‘तप ‘
और सबकुछ त्याग हेतु ‘योग अनुष्ठान ‘ की आज्ञा दी गयी | मनुष्य के दोनों हाथ ,दोनों पैर ,लिंग,गुदा ,वाक्  और मन को इन्द्रियों से संयुक्त माना गया है | इन्द्रियाँ ‘पांच ‘ हैं | ,पांच कर्म इन्द्रियाँ और ग्यारह मन है |इन इन्द्रियों के समयानुसार कार्य सम्पादित होते रहते हैं | इन्द्रिय को अपने बस में रखना एक कठिन कार्य है परन्तु असम्भव नहीं | गुण के प्रकार पर चर्चा करना आवश्यक है जब मोक्ष की बात हो रही हो ! 
* सात्विक गुण -सात्विक गुण,  चाहे कारण बस  अथवा अकारणबस हो ! सात्विक गुण में हर्ष ,प्रीति ,आनंद,सुख और चित्त की शान्ति को रखा गया हे | 
* रजोगुण – संताप ,असंतोष ,लोभ,क्षमा का अभाव , यह भी चाहे कारण बस हो अथवा अकारण .जैसे भी हो | 
* तमोगुण – स्वप्न ,आलस्य,मोह,प्रमाद और अविवेक ! स्थिति कारण जो भी हो जैसे भी हो |जिस प्रकार नदी पानी से भरी होने पर भी पानी से उसको मोह नहीं होता और पेड़ फल से परिपूर्ण होने पर भी वृक्ष फल का मोह नहीं करते हैं उसी प्रकार मनुष्य को सब कुछ भरा रहने पर भी यदि मोह नहीं होता है तो वह मनुष्य सुख का अनुभव करता है |  इस विधा को जो जानकार सावधानी से आत्मसात करता है वह मनुष्य बंधन रहित रहकर दुःख -सुख की चिंता से रहित ,अलग रहने वाला ‘मॉक्ष प्राप्त करता है | जिस प्रकार से वृक्ष के गिराने पर पक्षी भाग जाती हैं अर्थात पेड़ को छोड़ देते हैं ,उसी प्रकार आसक्ति रहित मानव को सुख प्राप्त होता है | 
राजा जनक
राजा जनक

महाराज जनक ने महामुनि पंचशिख के उपदेशों को आत्मसात किया | कहा गया कि ‘एक बार मिथिला नगरी में आग लगने पर मिथिला जलता देख भूपति जनक ने कहा – इस जलने से मेरा कुछ भी नहीं जलता | इस पाठ को पढ़कर, सुनाकर ,चिंतन करने से,मनन करने से लौकिक जगत में ,मनुष्य विशेष लाभ का भागी होगा | ईश्वर के  अद्भुत कृपा का पात्र होकरवह मनुष्य राजा जनक की ही भाँती ज्ञान पाकर मुक्त हो ‘माक्ष का भागी होता है | महाराज जनक और जनकपुर  की महिमा का वर्णन करना आज के कलिकाल युग में किसी भी साहित्यकार के बूते की बात हो यह मिथ्या प्रलाप ही कहा जा सकता है | एक प्रसंग याद दिलाना आवश्यक समझता हूँ कि महामुनि परशुराम जी को शिव से मिली धनुष को शिव शंकर ने योग्य व्यक्ति के यहां कार्य पूरा होने पर रखने को कहा था |  परशुराम को तीनों लोक में जनकपुर को ही ऐसी उचित  जगह मिली जहां भगवान शंकर की पिनाक धनुष को रखा | जनकपुर जगत जननी जानकी के जन्म उत्पत्ति का पुण्य स्थान है | जानकी को कहा जाता है पिछले जन्म में वेदवती नाम से जानी जातीं थी | उन्होंने रावण को श्राप दिया था ,रावण का, जनक नंदनी बनकर राजा राम संगनी के रूप  में आततायी संत ऋषि विरोधी का नाश का कारण बनीं | सीता माता धरती से प्रकट हुईं और अंत भी धरती में समाहित होकर हुआ | 

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार राजा जनक जी के राज्य मिथिला की राजधानी जनकपुर में थी | जनकपुर बिहार के सीतामढ़ी -दरभंगा से ३६ किलोमीटर (वर्तमान ) दूरी पर अवस्थित नेपाल में है | वहां माँ सीता के मंदिर को आज भी नौलखा मंदिर के नाम से जाना जाता है |  जनकपुर के चारो ओर विश्वामित्र ,गौतम ऋषि , वाल्मीक और याग्यवल्क्य के आश्रम थे | 
-सुखमंगल सिंह ,
अवध निवासी 

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